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तृतीय परिच्छेद पासणाहचरिउ की भाषा-शैली
महाकवि रइधू ने अपने विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने लिए जिस भाषा-शैली को अपनाया है, वह पण्डितों की अपेक्षा संस्कृत श्रोताओं के लिए है। इनकी शैली सुभग और मनोरम वैदर्भी शैली कह सकते हैं। वर्णन सरल और प्रासादिक हैं। भाषा को अलंकारों के आडम्बर से चित्रविचित्र बनाने का प्रयास कहीं नहीं दिखलाई पड़ता है। वाक्य प्रायः छोटे-छोटे हैं। वाक्य विन्यास में भी आयास नहीं है। संक्षेप में इनकी शैली में स्पष्टता, रस की सम्यक् अभिव्यक्ति, शब्द विन्यास की चारुता तथा कल्पना का अभाव है। अनिश्चित, जटिल और लम्बे वाक्यों का प्रयोग नहीं है। विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही भाव की पुनरुक्ति एवं अनावश्यक शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। अर्थ की स्पष्टता है। पाण्डित्यप्रदशनि की जानबूझकर चेष्टा नहीं की गई है। विचार सुसम्बद्ध हैं। शब्द
और वाक्य नसे तुले हैं। उपदेश या धर्मतत्त्व के निरूपण के समय भाषा सरल, स्वच्छ और प्रभावोत्यादक होती है। उदारणार्थ जीव के एकत्व का वर्णन करते हुए कवि कहता है
एक्कु वि इंदु होइ उपज्जइ। एकु वि रउरव- णरइ णिमजइ । एक्कु वि तिरियजोणि दुहतत्तउ एकु वि मणुउ होइ मयमत्तउ । एक्कु जि णहयरु जलयरु थलयरु एक्कु जि सीहु सरहु वणि अजयरु । एक्छ जि राऊ रंकु सु हदुहघरु बंभणु सुद एक्कु वणिवरु वरु । एक्कु वि कम्मु सुहासुहु मुंजइ एक्कु वि भवि अप्पाणउ रंजइ । एक्कु वि कत्ता भुत्ता उत्तउ एक्कु वि हिंडइ मोहासत्तउ । असहायउ एक्कलठ अप्पउ कोइ ण तहु सहेज्जुहयदप्पउ । 3/17
यह जीव अकेला ही इन्द्र बनकर जन्म लेता है और अकेला ही रौरव नरक में जा पड़ता है। अकेला ही दुःखों से तप्त तिर्यञ्चगति में जन्म लेता है और अकेला ही मदमत्त मनुष्य होता है। अकेला ही वह नभचर, जलचर या थलचर बनता है और अकेला ही बन में सिंह और शरभ होता है। वह अकेला ही सुखी