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किया। भगवान पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थङ्कर थे। भ. पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सामान्यतः प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार की है, न केवल जैन साहित्य अपितु बौद्ध साहित्य से भी इसकी पुष्टि होती हैं। भ. पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता के विवेचन से पूर्व हम संक्षिप्त में उनका जीवन वृत्त लिखना आवश्यक समझते हैं, वह इस प्रकार है --
भगवान महावीर के 350 वर्ष पूर्व वाराणसी के राजा अश्वसेन और माता वामादेवी के पुत्र के रूप में काज हुआ। सि वर्ष की आयु तक वे राजकुमारावस्था में अपने पिता के पास रहे, फिर संसार से उदासीन होकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। अनन्तर कठोर तपश्चर्या के बाद केवलज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशामृत से जनसामान्य को लाभान्वित करते रहे । तप और उपदेश की अवधि सत्तर वर्ष सभी पुराण व ग्रन्थकार स्वीकार करते हैं। सौ वर्ष की आयु पूरी होने पर 777 ईसवी पूर्व में उन्हें निर्वाणपद प्राप्त हुआ। जिस स्थान से उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई, वह सम्मेद शिखर था। सम्मेद शिखर पश्चिम बिहार में अवस्थित है। इस पहाड़ी को अब भी पार्श्वनाथ पर्वत ( पहाड़ी) कहते हैं। पार्श्वनाथ के जीवन में हम देखते हैं कि बुराई के ऊपर अच्छाई निरन्तर प्रतिष्ठापित होती रही। पार्श्वनाथ के साथ कमठ के जीव का पूर्व जन्मों में निरन्तर संघर्ष हुआ, नौवें भाव में वे पार्श्वनाथ हुए। प्रथम भव में मरुभूति और कमठ दो भाई थे। कमठ बड़ा भाई था, जो कि अपने छोटे भाई मरुभूति के प्रति इंष्यां और घृणा से भरा हुआ था। मरुभूति अन्त में तार्थंकर हुआ। दुराचार के फलस्वरूप कमठ को उसके पैतृक घर से निकाल दिया गया। सम्मानहीन तथा अपमानित कमठ ने तप करना प्रारम्भ किया। इस तप का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति न होकर देवल की प्राप्ति करना था ताकि वह अपने भाई से बदला ले सके। उसने सूर्य के प्रखर प्रकाश में खड़े होकर तपस्या करना प्रारम्भ किया, अपने ऊपर वह एक बड़ा पत्थर लिये रहता था । मरुभूति क्षमा याचना के उद्देश्य से नमस्कार करने हेतु जैसे ही कमठ के चरणों में झुका, कमल ने आक्रोश और बदले की भावना से उसके ऊपर पत्थर पटक दिया, जिससे मरुभूति की मृत्यु हो गई। बदले की यह कहानी आगे प्रत्येक जीवन में कमठ की ओर से घटित होती रही तथा इसकी इतिश्री पार्श्वनाथ की क्षमा भावना के साथ हुई। प्रारम्भ में मरुभूति बज्रघोष नामक हाथी हुआ, उसका भाई कमल अजगर हुआ। बज्रघोष हाथी ने पवित्र रुख
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