Book Title: Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, Munichandrasuri
Publisher: Sha Bhailal Ambalal Petladwala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ कालकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितः श्रीवीतरागस्तवः कीर्ति कला श्री कीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचित कीर्तिकला व्याख्याविभूषितः । वि० सं० २०१५ । संम्पादक: मुनि मुनिचन्द्रविजयः । 2010_0Bor Private & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीविजयनेमि-विज्ञान-कस्तूर-सूरिसद्गुरुभ्यो नमः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितः श्रीवीतरागस्तवः श्रीतपोगच्छाधिपतिशासनसम्राट्कदम्बगिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धार-- कबालब्रह्मचार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरपट्टालङ्कारसमयज्ञशान्तमू ाचार्यवर्यश्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरपट्टधरसिद्धान्तमहोदधिप्राकृतविद्वि-- शारदाचार्यवर्यश्रीकस्तूरसूरीश्वरशिष्यश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचित कीर्तिकला व्याख्याविभूषितः सर्वेऽधिकाराः स्वाधीनाः । सम्पादक:मुनि मुनिचन्द्रविजयः । वि० सं० २०१५ । 2010_ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: भाईलाल अम्बालाल पेटलादवाला — प्राप्तिस्थान: शा. जनकलाल कान्तिलाल ठे. लिम्बडी शेरी, मु० पेटलाद वाया - आणन्द (गुजरात ) -- मुद्रक:के. सीताराम आल्व साधना - मुद्रणालय गान्धीनगर, बेंगलोर - ९ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RO30003 8603390038890888 84000000000000000000 20363660000000000000385 83851005566588688003003800000 MAR 10000000000000000000000000038833300000000000 000000000000000000000000000000000000000000035 9 9908050 30000000000000000000000000000000 1806600000000000 6000000000000000000000000000000000 S 88888058000 230300 आचार्य श्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज साहेब ARISRO 0000000 SON 000000000 2010_Bor Private & Personal Use Only &0000000000000000000025802010050000000000000300339000-38018635085520099830888%35086665835302030250000000000000000000 28550050002850 30050000000000086660000308380805000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 8888888885834665009086000000000000000000000000000000000000000000000038800388980 30020403455230030038086880030000000069606580000000000000 &0000000000058989902880030033 0 003 80 H 800028560000000 000000000000 1566000000000000000002050566528005800908050000 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 3805 8-0 000000 1992805580280385555 30 3338 3350608885600 9 301 30003003028808 प. पू. आचार्य श्रीविजय कस्तूरसूरिशिष्यरत्न श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणि HEATRE 80 35809002065280 833633 33 2010_Bor Private & Personal Use Only 2535000 3022880030038 25000 0000000 06 00000003603 000000000 304 30000 AA R 0580000800205696580000000000 0 000000 000533 30003800 800300382200 1 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kille yska bilo ( 919926) 6P 14 golesente It . 2010_ SS ON COROLLA SON NA SW Haleluy dlake ( 224) KÊ LEES EQUIRERERAR LLE Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मुनिराज श्री कीर्तिचन्द्रविजयजीगणिना संसारी मातुश्री) पेटलाद निवासी 20 A - समरतबेन 2010_03r Private & Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रस्तुत पुस्तक " श्री वीतरागस्तोत्र - " मेरे प. पू. गुरुदेव श्रीकीर्तिचन्द्रविजयजीगणिविरचित कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या सहित के सम्पादनका कार्यभार प. पू. गुरुदेव श्रीने मुझको सौंपा, और मुझे उसका स्वीकार करते हुए बडी प्रसन्नता भी हुई । W - यह बात अविदित नहीं है कि आज कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यरचित स्तोत्रोंका जैन समाजमें स्वाध्याय के लिये प्रमुखस्थान है । प्रायः प्रत्येक साधु तथा साध्वी अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्रीवीतरागस्तोत्र, श्रीवीतरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलाई स्तोत्र - इन स्तोत्रोंका नियमपूर्वक स्वाध्याय करते हैं । उक्त स्तोत्रोंके स्वाध्याय के प्रति आकर्षणका मुख्य कारण, इन स्तोत्रोंके भावका उत्कर्ष - प्रसादगुण-स्याद्वाद के सिद्धान्त तथा परमत के साथ मतभेदकी परीक्षाका सरलसाहित्यिकशैलीसे प्रतिपादन आदि माना जाय तो अयुक्त नहीं कहा जा सकता । यद्यपि ये स्तोत्रग्रन्थ संस्कृत, हिन्दी तथा गुजराती भाषा में अनेक टीका टिप्पणियों के साथ प्रकाशित हैं । इन स्तोत्रों के सार्थ अध्ययन करनेवाले यथासम्भव तथा यथाशक्ति उन टीका टिप्पणियों का उपयोग भी करते हैं । तदनुसार मैंने भी उक्त रीति से इन स्तोत्रोंका सार्थ अध्ययन किया है । तथा जैसे जैसे मेरा इन स्तोत्रोंका अध्ययन 2010_dor Private & Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे बढ़ता गया, वैसे ही वैसे मेरी यह धारणा दृढ़तर होती गयी कि इन स्तोत्रोंकी व्याख्याका व्यवस्थित तथा विशुद्धदृष्टिसे नवीन प्रयास जितना स्वागतार्ह है, उतनाहीं आवश्यक तथा अनिवार्य भी है। जिसके परिणामरूपमें मैंने अपने प. पू. गुरुदेवसे इसके लिये प्रार्थना की थी। तथा गुरुदेव श्रीने सहर्ष तथा सोत्साह मेरे विचार का समर्थन तथा अनुमोदन ही किये, तथा इस कार्य में तत्परता से प्रवृत्त भी होगये। जिसके फलस्वरूप प्रथम अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाका कीर्तिकला नामकी संस्कृतव्याख्या तथा संस्कृतानभिज्ञ जनताको दृष्टिमें रखकर कीर्तिकलानामक हिन्दीभाषानुवादके साथ द्वात्रिंशिकाद्वयीके नामसे प्रकाशन हो चुका है । तथा सम्प्रति श्रीवीतरागस्तोत्र भी कीर्तिकलानामक संस्कृतव्याख्यासहित प्रकाशित हुआ है । तथा अचिर भविष्यमें ही श्रीवीतरागस्तोत्र हिन्दीभाषानुवाद सहित, वीतरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलार्हस्तोत्र भी कीर्तिकलानामक संस्कृतव्याख्या सहित तथा हिन्दीभाषानुवाद