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________________ उपतिक्ख150, सीह181, श्रावक हैं, जबकि सच्चा, तोला अववादिका तथा पट चारा162 इत्यादि पार्श्वनाथ की परम्परा की श्राविकायें हैं। बाद में ये निगण्ट नातपुत्त163 के अनुयायी हो गए। शाक्यों का राजनैतिक रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व था। कपिलवस्तु बुद्ध की जन्म भूमि थी, किन्तु शाक्य उनके सिद्धान्तों के अधिक पक्ष में नहीं थे। दूसरी ओर गहाँ जैन शाई काकी सेकसि शा, कमोकि बुद्ध के माता-पिता और उनके आदमी पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे किन्तु बुद्ध और उनके अनुयायियों ने प्रयास किया कि लोग अपना धर्मपरिवर्तन कर लें। महानाम, जो कि सम्भवत: बुद्ध का सम्बन्धी निगण्ठनातपुत्त के धर्म का अनुयायी था, से बुद्ध ने कृच्छ साधना की व्यर्थता का वर्णन करते हुए उसके धर्मपरिवर्तन का प्रयास किया। यथार्थ में वे ऐसा करने में सफल भी हो गए। चूलदुक्खक्खंध सुत्त तथा सेख सुत्त का महानाम के मध्य प्रचार किया गया। जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि विजय द्वारा आयीकरण किए जाने के पूर्व लङ्का में यक्ष और राक्षस रहते थे। वे मानव थे, उनकी अति विकसित सम्यता थी और वे जैन थे।164 विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि लङ्का की किष्किन्धानगरी के त्रिकुटगिरि पर, एक भव्य जैन मन्दिर था, इसे रावण ने अलौकिक शक्ति प्राप्त करने हेतु बनवाया था। रावण ने अपनी पट्टरानी मन्दोदरी की इच्छा के अनुसार जवाहरातों की एक जैन मूर्ति बनवाई थी। ऐसा कहा जाता है कि रामचंद्र से रावण के हारने पर यह समुद्र में फेंक दी गई। कन्नड प्रदेश के कल्याणनगर के राजा शंकर को यह बात मालूम हुई। उसने जैनों की प्रमुख देवी पद्मावती की सहायता से इस मूर्ति को निकाला।165 ऐसा कहा जाता है कि पार्श्वनाथ की वह मूर्ति, जिसको आज भी श्रीपुर अन्तरिक्ष में पूजा होती है, को माली और सुमाली विद्याधर लङ्का से लाए 160 महानग्ग 162 सेयुतनिकाय - 1 162 जातक - 3 163 मझिम निकाय .. 1 164 हरिवंश पुराण, पझचरित आदि। 165 विविधतीथं कल्प पृ. १३ xxesxesasrussiestastes 29PMSTAsusxesexeSTATEST
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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