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________________ (4)अमूढ़दृष्टि : कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं की मन, वचन और काय से प्रशंसा नहीं करना। (5) उपगृहन : जैनधर्म के पालन में हुई निन्दा को दूरकर जैनत्व के गौरव को सुरक्षित रखना। (6) स्थितिकरण : सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र से पुरुषों को पुनः धर्म में स्थिर कर देना (7) वात्सल्य : साधर्मी भाइयों के प्रति नि:स्वार्थ धर्मानुराग रखना। (8) प्रभावना : अज्ञान दूरकर जैन धर्म का माहात्म्य प्रकट करना व बढ़ाना। सम्यग्दर्शन की महिमा : सम्यग्दर्शन से दुर्गतिरूप दुःख भग्न हो जाता है।151 सम्यक्त्व से सुन्दर सम्पदादि का भोग करके फिर शिवपद (मोक्ष) प्राप्त करते हैं।152 सम्यक्त्व के बिना जीव अनेक दुःखों के आकर भवसागर में गिरता है, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं। सम्यक्त्व से युक्त नारकी जीव भी मनुष्य होकर शिवपद को प्राप्त करता है और संसार में परिभ्रमण नहीं करता। 53 ऐसा जानकर जो व्यक्ति सम्यक्त्व के साथ परमधर्म को करता है, उसका जन्म सफल है।154 सम्यग्ज्ञान: आचार्य समन्तभद्र के अनुसार -"जो वस्तु के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित और विपरीततारहित जैसा का तैसा सन्देहरहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है।"155 सम्यग्ज्ञान से लोकालोक भासित होते हैं।156 151 रइघू : पास. 3/9 152 वही 5/3 153 वही घना-74 154 वहीं 514 155 अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि: सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ -- रत्नकरण्डश्रावकाचार 2:48 156 रइधू : पास. 3/22
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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