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________________ बिना काय , काल/निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है और वह धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान समस्त लोकाकाश में स्थित है। __कालद्रव्य भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण से युक्त है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि से रहित होने के कारण अमूर्तिक है। प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्य के समान वह लोकाकाश व्यापी एक द्रव्य नहीं है क्योंकि प्रत्येक लोकाकाश प्रदेश पर समय भेद से अनेक द्रव्य स्वीकार किये बिना कार्य नहीं चल सकता है। कालद्रव्य के कारण ही वस्तु में पर्याय परिवर्तन होता है। पार्धा के कालकृत सूक्ष्मतम परिर्वतन होने में अथवा पुद्गल के एक परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना काल या समय लगता है, वह व्यवहार काल का एक समय है। ऐसे असंख्यात समयों की आवलि, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, 381/2 लवों की नाली, दो नालियों का एक मुहूर्त और तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूगि, पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि संख्यातकाल के भेद हैं। इसके पश्चात् असंख्यात काल प्रारम्भ होता है, इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट; ये तीन भेद हैं। अनन्तकाल के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद किये गये हैं। अनन्त का उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तानन्त है।327 जीव : "चेतनालक्षणो जीव: 328 इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीव का लक्षण चेतना है। उपयोग भी जीव का लक्षण है,329 वह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार का है|330 327 द्र. तीर्थंकर महावीर और उनकी और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड-1,पृ. 361 328 पूज्यापादः सर्वार्थसिद्धि 1/4 की संस्कृत टीका। 329 वहीं 2/8 330 वहीं 219 HSxSishusteresmasasxes 226LSIOSXesxesxesexsi
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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