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________________ प्रथम परिच्छेद तीर्थंकर पार्श्वनाथ : तुलनात्मक अनुशीलन तीर्थंकर विषयक मान्यता ___जैनधर्म एक प्रागैतिहासिक एवं अनादि धर्म है। जैन परम्परा कालचक्र को मान्यता देती है। काल दो माने गए हैं एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी। एक काल में तीर्थंकरों की संख्या 24 होती है। धर्मतीर्थ के कर्त्ता को तीर्थकर कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि तीर्थंकर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति के बाद धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। तीर्थङ्कर की उत्पत्ति का काल जतकाल दी निशिा है। नी शब्द की सामानुकूल परिभाषा हमें इस प्रकार मिलती है : जो इस अपार संसार समुद्र से पार करे, उसे तीर्थ कहते हैं; ऐसा तीर्थ भगवान जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही होता है, अत: उसके कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं। 'तिलोयपण्णत्ति' में तीर्थङ्कर को समस्त लोकों का अधिपति (स्वामी) कहा गया है। वर्तमान काल के चौबीस तीर्थङ्करों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं : 1, श्री ऋषभनाथ जी, 2. श्री अजित नाथ जी, 3, श्री संभवनाथ जी, 4. श्री अभिनन्दन नाथ जी, 5. श्री सुमतिनाथ जी, 6. श्री पद्मप्रभु जी, 7. श्री सुपार्श्वनाथ जी, 8. श्री चन्द्रप्रभु जी, 9. श्री पुष्पदन्त जी, 10. श्री शीतलनाथ जो, 11. श्री श्रेयांसनाथ जी, 12, श्री वासुपूज्य जी, 13. श्री विमलनाथ जी. 14. श्री अनन्तनाथ जी, 15. श्री धर्मनाथ जी, 16. श्री शान्तिनाथ जी, 17, श्री कुन्थुनाथ जी, 18. श्री अरहनाथ जी (श्री अरनाथ जी), 19. श्री मल्लिनाथ जी, 20. श्री मुनिसुव्रतनाथ जी, 21. श्री नमिनाथ जी, 22. श्री नेमिनाथ जी, 1 षखण्डागम, भाग 8, १.91 2 संसाराब्धेपारस्य तरणे तीर्थीमष्यते । चेष्टितं जिनताथाना तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा | भगवज्जिनसेनाचार्य कृत आदि पुराण 4/8 3 तिलोयपण्णत्ती 1/48
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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