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________________ यह सुनकर मुनिराज ने उत्तर दिया - "हे राजन्, यद्यपि जिन-प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम या भाव ही पुण्य और पाप का कारण होता है। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है उसी प्रकार सुख-दुखकारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भङ्ग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान का चिन्तन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो।92 __उपर्युक्त संवाद के माध्यम से रइधू ने मूर्ति-पूजा के औचित्य को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका यह प्रसंग "भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभ:'"93 के समान ही है। महाकवि रइधू 15-16वों सदी के कवि है और यह समय पार्मिक उथल-पुथल का समय था, मृति भंजक अपनी मनमानी कर रहे थे, ऐसे समय में यह आवश्यक था कि मूर्ति-पूजा का भरपूर समर्थन किया जाता। मेरी दृष्टि में रइधू ने यह प्रसंग इसी समर्थन में जोड़ा होगा। इस प्रकार रइधू ने अनेक संवादों के माध्यम से अपनी बात को सरलसरस बनाने का प्रयास किया है जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। चरित काव्यों की श्रृंखला में "पासणाहचरिउ' का इसीलिए महत्त्व है क्योंकि इसके संवाद प्रासंगिक एवं मनोहारी हैं। भावाभिव्यञ्जना: प्रबन्ध काव्य का एक प्रमुख तत्व भावाभिव्यञ्जना होता है। महाकवि रइधू ने भी अपने इस चरित काव्य को पौराणिक कथानक पर आधारित होते हुए भी भाव सरिता में अवगाहन कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भावों को अभिव्यजित करने में उनकी यह सफलता या चातुर्य ही माना जाना चाहिए कि चरित्र-चित्रण, घटना- वर्णन, परिस्थिति संयोजन आदि के वर्णन करते समय भी काव्य के भाव तत्त्व को तमाच्छन्न होने से उन्होंने रोके रखा 92 रइधू : पास. 6:18 १३ सागारधर्भामृत 2.65 RasiestushasuruSResusTes140dsusaisasuTSusta
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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