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అంటోంట్
किया हो। तथ्य जो भी हों, पर इतना सत्य हैं कि "सिंहसेन" महाकवि रड़धू का अपरनाम ही है।
भ्रम का कारण :
महाकवि "रइधू" को "सिंह" मानने के पीछे भी कुछ बातें रहीं, जो इस प्रकार हैं -
(क) “सम्मइजिणचरिउ " में सिंहसेन नाम मिलता है, लेकिन वह प्रसंग की दृष्टि से उचित नहीं है। प्रसंग इस प्रकार है कि हिसार (हरयाणा) निवासी खेल्हा नामक ब्रह्मचारी ने गोपाचल (वर्तमान) ग्वालियर (म. प्र. ) दुर्ग में तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान की । हाथ ऊँची मूर्ति का निर्माण कराकर भट्टारक गुरु यश कीर्ति का धर्मोपदेश सुनकर श्रावक प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। उसी समय उसकी इच्छा हुई कि महाकवि रइधू उसके लिये एक सुन्दर " सन्मति चरित" लिख दें, किन्तु कवि से परिचय न होने के कारण उसने अपने गुरु यश: से कीर्ति से रइधू से ग्रन्थ लिखा देने हेतु प्रार्थना करता है तब यशःकीर्ति रइथू खेल्हा की इच्छा व्यक्त करते हैं :
जि सहलुकरि भो मुणि पावणएत्थु महाकड़ि णिवसण सुहमण || रक्षू णामें गुणगण धार सो णो लंघइ वयण तुम्हारउ ॥
तं णिसुणिवि गुरुणा गच्छतु गुरुणाईं सिंहसेणि मुणेवि मुणि ।
पुरु संविउ पडिउ सील अखंडिउ भणिठ तेण तं तम्मि खणि 19
उपर्युक्त पद्य में वर्णित " सिंहसेणि" शब्द ही भ्रम का कारण बना। इस विषय में जहाँ डॉ. राजाराम जी ने पूर्व में 10 " रइधू" का ही अपरनाम " सिंहसेन" स्वीकार किया है, वहीं बाद में इसे अस्वीकार करते हुए संधि--भेद भट्टारक का दोष बताते हुए लिखा है कि उक्त प्रसंगों से स्पष्ट है कि खेल्हा, यश कीर्ति एवं रधू यह तीन नाम ही प्रमुख हैं; सिंहसेन नामक किसी चौथे नाम की उसमें कोई स्थिति नहीं है। फिर "गच्छह गुरणाई" का अर्थ सिंहसेणि के साथ उनका सामन्जस्य भी कुछ नहीं बैठता। अतः विचार करने पर यही स्पष्ट होता है कि पाठ के अध्ययन एवं संधि भेद में भ्रम हुआ है। वस्तुतः सम्मइ की
सम्मइजिंग चरिउ : रधू 1/5/8 से 11
10 रधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पू. 37
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