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________________ सप्तम परिच्छेद धर्म और दर्शन धर्म का लक्षण : ___ जो धारण करे सो धर्म है। "धरतीति धर्मः" यह उसका निरुक्त्य र्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि-"चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जो धर्म है वह साम्य है, साम्य मोह, क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है। श्री समन्तभद्रस्वामी ने धर्म की परिभाषा को सर्वाङ्गीण बनाते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है। महाकवि रइधू ने दस अंगों एवं रत्नत्रय से युक्त धर्म को श्रेष्ठ मानते हुए बारह विध तप का धारण एवं तेरहविध चारित्र का आचरण ही धर्म है;4 ऐसा कहा है। धर्म प्राप्ति हेतु चार कषायों का निग्रह आवश्यक है। अतः क्षमा भाव से क्रोध का दमन किया जाता है, मार्दवभाव से मानकषाय को जीता जाता है, आर्जवभाव से माया का निवारण किया जाता है एवं सन्तोष से लोभ को विदीर्ण किया जाता है। दयाप्रवर धर्म ही सारभूत है, जो उसे धारण कर मन को स्थिर नहीं करता, वह स्वयं अपने को ठगता है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने धर्म शब्द की व्युत्पत्ति-"ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा धर्मः अथवा इष्टे स्थाने धो इति धर्मः" इस प्रकार की है। जिससे सिद्ध होता है कि जो आत्मा को इष्ट स्थान-मुक्ति में धारण कराता है अथवा जिसके द्वारा लोक के श्रेष्ठ स्थान में धारण किया जाता है अथवा जो लोक को श्रेष्ठ स्थान में धारण करता है, वह धर्म है। 1 "धाराणार्थो धृतो धर्म शब्दो वान्त्रिपरिस्थित;" -पद्मचरित, रविषेण, 14/103 2 पारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिों । मोहवरखोह विहोणो परिणामो अपणो हु सभो ॥ प्रवचनसार: आ. कुन्दकुद, गाथा-7 3 सदृष्टिज्ञान वृत्तानि, धर्ष धर्मेश्वर। विदुः । - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३ 4 पासणाहचरि3/23 5 वही 3/21:3-4 6 वही 3:22 द्रष्टव्य-तीर्थकर महावीर और आचार्य परम्परा, खण्ड-1 पृ. 487 PAShasyxsesexesxesexes 171 kestasxemesesxestores
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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