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________________ सन्धि -5: केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी के स्वामी धरणेन्द्र द्वारा नमस्कृत श्री पार्श्व जिन का समवसरण पृथ्वीमण्डल पर विचरण करने लगा। सर्वप्रथम वे कन्नौज नगरी पहुँचे। वहाँ के वनपाल ने यह समाचार अपने राजा अर्ककीर्ति को सुनाया जिसे सुनते ही अर्ककीर्ति ने शीघ्र ही उस दिशा में सात पग जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके पुनः सिंहासन पर बैठ गया। उसने वनपाल के लिए प्रचुर पुरस्कार दिया और अपने परिजनों सहित श्री पार्थ प्रभु के पास गया और तीन प्रदक्षिणा देकर, प्रणाम कर अपने कोठे में बैंठ गया। फिर उसने भगवान से श्रावक धर्म पूछा। क्षणभर में जिनवाणी निर्गत होने लगी। गणधर ने उसे अपने विमल मन से धारण किया और राजा से कहा कि. है नरेश ! मनोवाजित सुखों को प्रदान करने वाले 'सागार धर्म' का श्रवण करो। मिथ्यात्व भावना का त्यागकर अष्टाङगों से विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारणकर उसका मन में ध्यान करो, जिससे कि लोक ओर परलोक में सुख प्राप्त कर सको। जिन शासन में संवेग एवं निर्वेद. निन्दा तथा आत्मगर्दा उपशम तथा बहुभक्ति, वात्सल्य एवं अनुकम्पा आदि गुणों से सम्यक्त्व होता है। अरहन्त ही देव हैं, अन्य कोई नहीं, वह अठारह दोषों से मुक्त, निष्काम और इन्द्रियरूपी गज-समूह का दलन करने वाले के लिए सिंह के समान हैं। जो परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ साधु हैं उनको प्रणाम करो। धन्य दशलक्षणधर्म का पालन करो। सम्यक्त्व से सुर-नर सम्पदादि का सुखभोग करके फिर शिव पद (मोक्ष) की प्रासि होती है। सभी जीवों कि लिए मैत्री का विधान किया गया है अत: किसी भी जीव की हिंसा मत करो। मध, मद्य और मांस को दूर से ही त्याग देना चाहिए, जिससे दया का भाव बढ़े। पाँच उदुम्बर फलों तथा कन्दमूल के भक्षण का त्याग करो। विवेकशील व्यक्ति को ऐसा वचन बोलना चाहिए जिसमें पाप ( असत्य) की अल्प भी सम्भावना न हो जो व्यक्ति मन, वचन, काय से घोर-कृल्प को छोड़ देता है, वह सुख को प्राप्त करता है। व्रत की रक्षा के लिए अपनी पत्नी में ही राग करें व अन्य सब पर नारियों की ओर से अपनी कुदृष्टि को रोकें। धनधान्य, स्वर्ण, गृह, दासी-दास, ताम्बूल, विलेपन एवं उत्तम सुवास; इनके प्रति लोभ की भावना का त्याग कर प्रमाण कर लेना चाहिए और निज चेतन स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए।
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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