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________________ हैं। जैन धर्म में द्रव्य गुण और पर्याय की प्रधानता के साथ ही दुखों का मूल कषाय और वैर को माना है, क्योंकि यह अनन्त संसार का कारण होता है। "पासणाहचरिउ" में दो शक्तियों का प्रबल द्वन्द्व ही काव्य की आत्मा है, जिसके दो रूप हैं एक हिंसात्मक और दूसरा अहिंसात्मक। दोनों के नायक बने हैं क्रमश: कमठ और मरुभूति। वैर की परम्परा प्राणी को अनेक जन्म जन्मान्तरों तक भ्रमण कराती है और वैर ही कर्मबन्ध में सहायक बनता है। वैर यदि प्राचीन हो तो इसका फल भव-भवान्तरों तक भोगना पड़ता है और हर समय अहिंसा की ही विजय होती है। महाकवि रइधू ने पार्श्वनाथ के नौ भवों द्वारा अहिंसा और आत्मसाधना का उत्कृष्ट पक्ष प्रस्तुत किया है जिसका उद्देश्य यह भी माना जा सकता है कि रइधू ने जिन धर्म और अन्य धर्म या सम्यक्त्व और मिथ्यात्व तथा सदाचार और दुराचार की समग्र झाँकी प्रस्तुत की है। सदाचरण और दुराचरण का संघर्ष ही प्रस्तुत काव्य का सत्रांधिक उदात्त-तत्त्व है और इसी के समग्र चित्रण करने के लिए कवि ने पार्श्वनाथ के चरित का आश्रय लिया है। भावाभिव्यञ्जना के समावेश की ऐसी पराकाष्ठा इस काव्य में ही देखने को मिलती है जो कि आन्तरिक भावों के प्रस्फुटन और अन्त:सत्य के उद्घाटन में सहायक हई है।
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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