सहित प्रकाशित होंगे ऐसी आशा है । इस नवीन प्रयासमें क्या नवीनता है ? यह प्रश्न वाचकोंका स्वाभाविक ही है। किन्तु इस विषयमें मैं कुछ कहूं, इससे अच्छा यह है कि वाचक स्वयं अन्य संस्कृत व्याख्या, हिन्दी तथा गुजराती अनुवादोंको भी साथमें लेकर इन स्तोत्रोंका कीर्तिकला टीका सहित तुलनात्मक तथा समालोचनात्मक अध्ययन करें । इस 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार वाचकोंके ज्ञानकी वृद्धि के साथ साथ उक्त प्रश्नका उत्तर तथा मेरे नवीन प्रयासके विचारका कारण भी हस्तगत हो जायगा ऐसा मेरा विश्वास है । कहा भी है-'हाथ . कंगनको आरसी क्या ?' । अस्तु । अपने विचारको इस प्रकार मूर्तस्वरूप प्राप्त होते देखकर मुझे कृतकृत्यताका अनुभव होना सकारण ही नहीं उचित भी है। इस पुस्तक के सम्पादन कार्यमें मुनि श्रीसूर्योदयविजयजी महाराजने प्रूफ संशोधन आदिमें तत्परतापूर्वक जो सहायता की है, इस कारणसे यहां मेरे लिये उनका स्मरण करनेके साथ साथ आभार मानना भी उचित ही है । - मुझे आशा तथा विश्वास है कि वाचक वर्ग इस पुस्तकका उपयोग कर लाभान्वित होंगे । वाचकवर्गहितेच्छु:मुनि मुनिचन्द्रविजय । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशकीय कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराज विरचित जिनस्तोत्रोंके विषय में जैन जनताका असाधारण आकर्षण है, यहू एक निर्विवाद सत्य है । ऐसी स्थितिमें उन स्तोत्रोंका विविध सामग्री सहित प्रकाशन प्रकाशकके लिये एक गौरवका विषय हो गया है । इस लिये उन स्तोत्रोंका अनेक प्रकारसे प्रकाशन होता हीं रहता है । मैं समझता हूं कि पूर्वजन्म के पुण्यप्रभावसे हीं प. पू. श्रीकीर्तिचन्द्रविजयजी गणि महाराज कृत - ' ' कीर्तिकला ' संस्कृत व्याख्या तथा हिन्दी भाषानुवाद सहित द्वात्रिंशिकाद्वयी तथा कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या सहित श्रीवीतरागस्तवके प्रकाशनका सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है । जिसमें द्वात्रिंशिकाद्वयी पुस्तक अचिर पूर्वमें ही प्रकाशित हुई है । तथा प्रकाशित होनेके बाद अल्पकाल में ही वाचकों द्वारा उसका सोत्साह स्वागत किया गया है । इसका समर्थन इसीसे होता है कि कीर्तिकला सहित द्वात्रिंशिकायको देखकर उसकी मनोज्ञता से प्रभावित होकर बेंगलोर के चामराजेन्द्र संस्कृत कालेज के माननीय प्रिंसिपाल महोदयने तत्काल हीं अपने कालेज के पाठ्यक्रम में कीर्तिकला टीकाका नाम निर्देश पूर्वक द्वात्रिंशिका द्वयीका समावेश कर दिया है। उक्त प्रकाशनकी इस प्रकारकी सफलतासे कृतकृत्यताका अनुभव करना मेरे लिये स्वाभाविक है, इस विषय में वाचकोंको मतभेद नहीं होगा ऐसा मेरा विश्वास है । 2010_dor Private & Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इसलिये कीर्तिकला सहित द्वात्रिंशिकाद्वयीके प्रकाशनके वाद शीघ्र ही कीर्तिकला सहित श्रीवीतरागस्तवके प्रकाशनका सुयोग पाकर मैं अवर्णनीय आनन्दका अनुभव कर रहा हूँ। । सम्प्रति श्रीवीतरागस्तव, कीर्तिकलासंस्कृतव्याख्या सहितका ही प्रकाशन सम्भव हो सका है। बहुत शीघ्र ही कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवाद सहित श्रीवीतरागस्तवका पृथक् प्रकाशन सम्भव होगा ऐसी आशा है। तथा कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या तथा हिन्दी भाषानुवाद सहित अन्य स्तोत्रोंके प्रकाशनका भी प्रयत्न हो रहा है । . प्रस्तुत पुस्तकका प्रकाशन रूप पुण्यकार्य जिन महानुभावोंकी उदार सहायतासे सम्पन्न हो सका है, यहां उनका कुछ परिचय देना मेरे लिये उचित है। उन महानुभावोंमें एक श्रीरवि भाई हैं। जिनके पिताका नाम लवजीभाई गोरधनभाई तथा माताका नाम जडाव बेन है । लवजीभाई एक पुण्यात्मा जीव थे। उनके जीवनमें अनेक शुभ कार्य हुए थे। जिनमें गान्धीनगरके मन्दिरका कार्य विशेष उल्लेखनीय है। उक्त मन्दिरके निर्माण कार्यमें तथा उसके सम्पूर्ण होनेमें आपका आत्मभोग प्रशंसनीय था। तथा अंजनशलाकाप्रतिष्ठाके अवसर पर जो कटोकटी उपस्थित हुई थी, उसका निराकरण आपके बुद्धिबलसे ही सम्भव हो सका था। दृढतापूर्वक ऐसा कहा जाता है कि-आप जैसे कार्यदक्ष व्यक्तिके अभावमें उक्त कार्यके सुचारु रूपसे सम्पन्न होनेमें सन्देह था । अन्तमें आप देवाराधन करते हुए समाधिपूर्वक इस नश्वर शरीरको त्याग कर स्वर्गस्थ हुए। उनके पश्चात् श्रीरवि भाई ‘आत्मा वै जायते 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रः' इस उक्तिको चरितार्थ कर रहे है । अपनी छोटी उमरमें ही सम्पूर्ण कार्यभारको सम्भाल कर अपनी दक्षताका परिचय दे रहे हैं। इस पुस्तकके प्रकाशनमें उदार सहायता देनेवाले दूसरे महानुभाव हैं-पोपटलालभाईके सुपुत्र श्रीचुनीभाई तथा बाबूभाई । जो चोपडावालाके उपनाम से प्रसिद्ध हैं। आप लोगोंने प. पू. उक्त गणिवर्य महाराजके चातुर्मास कालमें अनेक शुभ कार्यों में भाग लिया है। आप लोगोंका शुभ कार्यों में उत्साहका इसीसे पता चल जाता है कि पर्युषणापर्वके अवसर पर आपकी घीकी बोली ने बेंगलोरकी आजतककी धीकी बोलीकी इयत्ता को तोड दिया था । तथा वसनजी साँकलचंद महेताकी उदारता तथा सज्जनता का तो यहां सविशेष उल्लेख करना मैं अपना कर्तव्य समभता हूँ । जिनकी सहायता इस पुस्तकके प्रकाशनमें सहजभावसे ही प्राप्त हुई है। मैं इन तीनों महानुभावोंका हृदयपूर्वक कृतज्ञ हूँ । अन्तमें मेरी यह आशा है कि वाचक वर्ग अधिकसे अधिक इस पुस्तकका भी कीर्तिकला सहित द्वात्रिंशिकाद्वयीके जैसा ही उपयोग कर मुझको कृतार्थ करेंगे तथा श्रीवीतरागकी कृपासे स्वयंभी कृतार्थ होंगे इति । भवदीयशा. भाईलाल अम्बालाल, पेटलादवाला । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहेम् ॥ श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरिसद्गुरुभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितः श्रीवीतरागस्तवः । कीर्तिकलान्याख्याविभूषितः । प्रथमः प्रकाशः । ध्यात्वा जिनान् गुरून् नत्वा कीर्तिचन्द्रोऽहमादरात् । वीतरागस्तवव्याख्यां कुर्वे कीर्तिकलाऽभिधाम् ॥१॥ . अथेह दुःखत्रयत्रासाच्छरीरिणामेकान्ततोऽत्यन्ततश्च त्राणमवश्यमेवैषणीयम् । तच्च नर्ते मुक्तेरिति सा चतुर्थपुरुषार्थरूपा प्रार्थनीया समर्थैरुपायैः । तदुपायभूते च ज्ञानचारित्रे शास्त्रे प्रतिपादिते तज्ज्ञैः । तत्र भक्तिमृत इतरः प्रकारोऽप्रखरमतीनां सुकुमारतनूनामतिप्रयस्याऽपि दुःसाध्य इति सा विशेषत इह दु:षमारे सार्वजनीना विजयते । तस्याश्च श्रद्धा-ध्यान-शरणप्रपत्ति-भजनीयस्वामित्वभावना- स्पृहा-कृतार्थत्वभावना-स्वीयकैङ्कर्यभावना-स्तुतयो मुख्यान्यङ्गानि । लोके च रुचिवैचिच्याद्विविधैः प्रकारै नैंकविधा भजनीया इति सरलमतीनां विप्रतिपत्तिः 'को नाम श्रद्धादिपात्रम् ?' । अतदहें एहणाविधिरफला प्रयासमात्रफलैवेति 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे प्रथमः प्रकाशः me तादृशविप्रतिपत्तिव्यपोहमनसा भव्यान् विनिनीषु भक्तिप्रबहृदयतया भङ्गया श्रद्धेयादिविवेकपूर्वकं स्वं कृतार्थ करिष्यन् कलिकालसर्वज्ञः श्रीहेमचन्द्राचार्यों वीतरागस्तवमुपक्रमते यः परात्मा परंज्योतिः परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्ण तमसः परस्तादामनन्ति यम् ॥१॥ य इति--यः = स्तुतिविषयो वीतरागः, परात्मा = परः परमः, अन्यविलक्षणसहजाऽतिशयादिमत्वात्सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः । स तादृश आत्मा स्वरूपं यस्य, स तादृशः । अत एव, परमेष्ठिनाम् परमे परमभावे तिष्ठन्तीति तेऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधवः, तेषाम् । परमः = पराऽलौकिकीतरविलक्षणा च मा लक्ष्मीः क्षायिकादिसमृद्धि यस्य स, तादृशः, श्रेष्ठश्च । लोकयोगक्षेमविधायित्वादिना तस्यैव परमत्वव्यवहारादिति भावः । अत एव तेषु तस्य प्राथम्येन कीर्तनम् । उक्तञ्च-" रागादिभिरनाक्रान्तो योगक्षेमविधायकः । नित्यं प्रसत्तिपात्रं यस्तं देवं मुनयो विदुः” ॥१॥ इति । तथा, परंज्योतिः परं सर्वतः प्रसारि ज्योतिरिव प्रकाशकत्वाज्ज्योतिर्यस्य सः, सर्वोकृष्टप्रकाशात्मक इत्यर्थः । केवलज्ञानाद्यात्मकज्योतिष्मानिति यावत् । सूर्यादिज्योति हि लोककतिपयप्रदेशप्रकाशकं वर्तमानस्यैव च वस्तुनो बहि:स्वरूपमात्रप्रकाशकं च । इदं तु केवलाख्यं ज्योति लोंकालोकप्रकाशक त्रिकालवर्त्तिनश्च वस्तुनोऽन्तर्बहिश्च प्रकाशकम् । अतः परं च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याल्याविभूषितः नाऽपरं प्रकाशकमिति- तत्परमेव भवति । अथ च-परं वस्तुयाथाल्योपदर्शकतया प्रमाणम् , ज्योति दृष्टिरिव स्याद्वादाख्यदर्शनं प्रतिपाद्यतया यस्य स तादृशः । “ज्योति भेद्योतदृष्टिष्वि" त्यमरः । उक्तञ्च-" चक्षुष्मन्तस्त एवेह ये श्रुतज्ञानचक्षुषा । सम्यक् सदैव पश्यन्ति भावान् हेयेतरान्नराः" ॥२॥ इति । परमिति मान्तमव्ययम् । यद्वा परज्योतिरित्येव परात्मेत्यानुगुण्यात्पाठः । अत एव, तमसः वस्तुस्वरूपाऽऽलोकाऽन्तरायरूपल्वात्तमोऽज्ञानम् , पक्षेऽन्धकारश्च । तदपेक्ष्य, ततो वा, परस्तात् = अतीतम् , दूरवर्तिनमित्यर्थः । सर्वथैवाज्ञानस्याऽन्धकारस्य च विनाशकताया इति भावः । यम्बीतरागम् । आदित्यवर्णम् आदित्यः सूर्यः, स इव वर्ण्यते इति स, तादृशः, तम् । आमनन्ति=पुनः पुनः प्रतिपादयन्ति । तज्ज्ञा इति शेषः । यथाऽऽदित्यस्तमोनाशनस्तथाऽयमपीति शब्दसाम्यादुपमा । अत्र सार्धश्लोकत्रयं यावदुक्तानां यत्पदानामग्रेतनतत्पदेन सम्बन्धः । अनुष्टुप्छन्दः । अत्र च यत्पदवृत्तस्य 'य' इत्यादेस्तत्पदवृत्तेन 'स' इत्यादिनाऽपि यथाक्रममन्वयः पुरस्ताप्रतिपादयिष्यते ॥१॥ परात्मत्वादिधर्माऽविनाभाविगुणान् वर्णयन्नाहसर्वे येनोदमूल्यन्त समूलाः क्लेशपादपाः । मूनी यस्मै नमस्यन्ति सुरासुरनरेश्वराः ॥२॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपीतरगस्तवे प्रथमः प्रकाशः - - सर्वे इति-येन = परात्मत्वादिगुणविशिष्टेन वीतरागेण, समूला:-मूलसहिताः, यथा न पुनरुत्पत्तिः स्यात्तथेत्यर्थः । मूलसत्त्वे पुनः प्ररोहसम्भवादिति भावः । सर्वे निःशेषाः, न तु कतिपये एव, तेषामपरात्मनाऽप्युन्मूलनसम्भवादिति भावः । क्लेशपादपा:-क्लेशा रागादयः पादपा नानाशाखत्वाच्छाखाविच्छेदेऽप्यनाशाच्च वृक्षा इव, ते । उदमूल्यन्त = उदपाट्यन्त, नाशिता इत्यर्थ । नहि समूलक्लेशपादपोन्मूलनं परात्मत्वादिगुणं विना सम्भवतीति भावः । यतश्चोक्तसकलगुणविशिष्टः, अतः, यस्मै उक्तगुणविशिष्टाय, सुरासुरनरेश्वराः-सुराश्चासुराश्च नराश्च तथा तेषामेवेश्वराः पतयश्च, ते सुरादयः सर्वे । भूना भक्त्यतिशयप्रवीभूतत्वाच्छिरसा, नतूपचारनिर्वाहाथ हस्तसंयोजनमात्रेण । नमस्यन्ति-प्रणमन्ति, पूजयन्ति च । नातादृशः सुरादिभिर्नमस्य इति भावः ॥२॥ यद्यपि सुरादिकृतो नमस्कारो गुणानुरागादेव, तथापि क्लेशोन्मूलनस्य, न महतो भक्तिर्मोघेति च-फलमाह प्रावर्तन्त यतो विद्याः पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भाविभूतभावाऽवभासकृत् ॥३॥ प्रेति-यतः उक्तगुणविशिष्टाद्वीतरागात् , पुरुषार्थप्रसाधिकाः पुरुषार्थानां धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रसाधिकाः मार्गदर्शकतया सम्पादिकाः, विद्याः-शिल्पादिमोक्षान्तशास्त्राणि, प्रावर्तन्त-प्रकाशिता 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः अभूवन्, उदभूवन् वा । आदितीर्थनाथस्य सर्वविद्याप्रवर्तक-त्वस्य प्रसिद्धत्वादन्येषामप्यर्हतां मोक्षोपदेशकत्वस्य गीतत्वाच्चेति भावः । एवं च तन्नमस्करणात्तादृशविद्यालाभोऽयत्नसिद्धमानुषङ्गिकं प्रयोजनमित्याकूतम् । तादृशविद्याप्रवृत्तिहेतुभूतं विशेषणमाह-यस्य = उक्तगुणविशिष्टस्य, ज्ञानम् - केवलज्ञानम्, तत्राऽन्यस्यासन्त्वादिति भावः । भवद्भाविभूतभावाऽवभासकृत् - भवन्तो वर्त्तमानाश्च भावि नश्च भूता अतीतश्च ये भावा: पदार्थास्तेषामवभासं विषयीकरणद्वारेण परिच्छेदं प्रकाशं वा करोतीति तादृशम् । अस्तीति शेषः । त्रैकालिकपदार्थपरिच्छेदकमित्यर्थः । यश्च सर्वभाववित्तत एव सर्वविद्याप्रवृत्तिरनुगुणेति भावः । परंज्योतिरित्यनेन तादृशज्ञानवत्वेन अत्र तु तज्ज्ञानगुणकीर्त्तनेन स्तव इति न पुनरुक्तिः ॥३॥ तदेवं व्यवहारनयेन गुणगुणिनो र्भेदमाश्रित्य स्तुत्वा सङ्ग्रहनयेन तयोरभेदमाश्रित्य स्तुवन्नाह - यस्मिन् विज्ञानमानन्दं ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः प्रपद्ये शरणं च तम् ॥४॥ यस्मिन्निति-यस्मिन्=यत्प्रकारे वीतरागे, विज्ञानम् - अनन्ततया विशिष्टं ज्ञानम्, आनन्दम् - अखण्डशाश्वतसुखम् ब्रह्म = सर्वज्ञत्वाद्वयापकात्मा, चः समुच्चये । एकात्मताम् = तादात्म्यम्, गतम् = प्राप्तम्, परिणामपरिणामिनो: सङ्ग्रहनये कथञ्चिदभेदस्वीकारादिति 2010_dor Private & Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरगस्तवे प्रथमः प्रकाशः भावः । किञ्च " नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्मे" ति यदुच्यतेऽन्यैः, सोऽयमेवेति ध्वनिः । यतश्च तादृशः अतः, सः स्यादिसप्तविभक्त्येकवचनान्तयच्छब्देनोद्दिष्टः, एवमग्रेऽपि तच्छब्देन बोध्यम् । श्रद्धेयः सादरविश्वासं रुचिविषयीकरणीयः, स च स एव; ध्येयः-चिन्तनीयः, ध्यानविषयीकरणीय इति यावत् । अतादृशस्याऽपकृष्टतयाऽतदर्हत्वादिति भावः । तथा, तं च-तमेव, शरणम्-रक्षकम् , 'शरणं गृहरक्षित्रो । रित्यमरः । प्रपद्ये-स्वीकरोमि, आश्रयामि वा । समर्थो हि शरणम् , उक्तप्रकारगुणविशिष्टश्च न कदाप्यसमर्थः । एवञ्चाऽतादृशो न शरणम् , स्वयमसमर्थस्य परसाधनासमर्थत्वादिति भावः । अत्र च 'यः परात्मा परंज्योतिः परमः परमेष्ठिनां, स श्रद्धेयः स च ध्येयः, आदित्यवर्ण तमसः परस्तादामनन्ति यं तं शरणं प्रपद्ये' इत्येवमुद्देश्यप्रतिनिर्देश्ययोः क्रमेणाऽप्यन्वयः । ततश्च यः परात्मत्वादिगुणविशिष्टः स एव श्रद्धेयो ध्येयश्च । अपरात्मादिस्तु किञ्चित्तारतम्यसत्त्वेऽपि न श्रद्धाध्यानास्पदम् । अपकृष्टस्य ध्यानादिनोत्कृष्टफललाभाऽयोगात् । तथा न स्वयं तमोग्रस्तः शरणम् , नहि स्वोद्धाराऽसमर्थः परोद्धारणक्षम इति तमोऽतीतमेव शरणं प्रपद्ये, स्वस्याऽपि तमोऽतीतत्वलाभायेति विच्छित्तिविशेषोऽवगम्यते ॥४॥ । अत एव च - तेन स्यां नाथवांस्तस्मै स्पृहयेयं समाहितः । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः .. ततः कृतार्थो भूयासं भवेयं तस्य किङ्करः ॥५॥ तेनेति - तेन-उक्तगुणगणगुरुणा वीतरागेण, नाथवान्= नाथो योगक्षेमकृत् , योगक्षेमकृन्नाथ' इतिवचनात् । सोऽस्त्यस्येति, तादृशः, स्याम् भवामि, स एव मम स्वामीति यावत् । सर्वोऽपि ह्यलौकिकगुणमेव स्वामिनमिच्छति, तत एवेष्टसिद्धेः सम्भावितत्वात् । नातः परश्वापरो विशिष्टगुण इति तेनैव नाथवान् स्यामिति भावः । तथा 'येन क्लेशपादपा उदमूल्यन्त, तेन नाथवान् स्यामि' त्येवमन्वयः । यो हि स्वयं क्लिष्टः, स स्वस्यैव नाथं कमपीच्छति, स किमन्यस्य नाथो भवतु, तं वा को नाथं मन्यताम् ? । स्वयमक्लेशश्च परानप्यक्लेशान् कत्तुं सम्भाव्यते इति तेन नाथवान् स्यामिति सहेतुकोक्तिश्चमत्कारविशेषलाभाय । अत एव च तस्मै तादृशाय वीतरागाय, समाहितः तदेकाग्रमनाः सन् , स्पृहयेयम्-उत्कटामिलापवान् स्याम् , अन्यत्र स्पृहा त्वपकृष्टविषयतयाऽपकृष्टेति सा नेष्टोत्तमानामिति मावः । तथा 'यस्मै सुरासुरनरेश्वरा नमस्यन्ति. तस्मै स्पृहयेयमि' त्येवमन्वयः । यस्मै सर्वे नमस्करणादिना स्पृहावन्तस्तस्मा एवाऽहमपि तथेत्यर्थः । स्पृहाविषयत्वेन तस्य सिद्धत्वात् । स्वतन्त्रतया कस्मा अपि स्पृहणेऽनिष्टस्याऽपि सम्भवादिति लोकानुसरणमेव वरमितिभावः । तथा, तत: वीतरागादेव, कृतार्थः सिद्धप्रयोज नः, भूयासम् भवानि, अतादृशास्तु स्वयमकृतार्था इति कुतस्ततः स्वस्थ 2010_03r Private & Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तबे प्रथमः प्रकाशः कृतार्थत्वसम्भवानाऽपीति भावः । तथा-, प्रावर्तन्त यतो विद्याःपुरुषार्थप्रसाधिका स्ततः कृतार्थो भूयासमि' त्येवमपि सम्बन्धः । स्वस्य मुक्त्याद्यर्थितया मुक्त्यादिमार्गप्रदर्शकादेव कृतार्थत्वलाभसम्भवादिति साभिप्रायमुक्तिरिति बोव्यम् । अनेन भङ्गया स्पृहाफलमर्पि प्रतिपादितम् । तथा-तस्य-तादृशस्यैव, किङ्करः-सेवकः, भवेयम् । यतः कृतार्थता, तस्यैव दास्यमुचितमिति भावः । तथा-' यस्य ज्ञानं भवद्भाविभूतभावाऽवभासकृत् , तस्य किङ्करो भवेयमि' त्यन्वयः । प्रसन्नो हि स एव सर्वज्ञतया किङ्कराभीष्टं साधितुं समर्थः । अतादृशस्तदभिप्रायाज्ञः स्वयं चाऽसिद्ध इति तस्य कैङ्कयं तन्मात्रम् , नतु स्वेष्टसिद्धिरपीति भावः ॥५॥ कायमनोयोगविषयत्वमभिधाय वाग्योगविषयत्वमाहतत्र स्तोत्रेण कुर्या च पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे जन्मिनां जन्मनः फलम् ॥६॥ ___ तत्रेति-तत्र-तस्मिन् वीतराग एव, स्तोत्रेण तद्गुणकीर्तनेन कृत्वा, स्वाम्=निजाम् , सरस्वतीम् वाणीम् , “गीवीग्वाणी सरस्वती' त्यमरः । पवित्राम् शुचिशरीराम् , कुर्याम्=विदधामि । पवित्रार्थप्रतिपादनेनैव वाचः पवित्रता, पवित्रश्च नाऽतादृश इति भावः । तदेतत्सर्व श्रद्धादि किमर्थमित्यपेक्षायामाह-हि-यतः, इदम् उक्तगुणविशिष्टस्य वीतरागस्य श्रद्धाधारभ्य स्तुत्यन्तम् , जन्मिनाम् = प्राणिनाम् , 'प्राणी तु चेतनो जन्मी ' त्यमरः । भवकान्तारे 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलायाख्याविभूषितः भवो दुःखबहुलतया दुर्गमतया च कान्तारं वनमिव, तस्मिन् , जन्मनः जन्मग्रहणस्य , फलम् प्रयोजनम् । अन्यथा तु तदफलमेव स्यात् , यतः ‘काकोऽपि जीवति चिरं च बलिं च भुङ्क्ते । एवं च मुक्त्याद्यभीष्टसाधकतया तदेव कारणे कार्योपचारात्फलमिति भावः ॥६॥ अप्रमत्ततया स्वस्याऽल्पज्ञतां सम्भाव्य तादृशभुवनाद्भुतगुमाऽतिशयादिविशिष्टस्य वीतरागस्य स्तुतावशक्तिमाह - क्वाऽहं पशोरपि पशु वीतरागस्तवः क्व च । उत्तितीपुररण्यानी पद्भ्यां पङ्गुरिवाऽस्म्यतः ॥७॥ क्वेति-अहम्=अल्पज्ञानादिमत्तयाऽल्पसामर्थ्यो जनः, पशोः= पशुमपेक्ष्याऽपि, अपिनाऽन्याऽपेक्षया तु कथैव केति सूच्यते । पशुः जडतमतया पशुरिव । नितरामज्ञ इति यावत् । क्व कुत्र, चा पुनरर्थे, वीतरागस्तवः क्व ?, द्वयोर्महदन्तरमित्यर्थः । सरागस्तु समानगुणतया कथञ्चित्स्तोतुं शक्यतेऽपि, अयं तु वीतराग इति भावाभाववत्सरागवीतरागयोरसाध्यमन्तरमिति भावः । असामर्थ्य प्रयोजकवैकल्यसामन्यात्स्वं पुनरुपमिन्वन्नाह-अतः तादृशान्तरसद्भावाद्धेतोः, अरण्यानीम् महदरण्यम् , पद्याम् , उत्तितीर्घः पारं जिगमिषुः, पङ्गुः पादविकल इवाऽस्मि । येन साध्यं साधनीयम्', तस्यैव विकलतेति स्वस्य नितरामसामर्थ्यवर्णनेनाऽऽर्जवातिशयः सूचितः ॥७॥ 2010_030r Private & Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे प्रथमः प्रकाशः । ननु तर्हि तत्र न प्रवर्तितव्यमेव प्रेक्षावतेति चेन्न । प्रीत्यैव प्रवृत्तिः, तथा सति तत्र स्खलितं च न दोषायेत्याह-- - तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं नोपालभ्यः स्खलन्नपि । । विशृङ्खलापि वाग्वृत्तिः श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥ ___ तथेति-तथाऽपि स्वासामर्थ्यसद्भावेऽपि, अहम् , श्रद्धामुग्धः श्रद्धया वीतरागे प्रीत्यतिशयेन मुग्धः साध्यासाध्यविवेकविकलः, अतः प्रवत्ते इति शेषः । प्रीत्या ह्यसाध्येऽपि प्रवर्तन्त इति भावः । ननु तर्हि तत्र स्खलितं सम्भाव्यत इति चेत्तत्राह-स्खलन्-अशक्ततया यथोचितमसम्पादयन्नपि, न, उपालभ्यः वचनीयः, तत्समर्थनायाह-श्रद्दधानस्य श्रद्धाशीलस्य, विश खला अशक्ततया यथोचितगुम्फनरहिताऽपि, अपिना सुशृङ्खलि. तस्य तु कथैव केति सूच्यते । वाग्वृत्तिः वचनरचना, स्तुतिक्रियेतियावत् । शोभते प्रशस्यते । श्रद्धाप्रयुक्तमतादृशमपि वचो न दोषाय, वाचः प्रशस्यत्वे निन्द्यत्वे वा प्रयोक्तु र्भावस्य प्रयोजकत्वादिति भावः ॥