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________________ (uretests Xxxesxsi कुशस्थल नरेश की सहायतार्थ युद्ध में जाने के लिए तैयार अपने पिता से विनम्रतापूर्वक निवेदन करते हुए पार्श्व का यह संवाद पिता-पुत्र की भूमिका को कितना न्यायसंगत बनाता है - ताया भणमि महु गिहि होतें, तहु किं गच्छहि पविहिय संतें । कालजमणु रणमुहि उस्सारमि, जयसिरि अणुराएँ करि धारमि || महु सुवेण अच्छे भो णिव समरि गमणु जुज्जह किंव १३ - अर्थात् हे तात् । आप ही कहें कि मुझ जैसे वज्र हृदय वाले पुत्र के घर में रहते हुए भी आप युद्ध में क्यों जा रहे हैं? मैं कालयवन को रणभूमि से उखाड़ फेकूँगा और जयश्री को अनुरागपूर्वक अपने हाथों में ग्रहणं करूँगा । मुझ जैसे पुत्र के रहते हुए हे राजन्! आप का युद्ध में जाना क्या योग्य ( उचित ) है ?84 युवराज पार्श्व के उक्त वचन सुनकर पिता अश्वसेन ने कहा कि " हे पुत्र, तुम्हारी प्रवृत्तियाँ उचित ही हैं। तुम्हारा नाम मात्र ही विघ्नों को नष्ट कर देता है। है आर्य, दूसरों के लिए तुम अभी सरल स्वभाव वाले बालक ही हो। देवेन्द्र के चित्त के लिए आनन्ददायक मात्र हो। तुमने यमराज के समान पापकारी एवं दूषित संग्राम के भयानक रंग को अभी नहीं देखा है। हे पुत्र, इसी कारण से तुम्हें अभी युद्ध में नहीं भेजूँगा । ' 85 पिता के उक्त वचनों को सुनकर पार्श्व ने पुनः उत्तर दिया " हे तात् ! क्या अग्नि की एक चिनगारी समस्त वन को जलाकर भस्म नहीं कर देती? क्या मृगेन्द्र शावक जंगल में मदान्ध गजेन्द्र समूह को पाकर उसे मार नहीं डालता? उसी प्रकार मैं भी जाकर युद्ध में देखता हूँ और यशआशा के लोभी शत्रु को नष्ट कर डालता हूँ। 86 उपर्युक्त संवाद के माध्यम से रइधू ने नायक के चरित्र को वीरोचित गुणों से भर दिया है। साथ ही इस जनभावना व भारतीय रीति की पुष्टि की है कि वीर युवा पुत्र को अपने पिता के प्रत्येक कार्य में अग्रगामी बनना चाहिए। 83 पास 3/4/10--12 84 वही 3/4/10-12 85 वही 3/5 / 2-5 86 पास 3/5/6-10 - *25) 136 Xxxs
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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