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सहस्त्र भुजाओं से उन भगवान की पूजा कर रहा हो। धूपवत्ती से निकलने वाला धूम आकाश में ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानो वह जीव लोक के लिए मोक्ष का मार्ग दिखा रहा हो, उसने प्रचुर गन्ध से युक्त धूप खेई, वह ऐसी शोभायमान हुई जैसे मानो भयातुर दोलर लिन भगवान गावराशि काम रही हो। करा नक्ष की शाखा में पके हुए, नेत्रों एवं चित्त को प्रमुदित करने वाले,इष्टकर एवं सुस्वादु नारियल आदि सैकड़ों फल भगवान की पादपीठ के समीप चढ़ा दिए. जो भव्यजनों के लिए श्रेष्ठ एवं नित्य सुख प्रदान करते थे। जल, गन्ध, पुष्प, अक्षत. भक्ष्य (नैवेद्य), दीप, धूप तथा फल: इन आठ द्रव्यों से युक्त पुग्गाजनित :: अन्य व्यञ्जन भी, जो लाखों दुःखों को नष्ट करने वाले थे, भगवान के ! में चढ़ाये गये,160 इस प्रकार से जिन भगवान की चारों गलियों का नाश करने वाली पूजा की|161 पाषाण प्रतिमा की पूज्यता :
पासण्याहवरिउ में एक प्रमंग आया है कि राजा आनन्द ने एक मुनिराजको "पाषाण-प्रतिमा के अर्चन एवं हवन से क्या पुण्य होता है. इस निय ... जिसके उत्तर में मुनिराज ने कहा-"जो मणियों एवं धातु से घटित जि-21 प्रतिमा का निर्माण कराता है, पृथिबी तल पर उसके पुण्य का वर्णन मानकर सकता है? गुणवान् इन्द्र भी उसे नमन करता है। जो निभानपूर्वमः जिनप्रतिबिम्ब की अष्ट प्रकार से अर्चना करता है, जो मेरु शिरवर पर समस्त इन्द्रों के द्वारा पूजा जाता है, जो केवल ज्ञान आदि गुणों से सगृद्ध है और पूर्ण विशुद्ध है; ऐसे जिनवर को जो भावपूर्वक मन में मानता है, वह व्यक्ति शाश्वत सुख को पा लेता है और जो पाषाण प्रतिमा मानकर उसकी निन्दा करता है और उसे भग्न करता है, वह मरकर नरक में जाता है, बहुत दुखों को भोगता है और वह पापी वैतरणी में डूबता है।
हे राजन् ! यद्यपि जिन-प्रतिमा अचेतन है तथापि उसे वेदन शुन्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रूप से परिणाम ही पुण्य पाप का कारण्य होता है। जिस प्रकार वनभित्ति पर कन्दुक पटकने कर उसके सम्मुख यह फट जाती है, उसी प्रकार दुःख-सुख कारक निन्दा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रभाव से यद्यपि प्रतिमा भग्न नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं, उनमें से
160 पास. 2/13 161 बही, घत्ता 23
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