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धरणेन्द्र ने पार्श्व को आसन पर विराजमान किया। पुन: पुनः उसने अत्यधिक विनय प्रकट की। अपने शरीर के ऊपर उन्हें चढ़ाया और बैरी का गर्व चूर किया। फणस्थित मणि के प्रकाश से अन्धकार को विदीर्ण किया, मानो पुण्य का वैसा क्रम हो नटशाला में सघन छायादार उपवन थे, मानो सुमेरु पर्वत को छोड़कर अमरवन ही वहाँ उपस्थित हो गया है। 29
राजा ने कमठ के सिर पर बेलें बँधवा दीं। वे उसके अङ्ग में कैसे शोभायमान हुई मानो अपयश रूपी वृक्ष ने विचित्र फल दिया हो 30
कमठ ने हाथी के मद से सिक्त उस वन को देखा मानो वह कमठ के पाप से लिप्स गया हो 31
कमठ को देखकर कहीं सिंह गरजते थे, मानो वे भी उस परदारगमन करने चाले के विरुद्ध थे। कहों घाणियाँ अपने बिलों में घुस रहीं थीं मानो वे उसका मुखदर्शन ही नहीं करना चाहती थीं। कहीं-कहीं भार समूह रुणझुण -रुणझुण कर रहे थे। वे ऐसे काले थे, मानो काले गुणों (दुर्गुणों) की (ब्याज) स्तुति कर रहे हों 32
प्रभंकरी रानी के आनन्द नाम का अत्यन्त रूपवान् पुत्र हुआ मानो चन्द्रमा में से कलकरहित प्रतिचन्द्र उत्पन्न होकर वहीं महीतल पर अवतरित हो गया हो 33 उत्प्रेक्षा प्रयोग में रइधू का वर्णन कौशल
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उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग में महाकवि रइधू के उपमान बड़े मार्मिक हैं। इससे कवि की मार्मिक कल्पना और वर्णन कौशल का पता लगता है। स्वर्ण रेखा नदी की कवि स्वर्ण रेखा के रूप में सम्भावना करता है जिस प्रकार स्वर्ण रेखा सभी
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सत्ति घाण भडु को पुणु छिष्णउ णाइँ पियजीउ धारेइ नगु भिण्णउ ! 3/8
28 तर्हि आणि पाहु णिवेसियड पु गुण बहु विणउ पर्याासिकः । यिकाहु उवरि चडावियठ बइरिहु मडफड वारिथउ ।
उज्जोएँ दलितमु णं पुण्हु करेठ तं जि कमु 4/11
29 जहिं कप्पतरुवरहं ठक्वणु सु सच्छाउ णं अमरवणु मेरु चइकण तहि आउ। 4:15 30 मुंडाविर ते वि सीसु तासु गं उभ्पाडित विहि केसपासु ।
घायल उत्तमग ते सहहिं केम पुणु तासु अंगि। 6/5
31 तं वणु जोय गयभए सितु । णं कपठहु पावें तं पलित्तु । 6/6 32 पासगाहचरित्र 6/6
33 ताहिं गब्धि अहिमिंदु वि हूव । सो आगंदु णामु सुसरूबउ । चदं णं पचिंदु त्रिजाया गय कलंकु णं महिवाल आयउ ।। 6.17
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