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________________ सकता है। सभी पात्रों ने परिपूर्ण है और कहीं-कहीं त्रम जावों ।। आच्छादित है! बहुत पाय व अधोगति को प्राप्त होते हैं और वहाँ विभिन्न प्रकार दरख पाते हैं। प्रधान तथा परस्त्रीहरण में आसक्त रहकर, सप्त अमन एवं मंदिर में मस्त होकर वे नरकगति का भोग करके पुनः नरकगति में फर पपकर्मों के फलस्वरूप तियञ्चगति प्रास करते हैं, कभी मनुष्य हो : गं अनेक ऋद्धियों से युक्त होकर राज्य करते हैं।134 इस र ; मा प्रदेश सा नहीं हैं जहाँ चिरकाल तक इस जीव ने जोवन. E!!| प्रा न किया ह),135 इस प्रकार मन में लोक के स्वरूप का चिन्तन करना लं. कानप्रेक्षा है। बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा : समस्त गतियों में मनुष्यता ही दुर्लभ है और उसमें भी अत्यन्त दुर्लभ है उत्तम कुल ही प्राप्तिी दीर्घायुमा एक इन्द्रियों को पाला प्रार होने पर भी कभी निरोगशा की प्राति नहीं होती। यदि जीव यौवन, लक्ष्मी एवं कान्ति प्रास कर भी ले, तो धर्म अच्छा नहीं लगता। यदि उस धर्म को किसी प्रकार कष्ट से प्राप्त कर भी ले तब परमार्थ से गुरुवचनों को नहीं सुनता। यदि वह भी सुन ले नो कुगतिबाला 'बह जोव उसे धारण नहीं करता। वह दिनरात कुशास्त्रों में रत रहता है और हाय में प्राप्त हुए मनुष्य जन्म रूपी माणिक्य को पाकर भी खो देता है। यदि यह सब किसी प्रकार पा भी ले तो रत्नत्रय की भावना मन में नहीं 'भाता। यदि बड़ी अतिदुर्लभ रत्नत्रय मुझे किसी प्रकार प्राप्त हो गया है तो अब मैं उसमें किसी प्रकार आमाधान नहीं होगा। इस प्रकार ज्ञान की दुर्लभता के बारे । चिरान करना बोधिलथानप्रेक्षा है। धर्मस्वाख्यातानुप्रेक्षा : , धन और स्वजन सभी शरदकालीन मेघ के समान क्षगभंगुर हैं।137 जिनेन्द्रदेव ने जो अहिंसाधर्म कहा है, सत्य उसका आधार एवं क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य में क्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, 114 गस. 3/24 १२: पट्टी, प्रता--49. 136 बी 3/25 13 बहीं, पत्ता. 50 ResesxesIRSTAssesses194dSResesesexsesies,
SR No.090348
Book TitleParshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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