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दुन्दुभि74 : जिनाभिषेक के समय देवों द्वारा दुन्दुभि बाजों का बजना जैन साहित्य में प्रसिद्ध है। दुन्दुभि की ध्वनि मधुर और उच्च होती थी। यह एक मुँह वाला चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य है और डण्डे से पीट पीटकर इसका वादन किया जाता है। मङ्गल और विजय के अवसर पर इस वाद्य का विशेष प्रयोग होता था दुन्दुभि को मधुर और कटु दोनों ही प्रकार के वाद्यों में ग्रहण किया जाता है। 75 ____ कसाल76 : घनवाद्यों में कंसाल या कास्यताल का सर्वप्रथम उल्लेख किया जाता है। इनका जोड़ा होता है। ये छह अगुल व्यास के गोल काँसे के बने हुए बीच में से दो अगुल गहरे होते हैं। मध्य में छेद होता है, जिसमें एक डोरी द्वारा वे जुड़े रहते हैं और दोनों हाथों से पकड़कर बजाए जाते हैं। इसकी ध्वनि बहुत देर तक गूंजती हैं।
तूर78 : तूयं या तूर प्राचीन का है। इरको गगन, सुषित पाटों में हैं। समान में इसे तुरही कहते हैं। तुरही के अनेक रूप हैं। यह दो हाथ से लेकर चार हाथ तक की होती है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने कहा है कि तुर्य की अपेक्षा तर कुछ कठोर वान है, यद्यपि दोनों एकार्थक प्रतीत होते हैं।79 'पासणाहचरिउ' के अनुसार पार्श्वनाथ के वनगमन के पूर्व लाखों तूर बज उठे थे,80 इससे स्पर है कि यह एक मृदङ्ग वाद्य है। क्रीडायें: ___ 'पासणाहचरिंउ' में गेंद, गम्मत,81 हिन्दोला,82 द्यूतक्रीड़ा तथा शिकार का वर्णन है। द्यूतक्रीडा तथा शिकार की यहाँ निन्दा की गई है। तृतीय सन्धि में कहा गया है कि धन एवं सुख इन्द्रधनुष के समान अस्थिर हैं। वे जुए के धन के
74 पासणाहचरिउ 2/12,4/1 75 डॉ. नेमिचन्द शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत पृ. 318 76 पासागाहचरिउ 2/12 77 संगीतराज 3:314:6 16 78 पासणाहचरिंउ 4/1 79 आदिपुराण में प्रतिपादित भारत,पू. 320 80 पास. 41 81 झिंव-गेंदो-पमुहाई लील, वही 2/15 82 वहीं 2:15