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__ग्रन्थों की सर्जना मात्र से कोई संस्कृति विश्व साहित्य में अपना स्थान नहीं बन पाती। विश्व साहित्य में स्थापित होने के लिये इन ग्रन्थों में छिपे तत्त्वों को प्रकाश में लाने की आवश्यकता है क्योंकि ये विश्व युगीन समस्याओं के समाधान करने में सक्षम है। इस दृष्टि से ग्रन्थ प्रकाशन, ग्रन्थालयों की स्थापना के साथ इन पर व्यापक और तुलनात्मक अध्ययन भी अपेक्षित है। हर्ष का विष है कि सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तथा उनके शिष्यों तपोधन मुनिवन्द की अनुकरणीय ज्ञानाराधना ( चारित्राराधना में तो उनका संघ प्रमाणभूत है ही) से समाज में ऐसी प्रेरणा जगी कि जैनाजैन विद्यार्थियों का बड़ा समूह अब विश्वविद्यालय शोधोपाधि हेतु जैन विद्या के अंगों को ही विषय बना रहा है, जो कि जैन साहित्य के विकास का सूचक है।
जैन संस्कृति के धर्मायतनों के सौभाग्य तब भी ज्यादा बढ़े जब इतिहास निर्माता, महान् ज्योतिपुञ, मुनिपुंगज श्री सुधासागर जी महाराज के चरण राजस्थान की ओर बढ़े। उनके पदार्पण से सांगानेर और अजमेर को संगोष्ठियों की सफलता के पश्चात् ब्यावर में जनवरी, 95 में राष्ट्रीय ज्ञानसागर संगोष्ठी आयोजित की गयी, जहाँ विद्वानों ने आ. ज्ञानसागर वाङ्मय पर महानिबन्ध लेखन कराने, शोधार्थियों के शोध-कार्य में आगत बाधाओं के निराकरणार्थ उन्हें यथावश्यक सहायता प्रदान करने तथा जैन विद्या के शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन करने के सुझाव दिये। अतः विद्वानों के भावनानुसार परमपुज्य मुनिश्री के मंगलमय आशीष से ब्यावर में "आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र" की स्थापना की गयी।
परमपूज्य मुनिवर श्री की कृपा व सत्प्रेणा से केन्द्र के माध्यम से बरकत उल्लाह खाँ विश्वविद्यालय, भोपाल, कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल, चौधरी चरणसिंह विविद्यालय, मेरठ, रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर व रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से अनेक शोध छात्रों ने आ. ज्ञानसागर वाङ्मय को आधार बनाकर Ph. D.उपाधिनिमित्त पंजीकरण कराया है पंजीकरण हेतु आवेदन किया है। केन्द्र माध्यम से इन शोधार्थियों को मुनि श्री के आशीष पूर्वक साहित्य व छात्रवृत्ति उपलब्ध करायी जा रही है तथा अन्य शोधार्थियों को भी पंजीकरणोपरान्त छात्रवृत्ति उपलब्ध करायी जाएगी।