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उपर्युक्त चारों तपों का निग्नन्थ सम्प्रदाय में पालन किया जाता था। भगवान महावीर ने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निग्रन्थों के लिए भी इनका विधान किया था। अब यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध के दीक्षा लेने से पूर्व महावीर का निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आया था अतः अवश्य ही वह उनके पूर्व भ. पार्श्वनाथ का होगा, जिसके उक्त चार तपों को बुद्ध ने धारण किया था किन्तु बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या में कुछ सार न मानते हुए इन तपों का परित्याग कर दिया था, हो सकता है ऐसा उन्होंने अपने धर्म को निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय से मूलत: पृथक् करने हेतु किया हो।
"उत्तराध्ययन सूत्र' के 23 वें अध्ययन से पार्श्व के शिष्य केशी और महावीर शिष्य गौतम के बीच वार्तालाप का उल्लेख है जिसमें केशी ने गौतम से धर्म के सम्बन्ध में पहला प्रश्न किया, जो इस प्रकार था :...
हे महामुनि! 'चातुर्याम धर्म का उपदेश पार्श्व ने किया और पञ्च-शिक्षा रूप धर्म का उपदेश वर्द्धमान ने किया, एक ही मोक्षरूपी कार्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों धर्मों में भेद का कारण क्या है?133
इस कथन से स्पष्ट है कि चातुर्याम धर्म के उपदेष्टा भ. पार्श्व थे, और भगवान महावीर के समय में भी पार्श्वनाथ के अनुयायी (शिष्य) भारी संख्या में विद्यमान थे।
श्वेताम्बरीय जैन आगम ग्रन्थों में "पासावचिज" (पाश्र्थापत्यीय) कहे जाने वाले अनेक व्यक्तियों का उल्लेख है। प्रो. दलसुख मालवणिया ने उनकी संख्या पाँच सौ दस बतलायी है, उनमें से 503 साधु थे।134 टीकाकारों ने "पासावचिज' शब्द को व्याख्या इस प्रकार की है - (क) पाश्वर्वापत्यस्य पार्श्वस्वामि शिष्यस्य अपत्यं शिष्य : पापित्यीय:1135 (ख) पाश्वजिनशिष्या.. णामयं पाश्वपित्यीय:।136 (ग) पार्श्वनाथ शिष्यशिष्य :137 (घ) चातुयामिक साधौ।138
133 चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिाओ।
देसिओ उड्ढमाणेण, पासेण य महामुणी ॥
एकज पवाष्णाणं, विसेसे किं नु कारणं | - उत्तराध्ययनसुन 23/23-24 134 जैन प्र. का उत्थान महावीरा, पृ. 47 135 आचारांग 2,7.4 136 भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) 1.9 137 स्थानाङ्ग 138 भगवती सूत्र 15