८॥ नहि तादृशस्य स्तुति निष्फलेति स्वाभीष्टमाशासदाहश्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः ।। कुमारपालभूपालः प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचद्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे प्र. थमः प्रकाशः ॥१॥ 2010_ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः - - श्रीति-श्रीहेमचन्द्रप्रभवात्-श्रीहेमचन्द्रकीर्तितात् , . इतः= प्रस्तुतात् , वीतरागस्तवात् कुमारपालभूपालः, उपलक्षणादन्योऽपि, ईप्सितम्=इच्छाविषयं सम्यक्त्वादिरूपम् , फलमाप्नोतु । ईप्सितफलप्रातिरस्मात्स्तवादिति स्तुतिमाहात्म्यमपि भङ्गयोक्तम् ॥९॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां प्रथमः प्रकाशः ॥१॥ द्वितीयः प्रकाशः परात्मेत्यादिवर्णितमतिशयवर्णनेन समर्थयन् सहजातिशयान्. विवर्णयिषु वर्णाऽतिशयमाहप्रियङ्गुस्फटिकस्वर्णपद्मरागाऽञ्जनप्रभः । प्रभो! तवाऽधौतशुचिः कायः कमिव नाऽऽक्षिपेत् ॥१॥ प्रियेति-प्रभो !, तव, प्रियङ्गुस्फटिकस्वर्णपद्मरागाऽञ्जनप्रभा प्रियङ्गु लताविशेषो नीलवर्णः, “ प्रियङ्गुः फलिनी फली " त्यमरः । स च स्फटिकं च, स्वर्ण च पद्मरागो रक्तमणिविशेषश्चाऽञ्जनं कजलं च, तेषां प्रभेव प्रभा यस्य, स तादृशः, प्रियङ्ग्वादिवर्ण इत्यर्थः । तव, कायः शरीरम् । चतुर्विशते जिनानामेवाऽत्र वीतरागेतिसामान्यशब्देन स्तोतुमभिलषितत्वात्तेषु चोक्तपञ्चवर्णता, नत्वेकस्यैवोक्तपञ्चवर्णतेत्यवगन्तव्यम् । यदुक्तम्-" रक्तो च पद्मप्रभवासुपूज्यौ शुक्लौ च चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ । कृष्णौ पुननेमिमुनी, विनीलो श्रीमल्लिपाधी कनकत्विषोऽन्ये" (अभि: चि. 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरगस्तवे द्वितीयः प्रकाशः | १ | ४९ | ) इति । यतः, अधौतशुचिः - मज्जनाद्यभावादक्षालितोऽपि विशुद्धः, सहजनिर्मल इत्यर्थः । अतः, कमिव नाऽऽक्षिपेत् ? अपि तु सर्वमप्यन्यदीयं कायमाक्षिपेदधः कुर्यादेवेत्यर्थः । सर्वस्यैव ह्यन्यस्य कायस्य धौतशुचित्वात्तादृश सहजगुणाऽभावादपकष्टत्वात् । अपकृष्टश्चोत्कृष्टेन पराभूयत एवेति भावः ॥ १॥ गन्धाऽतिशयमाह १२ मन्दारदामवन्नित्यमवासितसुगन्धिनि । तवाङ्गे भृङ्गतां यान्ति नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥२॥ मन्दारेति -- मन्दारदामवत् मन्दारः कल्पवृक्षः, तस्य दाम पुष्पमाल्यम्, तद्वत् । नित्यम् = सर्वदैव, मन्दारमाला यथा सर्वदा सुरभिस्तथेत्यर्थः । अवासितसुगन्धिनि-वासितं सुगन्धिद्रव्येण संश्लेषणम्, तद्विनैव सुगन्धिनि सौरभ्यवति । अत एव नित्यं तथा, वासितं हि कृत्रिमतया कालवशादपेत्यैवेति बोध्यम् । तादृशे, तवाङ्गे, सुरयोषिताम् - सुरस्त्रीणाम्, नेत्राणि भृङ्गतां यान्ति । सुगन्धिनि मन्दारदाम्नीव सौरभ्याकृष्टा भृङ्गा इव तवाऽङ्गे तादृशे तासां नेत्राणि पतन्तीति तानि भृङ्गतां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । यद्वा तवाङ्गे तादृशे मन्दारदामवन्नित्यं भृङ्गतां यान्तीत्यन्वयः । यथा मन्दारदामन सौरभ्याकृष्टा भृङ्गा इव सुरयोषितां नेत्राणि पतन्ति भृङ्गतां यान्ति, तथाऽवासित सुगन्धिति 1 2010_dor Private & Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. कीर्तिकलाव्याख्याविभूषिता - तवाङ्गे नित्यं तासां तानि तथेत्यर्थः । अत्र सुगन्धिनीतिविशेषणाननुगुणो नेत्रेषु भृङ्गताऽऽरोपः । नहि नेत्रपाते सुगन्धित्वस्य कोऽप्युपयोगः, किन्तु रूपस्यैवेति चिन्तनीयं सहृदयैः ॥२॥ अथ निरामयाऽतिशयमाह- . दिव्याऽमृतरसास्वादपोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ ! नाऽङ्गे रोगोरगव्रजाः ॥३॥ ... दिव्येति–नाथ ! ते, अङ्गे शरीरे, " इन्द्रियायतनमक ........बेरसंहननदेहसञ्चराः" (अभि. चि. १३५६३३) इति । रोगोरगवजाः रोगाः प्रसिद्धाः शारीरा मानसाश्च, ते वेदनातिशयजनकतया नाशकतया चोरगाः सर्प इव, तेषां व्रजाः समूहाः । दिव्यामृतरसास्वादपोषप्रतिहता: दिव्योऽशष्ठे शक्रसमितोऽमृतरसः, न तु लौकिकस्तथाख्यातो दुम्वादिः, तस्य बाल्ये य आस्वादः पानम् , तेन तजनितेन पोषेण रोगनिवारकशक्तिसंवर्धनेन कृत्वा प्रतिहताः कुण्ठितप्रभावा निषिद्धप्रसरा वा कृताः, इव, वस्तुतस्तु शरीरस्य तथा स्वाभावादेव, न समाविशन्ति-नाऽऽकामन्ति, आक्रमणाऽवसरं न लभन्ते । अमृतम्सेमोरगविषाऽप्रसर उचित एव । किञ्चाऽन्यथाऽपि पुष्टे शरीरे न रोगाऽवसरः, अमृतरसास्वादपुष्टे तु कथैव केति भावः । यद्यप्यत्र स्वाभाविकाऽतिशये सहेतुकत्वोत्प्रेक्षणं तस्य कृत्रिमताऽऽ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरगस्तवे द्वीतीयः प्रकाशः - - पादनमिव, तथाऽपि बाल्येऽर्हतः शक्रसङ्क्रमिताङ्गुष्ठसुधापानरूपमितरवैलक्षण्यमपि भङ्गया प्रदर्शयितुं तथोत्प्रेक्षितमिति सन्तोष्टव्यम् ॥३॥ . स्वेदराहित्याऽतिशयमाहत्वय्यादर्शतलालीनप्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्वकथाऽपि वपुषः कुतः १ ॥४॥ त्वयीति--त्वयि, आदर्शतलालीनप्रतिमाप्रतिरूपके-आदर्शो दर्पणः, तस्य तलेऽन्तरालीना स्थिता प्रतिमा छायैव प्रतिरूपकम् शीतधर्मादिप्रसराभावसमान्यात्प्रतिनिधि र्यस्य, तादृशे सति, वपुषः= शरीरस्य, अर्थात्तवेत्यर्थः । क्षरत्स्वेदविलीनत्वकथा क्षरद्भिस्तापश्रमादिभिः कृत्वा स्रवद्भिः स्वेदैर्धर्मजलै विलीनत्वस्य व्याप्ततायाः कथा वार्ता, अपिना तद्विलीनता तु दूरे इति सूच्यते । कुतः = न कुतोऽपि निमित्तादित्यर्थः । यत्र यत्प्रतिनिधौ यस्यैकान्ततोऽ. त्यन्ततश्चाभावः, तत्र तु मुख्ये तद्वात्ताऽप्यसम्भविनी । किश्च दर्पणस्थप्रतिबिम्बे प्रतिबिम्बमानशरीरस्थस्वेदच्छायाया अपि प्रतिबिम्बितत्वास्कथञ्चित्स्वेदसम्बन्धों वर्णयितुं शक्यतेऽपि, त्वयि तु तेन प्रकारेणाऽपि तन्न सम्भवतीति त्वच्छरीरप्रतिनिधित्व प्रतिबिम्बे, न तु. स्वच्छरीरं तदनुकरोतीति गूढार्थः । छायावत्त्वच्छरीरं बहिरुपाविकृतविकाराऽनास्पदमिति यावत् । तदेवं सहजः प्रथमोऽतिशयों वर्णितः ॥४॥ . सहज द्वितीयमतिशयं वर्णयन् रुधिराऽतिशयमाह 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः न केवलं रागमुक्तं वीतराग ! मनस्तव । वपुःस्थितं रक्तमपि क्षीरधारासहोदरम् ॥