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________________ और मन, वचन एवं काय से चोर के कार्यों का त्याग कर देना 36 सो अचौर्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रत के पालन करने से लोक और परलोक में सुन की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्याणुव्रत : अत्यन्त सुन्दर पर नारी को देखकर अपनी दुर्निवार दृष्टि को रोकना, जोजो भी पर युवतियाँ हों, उन्हें माँ एवं बहिन के समान मानना, अपनी पत्नी में ही रमण करना तथा इतर सन्त्रका पाप जानकर त्याग कर देना38 सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसी व्रत का दूसरा नाम स्वदार सन्तोषव्रत भी है। इसी के विपरीत स्त्रियों के लिए भी स्वपतिसन्तोषव्रत जानना चाहिए। जो व्यक्ति इस लोक में दासी एवं वेश्याओं में आसक्त होता है, उसको नियम से एक भी व्रत नहीं होता।40 परिग्रहपरिमान : __ धन, धान्य, स्वर्ण, गृह, दासी, दास, ताम्बूल, विलेपन एवं उत्तम सुवास इनके प्रति लोभ की भावना का त्यागकर41 इन वस्तुओं का परिमाण कर लेना सो परिग्रह परिमाणु व्रत कहलाता हैं। पंचाणुव्रत धारण करने का फल : ये पंचाणुव्रत दुःखों का क्षय करने वाले हैं।42 अणुव्रतधारियों के अवधि ज्ञान, अणिमा, महिमादि अष्ट ऋद्धियाँ और परम सुन्दर शरीर प्राप्त होते हैं।43 गुणवत: गुणव्रत का स्वरूप और भेद : जो अणुव्रतों की या अष्टमूलगुणों की रक्षा करें, उसे गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन प्रकार के होते हैं : 36 पास, 5:5:4-7 37 वही 5 5/7 ॐ वही 5:5:8-12 39 आ. समन्तभद्रकृत रनकरण्ड श्राजकाचार 3.59 40 रइधू : पा. 5/5:11 41 नही 5:5/13 14 42 वही घत्ता-76 43 आ. समन्तभद्र-रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3:63 MSRestesexesxesonsies 176 SxxsxsxeSXESISXS
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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