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________________ भाषा को अपभ्रंश कहते हैं, शायद इससे आप समझने लगे होंगे कि तब तो यह हिन्दी से जरूर अलग होगी लेकिन नाम पर न जाए, इसका दूसरा नाम' 'देसी'' भाषा भी है। अपभ्रंश इसे इसलिए कहते हैं कि इसमें संस्कृत शब्दों के रूप भ्रष्ट नहीं, अपभ्रष्ट-बहुत ही भ्रष्ट हैं, इसलिए संस्कृत पण्डितों को ये जाति-- भ्रष्ट शब्द बुरे लगते होंगे लेकिन शब्दों का रूप बदलते- बदलते नया रूप लेना, अपभ्रष्ट होना- दूषण नहीं भूषण है, इससे शब्दों के उच्चारण में ही नहीं, अर्थ में भी अधिा कोला , अधिक लता आती है। "माता" संस्कृत शब्द है, उसके मातु, माई, मावो तक पहुंच जाना अधिक मधुर बनने के लिए हैं। खेद है, यहाँ भी कितने ही नीम हकीमों ने शुद्ध संस्कृत माता को ही नहीं लिया बल्कि उसमें जी लगाकर ''माता जी" बना उसके ऐतिहासिक माधुर्य को ही नष्ट कर डाला। अस्तु यह निश्चित है कि अपभ्रंश होना दूषण नहीं भूषण था। महाकवि रइधू की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है। कवि की रचनाओं में राजस्थानी, ब्रजभाषा, बुन्देली एवम् बघेली के भी अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनके द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' की परिनिष्ठित अपभ्रंश का व्याकरण सम्बन्धी विश्लेषण इस प्रकार है: पासणाहचरिठ में भाषा सम्बन्धी विशेषतायें स्वर सम्बन्धी विशेषतायें : अ, आ इ ई, ठ, ऊ, ए, ओ आदि स्वर सामान्यतया प्राप्त होते हैं। ऐ के स्थान पर अइ का प्रयोग मिलता हैऐरावत = अइरावा. 2/6 वैर घर 3/1 वैक्रियक = वईकिरड 5/16 कैरव = कइरन 1/5 स्वरों में प्रायः ऋ का लोप हो गया है। अधिकांशत: इसके स्थान पर अ, रि, इ. ई, अरु रूप विकसित हो गए हैं : ऋ = अ - पृथिवी = पहुई 1/4 .. धर्मामृत = धम्मामय 1/1 .. रि - ऋषीसु . रिसीसु 1/2 - ऋषीश : . रिसीस 1/2 + इ . श्रृंगार - सिंगार బ్రకద్రుడు 82 టు టు లడ్డు
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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