________________
पंचमहब्वयधम्म पडिवजइ भावओ । पुरिमस्स पच्छिमंमी, मग्गे तत्थ सुहावहे || BA
दूसरी शंका यह थी कि पार्श्वनाथ ने अपनी परम्परा के साधुओं को वस्त्र पहनने की अनुमति दी थी, किन्तु महावीर ने इसका निषेध किया था :
अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुसरो । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महामुणी।185 हम अचेलक तथा निर्ग्रन्थ में भेद कर सकते हैं। अचेलक वस्त्रों से रहित को कहते हैं, किन्तु निग्रंथ वह है जो कुछ भी नहीं रखता है। ग्रन्थ शब्द चौदह मार्गणाओं का द्योतक है। इसी के अन्तर्गत वस्त्र धारण करना भी परिगणित नहीं है। निग्रन्थ अचेलक हो, ऐसा आवश्यक नहीं। संवाद के मध्य पुन: नग्नता के विषय में महावीर के शिष्य गौतम का स्पष्ट उत्तर नहीं है। वह कहते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के बाह्य चित इसलिए रखे गये है कि लोग उन्हें विशेष रूप से पहचान सकें। यह विशेषतायें धार्मिक जीवन की उपयोगिता तथा उनके विशिष्ट चरित्रों पर निर्भर हैं -
पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविह विगप्पणं । जत्तत्धं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं 186
पुनः यह निश्चित किया गया कि बाह्य चिह्न मुक्ति के मार्ग न होकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मुक्ति के मार्ग हैं -
अह भवे पन्ना उ मोक्खसब्भूयसाहणे । नाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए 187
इस प्रकार केशी और गौतम का यह संवाद भ, पार्श्वनाथ की धार्मिक शिक्षाओं पर प्रकाश डालता है। जैनधर्म के मौलिक रूप को समझने में यह अधिक महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त भ. पार्श्वनाथ के इन धर्मों का अध्ययन जैन सम्प्रदाय के प्रारम्भिक चित्र को संक्षिप्त रूप में समझने में सहायक है।
184 उत्तराध्यायन सूत्र 23:87 185 वही 23/29 186 वही 23.32 187 वही 2333