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________________ xxcsxsxsxess प्राणी इन्द्रियों के द्वारा ही विषय सेवन करता है, जिसका कि फल दुःख रूप है। अतः इन्द्रियों को भी भुजारा कहना सार्थक है। जिस प्रकार समुद्र को पार करना कठिन हैं, उसी प्रकार जन्म की परम्परा का पार करना भी कठिन है। अत: जन्म को समुद्र कहा है। जिस प्रकार वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष, यह परम्परा सतत चलती रहती हैं, उसी प्रकार संसार भी वृक्ष है, जिसका फल कर्मबन्धन है। जिस प्रकार कोई महावन में प्रवेश कर अनेक कठिनाईयों का साना करता है, उसी प्रकार संसार भी सुहावना है जिसमें अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ता है। जिस प्रकार लक्ष्मी की प्राप्ति लोक में सुखद मानी जाती है, उसी प्रकार तपधारण भी सुखद है अतः तप को लक्ष्मी कहा गया है। अनुप्रास प्रयोग स्वर की विषमता होने पर जो शब्द साम्य होता है उसे अनुप्रास करते हैं। 57 अपभ्रंश भाषा की यह विशेषता है कि बिना किसी आवास के अनुप्रास का सृजन ही जाता है। इसी के अनुरूप 'पासणाहचरिउ' में पद पद पर अनुप्राम दर्शन होते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं : के जो अरवाल-कुल- कमल भाणु मिच्छत्त-वसण--वासण विरत्तु जिणसत्थणिगंथ पायभत्तु । उद्धरिउ उव्विहसंघभारु, आयरिउ वि सावयचरिउ - चारु । दुहियणदुहणासणु बुहकुलसासणु जिणसासणु रदधुरधरणु । जिण समयामय-रस- तित्त-चित्तु सिरिहोलिवम्मु णामे पवित्तु । अण्णाहं दिणि आयमसत्थ दत्थु सम्मत्तरयणलंकियसमत्थु । गउ जिणहरि खेउँ साहु · साहु | रइधू पंडिय पडियविवेउ । ता जिण अच्चण- पसरिय-भुवेण । जंपिउ हरसिंघ संघवी सुवेण इँ सुइत्तणिपुणु बद्ध गाहू पणविवि अणुराए पासवाहु 1/7 57 अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । xxxx2525 107 1/5 1/6 XXXX35)
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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