५॥ नेति—वीतराग !; तव, मनः, केवलम् एकमात्रम् , तव वीतरागत्वादेव हेतोः, रागमुक्तम् रागो विषयेष्वादरः, पक्षे रजनद्रव्यं च, उपलक्षणत्वाल्लौहित्यम् , तेन मुक्तं रहितम् , न, किन्तु, वपुःस्थितम् शरीरान्तर्गतम् । रक्तम्-रुधिरम् , अपिना मनसः समुच्चयः । रागमुक्तमिति सम्बध्यते । रक्तशब्दः स्वप्रवृत्तिनिमित्तं रक्तत्वमपि त्वदतिशयमहिम्ना त्यजतीति भावः । अत एव, क्षीरधारासहोदरम्-क्षीरस्य धारा सन्ततिस्तत्सहोदरम् तुल्यम् , क्षीरपूरधवलमित्यर्थः । वीतरागशरीरस्थरक्तं धवलमेव भवतीत्येवमुक्तिरिति बोध्यम् ॥१॥ मांसाऽतिशयमाहजगद्विलक्षणं किं वा तवाऽन्यद्वक्तुमीश्महे ? । यदवित्रमबीभत्सं शुभ्रं मांसमपि प्रभो! ॥६॥ जगदिति-प्रभो !, वा अथवा, अन्यत्-त्वद्गुणान्तरम् , किम् कथम् , वक्तुम् वर्णयितुम् , ईश्महे प्रभवामः ?, यद्वा किं वक्तुमीश्महे इति प्रश्नः, काक्वा नैवेत्यर्थः । बहुवचनेन मादृशा बहवोऽप्यन्येऽसमर्था एवेति सूच्यते । तत्र हेतुमाह-यद्-यतः, तव, मांसमपि, अपिमासस्य लोके निकृष्टत्वमव्यभिचारेण विस्रा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीवीतसगस्तवे द्वितीयः प्रकाशः 6 दित्वं च सूचयति । अवित्रम् - अनामगन्धि, “ विस्रं स्यादामगन्धि यदि ” त्यमरः । तथा, अबीभत्सम् - जुगुप्साया अविषयः, शुभ्रम् - शुक्लम् अतएव, जगद्विलक्षणम् = जगद्भयः सर्वप्राणिमांसेभ्यो विलक्षणम्' विभिन्नोत्तमगुणम् । सर्वेषां हि मांसं विखं बीभत्सं रक्तवर्ण च भवति, तव तु तदपि न तथा प्रत्युतोत्तमगुणमेव । यत्र च निकृष्टस्य जगद्विलक्षणता, तत्राऽन्यस्य किमु वक्तव्यमिति सुष्ठुच्यते " किंवक्तुमीश्महे ? " इति । तदेवं द्वितीय सहजोऽतिशयो वर्णितः ॥६॥ · तृतीयं सहजातिशयमाह -- जलस्थलसमुद्भूताः सन्त्यज्य सुमनः स्रजः । तव निःश्वाससौरभ्यमनुयान्ति मधुव्रताः ॥ ७ ॥ जलेति-जलस्थलसमुद्भूताः = जलेषु स्थलेषु च समुद्भूता सुमनः स्रजः = पुष्पाणि तन्माल्यानि च यद्यपि माल्यं न जलस्थल समुद्भूतम्, तथापि कार्यकार्ये कार्यत्वोपचारात्तथोक्तिरिति ध्येयम् । सन्त्यज्य, मधुव्रताः=भ्रमराः, तव, निःश्वाससौरभ्यम् = निःश्वासामोदम्, अनुयान्ति = अनुसरन्ति, सर्वपुष्पाधिकं तव निःश्वाससौरम्यमिति व्यतिरेकः ॥ ७ ॥ ¿ चतुर्थ सहजातिशयं वर्णयन्नाह - लोकोत्तरचमत्कारकरी व भवस्थितिः । यतो नाऽऽहारनीहारौ गोचरचर्मचक्षुषाम् ॥ ८ ॥ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः इति श्री वीतरागस्तोत्रे द्वितीयः प्रकाशः ॥ २ ॥ लोकोत्तरेति–तव, भवस्थिति:- जन्मसम्बन्धिमर्यादा, भवसम्बन्धिव्यवहारो वा, लोकोत्तरचमत्कारकरी= लोकोत्तरोऽलौकिको यश्चमत्कारो विस्मयजनकोऽतिशयस्तं करोतीत्येवंशीला, अलौकिकचमत्कारजनिकेत्यर्थः । तत्र हेतुमाह – यतः, आहारनिहारौ - भोजनोत्सर्गक्रिये, चर्मचक्षुषाम्=चर्माणि तदात्मकानि चक्षूंषि येषां तादृ-शानाम्, दिव्यदृष्टिशून्यानामिति यावत् । न गोचरः - विषयः, न प्रत्यक्षमित्यर्थः । अत्राऽऽहारनीहारौ न गोचर इति विभिनवचनता ' वेदाः प्रमाणमि तिवत्समाधेया । सर्वस्य ह्याहारादि गोचर:, तव तु नेति तवाऽलौकिक चमत्कारकरी भवस्थितिर्भवत्ये " वेति भावः ॥ ८ ॥ " १७ इति श्री वीतरागस्तवे श्रीकीर्तिचन्द्रविजगणिविरचितायां कीर्ति - कलाख्यायां व्याख्यायां द्वितीयः प्रकाशः ॥ २ ॥ तृतीयः प्रकाशः अथाऽर्हतः क्षायिकानतिशयान् वर्णयितुमुपक्रान्त आदौ तीर्थकृन्नामकर्मैव फलकथनभङ्गया वर्णयन्नाह - सर्वाऽभिमुख्यतो नाथ ! तीर्थकुन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्वमानन्दयसि यत्प्रजाः सर्वेति-नाथ !, तीर्थकृन्नामकर्मजात्= तीर्थङ्करनामकर्मविपा 11 2 11 2010_dor Private & Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे तृतीयः प्रकाशः करूपात् , सर्वाभिमुख्यतः मुखमभिलक्ष्याऽभिमुखम् , तस्य भाव आभिमुख्यम् , सर्वस्य लोकालोकस्य यदाभिमुख्यम् , पुरः स्थितवद् दृष्टता ज्ञातता च, केवलज्ञानदर्शनाभ्यामिति भावः। तत्सत्त्वाद्धेतोः । सम्मुखीन: अभिमुखस्थः, अर्थात्प्रजानामिति लभ्यते । यस्य हि योऽभिमुखम् , स तस्याऽप्यभिमुखमेवेति सर्वस्तव सम्मुखीन इति त्वमपि सर्वस्य सम्मुखीन इति स्पष्टं तात्पर्यम् । प्रजाः प्राणिनः, सर्वथा सर्वप्रकारेण, अहिंसाद्युपदेशद्वारेति भावः । आनन्दयसि यत् । स तव योगसाम्राज्यमहिमेत्यप्रेतनेनाऽन्वयः । तीर्थकृन्ना मकर्मोपार्जनं योगादेवेति परम्परया योगसाम्राज्यस्यैवैष महिमेत भावः ॥१॥ अल्पप्रदेशेऽपि बहूनां समावेशातिशयमाहयद् योजनप्रमाणेऽपि धर्मदेशनसमनि । सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यग्नदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥ यदिति-सपरिच्छदाः= सपरिवाराः, अतएव, कोटिशः : कोटिसङ्ख्याकाः, तिर्यजृदेवाः तिर्यश्चश्च नरश्च देवाश्च, योजन प्रमाणे-योजनमात्रविस्तारे, अपिना तावतां तावति सम्मानाऽसम्भवः सूच्यते । धर्मदेशनसमनि = धर्मस्य, दिश्यतेऽस्मिन्निति देशनं, तच्च तत्सद्म च तस्मिन् , समवसरण इत्यर्थः । यत् सम्मान्ति = समावेशं प्राप्नुवन्ति, स एषोऽतिशयः, योगसाम्राज्य महिमा ॥२॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ॥२॥ वीतरागस्य भाषायाः सर्वभाषापरिणामातिशयमाह - तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं यत्ते धर्माऽवबोधकृत् तेषामिति – ते, एकरूपम् = अर्धमागध्यभिधैकभाषारूपम्, अपिनैकभाषया विविधभाषावतां बोधाऽसम्भवः सूच्यते । वचनम् = देशनावाणी, तेषाम् = तिर्यङ्नृदेवानाम् एवकारेण प्रत्येकं तत्त द्भाषापरिणामः सूच्यते । स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् = स्वस्य स्वस्य प्रत्येकं तस्य तस्य भाषा, तद्रूपेण परिणामेन भावेन मनोहरं हृदयावर्जकं यथा स्यात्तथा । सर्वेषां हि स्वभाषा प्रिया भवति सुबोध्या चेति तया प्रतिपादिते तत्त्वे तेषां मनोऽनुरज्यतीति भावः । यद्, धर्माऽवबोधकृत् = धर्मज्ञानजनकम्, अस्तीति शेषः । धर्ममर्मणोऽन्यभाषया दुर्बोध्यत्वादिति भावः 11311 सपादयोजनशते रोगनिवारणाऽतिशयमाह - साग्रेऽपि योजनशते पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते त्वद्विहाराऽनिलोर्मिभिः ॥४॥ साग्रे इति - साग्रे - साधिके, सपादे इति यावत् । अपिना, न केवलं विहारासन्नदेश एवेति सूच्यते । योजनशते - योजनशतमितदेशमभिव्याप्य, त्वद्विहाराऽनिलोर्मिभिः =त्वद्विहारा एवाs प्रतिहततया सन्तानरूपतया सतततया चाऽनिलोर्मयः समीरपरम्पराः, तैः कृत्वा, पूर्वोत्पन्नाः- त्वद्विहारकालात्प्रागुद्भूताः, गदाम्बुदाः= 1 १९ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीवीतरागस्तवे तृतीयः प्रकाशः गदा रोगा एवाम्बुदा मेघास्ते, “ रोगव्याधिगदामया " इत्यमरः । अञ्जसा = सत्त्वरं निश्चयेन च यद्, विलीयन्ते नश्यन्ति, पूर्वेत्युपलक्षणम्, षण्मासान् यावदग्रेऽपि, उत्पद्यमानानां तु भूतभविष्यतोरभावादेवाऽभावः । अत्र विहारेऽनिलोर्मित्वारोपागदेऽम्बुदत्वारोप इति परम्परितरूपकालङ्कारः मूषकादीतिनिवारणाऽतिशयमाह - नाविर्भवन्ति यद्भूमौ मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता अनीतय इवेतयः ॥५॥ 11811 - नेति -- भूमौ - त्वद्विहारात्सपादयोजनशतमितदेशे, ईतयः = ईतिपदवाच्याः, यदुक्तम् – 'अतिवृष्टिरनावृष्टि मूषकाः शलभाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः पडेता ईतयः स्मृताः " । इति । मूषकाः, शलभाः, शुकाः, चोऽर्थाद्गम्यते । अन्याश्च तिस्र । ईतयोऽग्रे पृथगतिशयविषयतया प्रतिपादयिष्यन्ते इति ध्येयम् । क्षितिपक्षिप्ताः - क्षितिपेन राज्ञा क्षिप्ता दण्डादिना दूरीकृताः, अनीतयः - लक्षणया नीतिविरुद्धाचरणानि, इव क्षणेन - सद्य एव विना प्रयासमिति भावः । यद्, नाविर्भवन्ति दूरीभवन्ति, न पुनः प्राकट्यं यान्ति न सम्भवन्ति चेत्यर्थः ॥ ५ ॥ वैरनिवारणाऽतिशयमाह - स्त्रीक्षेत्र पद्रादिभवो यद्वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्त्तवर्षादिव भुवस्तले ॥ ६ ॥ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः --- - - - स्त्रीति-भुवः उक्तप्रमाणाया भूमेः, तले-पृष्ठे, स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवः स्त्रियश्च क्षेत्राणि सस्यादिभूमयश्च पद्रादीनि ग्रामादीनि च, तेभ्यो निमित्तभूतेभ्यः, भव उप्ततिर्यस्य तादृशः, वैराग्निः वैरं विरोध एव सर्वोपतापकत्वादग्निः, सः । त्वत्कृपापुष्करावर्त्तवर्षादिव त्वत्कृपैवाऽवैरतायुपदेशादिरूपा, पुष्करावर्तस्य तदाख्यस्य धारासारवृष्टौ प्रसिद्धस्य वर्ष वृष्टिः, तस्मात् तत्प्राप्येवेति हेतृत्प्रेक्षा, वस्तुतस्तु सोऽतिशय एवेति बोध्यम् । यब्लोपे पञ्चमी । यत, प्रशाम्यति-विगच्छति, सर्वे निर्वैरा भवन्तीति यावत् ॥ ६ ॥ मारिनिवारणातिशयमाह--- त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ ! मारयो भुवनारयः ॥७॥ त्वदिति - नाथ !, अशिवोच्छेदडिण्डिमे = अशिवानां कल्याणेतराणाम् , उपद्रवाणामिति यावत् । उच्छेदस्य समूलं घातस्य डिण्डिमे पटहे, उपलक्षणत्वात्तद्वादनपूर्वकघोषणारूपे, नृपो हि डिण्डमघोषणापूर्वकमन्यायं निरुणद्धीति प्रसिद्धम् । तादृशे, त्वत्प्रभावे त्वत्प्रतापे, भ्राम्यति-निरन्तरायं प्रसरति सति, भुवि उक्तप्रमाणे प्रदेशे, भुवनारयः = भुवनस्य लोकस्यारयः पीडकत्वान्नाशकत्वाच्च शत्रुभूताः, मारयः लोकनाशिकाः स्वनामख्याता उत्पाताः, यद्, न सम्भवन्ति-नोत्पद्यन्ते, उपलक्षणत्वात्सत्यश्च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीवीतरागस्तवे तृतीयः प्रकाशः विनश्यन्ति ॥७॥ अतिवृष्ट्य नावृष्टिनिवारणाऽतिशयमाह - कामवर्षिणि लोकानां त्वयि विश्वैकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिवी भवेद्यनोपतापकृत् ॥ ८ ॥ - कामेति — त्वयि, विश्वैकवत्सले - विश्वस्मिन् जगति विषये, सर्वस्मिन् प्राणिनि विषये वा, एकोऽसाधारणो वत्सलः स्नेहवान्, तस्मिन्, अतएव, लोकानाम् = सर्वप्राणिनाम्, कामवर्षिणि यथेष्टप्रदे सति । यो हि यस्मिन् स्निह्यति, स तस्येष्टं सम्पादयति, अन्यथा स्नेह एवं दुरुपपादः स्यादिति भावः । अतिवृष्टिः इष्टमपेक्ष्याऽत्यधिकवर्षणम्, वा तथा, अवृष्टिः - अनावृष्टिः, यद्, उपतापकृत् = पीडाकृत्, न भवेत् । अतिवृष्टावनावृष्टौ वा सत्या - मपि न लोकानां पीडा जायते, यद्वा फलाभावमुखेन कारणाभाव एव प्रतिपाद्यते । ततश्चाऽतिवृष्टयनावृष्टयोरेवाऽभावो भवेदित्यर्थः ||८|| स्वचऋपरचक्रोपद्रवनिवारणातिशयमाह--- स्वराष्ट्रपरराष्ट्रेभ्यो यत्क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात् सिंहनादादिव द्विपाः ॥९॥ = स्वेति — त्वत्प्रभावात्, स्वराष्ट्रपरराष्ट्रेभ्यः = स्वराष्ट्रं परराष्ट्राणि च तान्यपेक्ष्य, तन्निमित्तमिति यावत् । क्षुद्रोपद्रवाः = क्षुद्रा निकृष्टप्रकारा अभिचारकृताः शस्त्रादिकृता वोपद्रवा उपसगी: 2010_dor Private & Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः . सिंहनादात्-सिंहगर्जनमाकर्ण्य, द्विपाः गजा इव, यद् , द्रुतम्= सद्य एव, विद्रवन्ति पलायन्ते, दूरीभवन्तीतियावत् । विद्रुतिक्रियासाम्यादुपमा ॥९॥ दुर्भिक्षनिवारणाऽतिशयमाहयत्क्षीयते च दुर्भिक्षं क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाऽद्भुतप्रभावाढ्ये जङ्गमे कल्पपादपे ॥१०॥ यदिति-सद्भुतप्रभावाढ्ये सर्वे ये अद्भुता विस्मयकारिणःप्रभावाः, वर्णितवर्ण्यमानवर्णयिष्यमाणप्रकाराः प्रतापाः, तैः कृत्वाऽऽध्ये समृद्धतरे, अत एव, जङ्गमे गतिशीले, विहरमाणत्वादितिबोध्यम् । एषोऽप्यद्भुतप्रभावः, कल्पद र्हि स्थावर इति बोध्यम् । कल्पपादपे-कल्पवृक्षतुल्ये, कामवर्षित्वादिति भावः । त्वयि, विहरति = विहरमाणे सति, क्षितौ = उक्तप्रमाणायां पृथिव्याम् , दुर्भिक्षम्-दुष्कालः, चःपूर्वोक्तसकलाऽशिवसमुच्चये । यत् , क्षीयते= अपगच्छति, सुभिक्षं जायत इति यावत् । तत्कारणस्याऽतिवृष्ट्यादेः पूर्वमेवाऽभावादिति भावः ॥१०॥ भामण्डलातिशयमाहयन्मूनः पश्चिमे भागे जितमार्तण्डमण्डलम् । मा भूद्वपुर्दुरालोकमितीवोत्पिण्डितं महः ॥११॥ यदिति-मूर्ध्न: मस्तकस्य, अर्थाद्वीतरागस्येति लभ्यते । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीवीतरागस्तवे तृतीयः प्रकाशः पश्चिमे = पश्चाद्, भागे - प्रदेशे, महः - तेजः, 'महस्तुत्सवतेजसो ' रित्यमरः । वपुः=शरीरम्, दुरालोकम् - दुःसाध्यदर्शनम्, माभूत् = न जायताम्, इतीव=अस्मादभिप्रायादिव, जितमार्त्तण्डमण्डलम् = जितमधिकतेजस्त्वात्पराभूतं मार्त्तण्डमण्डलं सूर्यबिम्बं यथा स्यात्तथा, सूर्यबिम्बादप्यधिकतेजस्वीति भावः । यद्, उत्पिण्डितम् =उच्चैः संजातपिण्डमिव स्थितम् पिण्डाकारतामापन्नं वा, भामण्डलरूपेण स्थितमिति यावत् ॥११॥ एवमतिशयानभिधाय तदुपसंहरन्नाह - स एष योगसाम्राज्यमहिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् ! कस्य नाश्चर्यकारणम् १२|||| स इति -- विश्वविश्रुतः = जगत्ख्यातः, न त्वस्मादृग्वचनमात्रसिद्ध इति भावः । कर्मक्षयोत्थः = घातिकर्मक्षयजनितः, स एष = वर्णित प्रकारः, योगसाम्राज्यमहिमा - योगः कर्मक्षयकरोऽनुष्ठानविशेषः शुभध्यानादिरूपः, तस्य यत्साम्राज्यम् चक्रवर्त्तित्वम्, सर्वोत्कृष्टस्य सर्वप्रकारस्य च योगस्य स्वस्मिन् सत्त्वाच्चक्रवर्त्तित्वमुच्यते, सम्राड् हि सार्वभौमो भवतीति भावः । तस्य महिमा माहात्म्यरूपोऽतिशयः, कस्याश्चर्यकारणं न अपि तु सर्वस्यैवाश्चर्यजनक - मिति काक्वाऽर्थः । असाधारणं हि वैशिष्ट्यमाश्चर्यकरं भवत्येवेति भावः ॥१२॥ ननु भोगादिना कर्मक्षयोऽन्यत्राऽपीति तन्मूलत्वेऽन्यत्राऽप्ये 2010_dor Private & Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः धामतिशयानां सम्भव इति साधारणत्वात्कथमाश्चर्यकरत्वं तन्महिम्न इति चेन्न । कर्मक्षयाऽतिशयजन्यास्तेऽतिशयाः, कर्मक्षयाऽतिशयश्व वीतराग एवेति न तेषां साधारण्यसम्भव इति मनसिकृत्य तमेवाह-- अनन्तकालप्रचितमनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नाऽन्यः कर्मकक्षमुन्मूलयति मूलतः ॥१३॥ अनन्तेति-त्वत्तः भवतो वीतरागतः, अन्यः, सर्वथा सर्वप्रकारेण, सर्वातवैः कृत्वेत्यर्थः । अनन्तकालप्रचितम्-अनन्तेन कालेन प्रचितम् उपचितम् , उपार्जितमित्यर्थः । बद्धमिति यावत् । सृष्टेरनादित्वाज्जीवस्य च नित्यत्वादिति भावः । अत एव, अनन्तम्अन्तरहितम् , अपिना सङ्ख्यातस्याऽसङ्ख्यातस्य तु कथैव केति सूच्यते । कर्मकक्षम् = कर्मैवोन्मूलनीयत्वात्समुदायरूपत्वाच्च कक्षं वनमिव, तत् , मूलतः समूलम् , यथा न पुना रोहो भवेदिति भावः । न, उन्मूलयति-उत्पाटयति, नाशयतीत्यर्थः । अन्यस्य तादृशज्ञानदर्शनचारित्ररूपसाधनाऽभावादिति भावः ॥१३॥ ... ननु कर्मक्षयान्मुक्ति भवतु, तथेच्छया तत्करणात् । अतिशयस्तु कथम् ?, किञ्चाऽतिशयेच्छया तत्करणे कथं वीतरागतेति विप्रतिपत्तिं निरस्यन्नाह तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं क्रियासमभिहारतः । यथाऽनिच्छन्नुपेयस्य परां श्रियमशिश्रियः ॥१४॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे तृतीयः प्रकाशः तथेति-त्वम् , उपेयस्य प्राप्यस्य मोक्षस्य, उत्तमानां स एवोपेय इति भावः । उपाये हेतुभूताऽनुष्ठाने, क्रियासमभिहारतः पौनःपुन्येन, नहि सकृत्तथोपायप्रवृत्त्या तत्प्राप्तिरिति भावः । तथा = तेन प्रकारेण, इतरविलक्षणेन प्रकारेणेत्यर्थः । प्रवृत्तः-कृतोद्यमः, यथा-येन प्रकारेण, अनिच्छन्-अनभिलष्यन्नपि, पराम्-उत्कृष्टाम् , श्रियम् अतिशयादिरूपां लक्ष्मीम् , अशिश्रियः-प्राप्तवान् । प्रवृत्तिमुक्तीच्छयैव, अतिशयस्तु तादृशविलक्षणोपायस्वाभाव्यादनिच्छायामप्यनुषङ्गत आविर्भवत्येव । स्वभावस्य स्वतन्त्रप्रवृत्तिकत्वादिति भावः ॥१४॥ तमुपायमेव स्तुतिव्याजेनाहमैत्रीपवित्रपात्राय मुदितामोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्ष्याय तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते श्रीवीतरागस्तवे तृतीयःप्रकाशः ॥३॥ मैत्रीति---मैत्रीपवित्रपात्राय-मैत्री सर्वहितबुद्धिः, तस्याः, पवित्राय दोषलेशस्याऽप्यभाद्विशुद्धाय पात्रायाऽऽश्रयाय, सर्वहितमतिमते इत्यर्थः । मुदितामोदशालिने–मुदिता गुणपक्षपातिता, तया कृत्वा यः आमोदः प्रमोद आनन्दात्मता, तेन शालिने शोभमानाय, कृपोपेक्षाप्रतीक्ष्याय=कृपाऽऽतभीतत्राणेच्छा, सा च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः उपेक्षा निन्दकप्रशंसकेषु समबुद्धिता, सा च, ताभ्यां हेतुभ्यां प्रतीक्ष्याय पूज्याय, " अय॑स्तु प्रतीक्ष्यः " (अभि. चि. ॥३॥ ४४३ । ) एवं पर्यायनयेन स्तुत्वा द्रव्यनयेन स्तुवन्नाह-योगात्मने-उक्तमैत्र्यादियोगस्वरूपाय, तुभ्यम्=भगवते वीतरागाय, नमः= नमस्कारोऽस्त्विति शेषः । एतादृशायैव नमस्कारो योग्य इतिभावः ॥१५ इति श्री वीतरागस्तवे श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां कीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां तृतीयः प्रकाशः ॥३॥ चतुर्थः प्रकाशः अथ सुरकृताऽतिशयान् वर्णयन्नादौ धर्मचक्रं वर्णयतिमिथ्यादृशां युगान्तार्कः सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकुल्लक्ष्म्याः पुरश्चक्रं तवैधते ॥१॥ मिथ्येति—हे वीतरागेति प्रकरणाल्लभ्यते । तव, पुरः= अग्रभागे, समवरणे विहारे च पुरोऽवस्थितमित्यर्थः । चक्रम्= धर्मचक्रम् । देवैर्विहितमित्यनुसन्धेयम् । मिथ्यादृशाम् = मिथ्या वस्तुयाथात्म्यानवसायित्वाद्विपरीता दृग् दृष्टि दर्शनं सिद्धान्तो वा येषां तेषाम् यथावद्वस्तुपरिच्छेददरिद्राणामित्यर्थः । कृते इति शेषः । युगान्तार्क: युगान्तः प्रलयकालः, तस्य योऽर्कः सूर्यः, स इव, तद्रूपं वा । यथा हि प्रलयकालिकः सूर्योऽतिप्रखरकरतया दर्शनमात्रेण जीवदृष्टे जीवानां चाऽसत्त्वसम्पादक इति 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीवीतरागस्तवे चतुर्थः प्रकाशः - पौराणिकी प्रसिद्धिः, तथा तव धर्मचक्रमपि दर्शनमात्रेण मिथ्या दृशामसत्त्वं सम्पादयति, धर्मचक्रदर्शनेन तेषां सम्यक्त्वप्ररोहेण कृत्वा मिथ्यादृष्टिविलोपात् । मिथ्यात्वोपम च कुतो मिथ्यादृशो भवन्त्विति भावः । मिथ्याशस्तव धर्मचक्ररूपमतिशयं साक्षाद दृष्ट्वा स्वस्य तदभावात्स्वसिद्धान्ते जाताऽप्रामाण्यमतयस्त्वत्सिद्धान्ते चो दभूतरुचयो मिथ्यात्वं त्यजन्तीति गुणाऽभावे गुणिनोऽप्यसत्त्वम् , तत्तादाम्यादिति सुष्ठूच्यते मिथ्यादृशां युगान्तार्क इति । चक्र स्य सम्यक्त्वपोषणमप्याह-सुदृशाम्-सु समीचीना दृग् येषां तेषाम् सम्यक्त्ववतामित्यर्थः । जिनोक्ततत्त्वश्रद्धानशीलानामिति यावत् । कृते इति शेषः । अमृताञ्जनम् = अमृतघटिताञ्जनतुल्यम् । अञ्जनं हि दृशो विशदीकरोति, तथा धर्मचक्रमपि रुचेरुत्कर्षकम् । सम्यक्त्ववतां हि धर्मचक्रं दृष्ट्वा सविशेषं प्रत्ययितानां तद् रुचिमतिविशदीकरोतीति भावः । कार्यमभिधाय स्वरूपमाह-तीर्थकुल्लक्षम्याः तीर्थकृतो या लक्ष्मीरतिशयादिसमृद्धिः, सैव स्त्रीत्वविशिष्टतया लक्ष्मीदेवी, तस्याः, तिलकम्=भालाऽनुलेपनम् , विशेषकमित्यर्थः, तदिव, वृत्तत्वादग्रभागस्थत्वात्प्रधानत्वाच्चेति भावः । एधते-विजयते, सर्वोत्कर्षेण वर्तत इत्यर्थः । योयुत्कृष्टो भवति स पुरो भवतीत्युचितमेवेति भावः । समवसरणे विहारे च तीर्थकृतो धर्मचक्रवर्तित्वसूचकं देवै विहितं धर्मचक्रं पुरःस्थं भवतीत्येवमुक्तिः ॥१॥ ... महेन्द्रध्वजं वर्णयन्नाह - 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः एकोऽयमेव जगति स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात्तर्जनी जम्भविद्विषा ||२|| २९ एक इति — जगति, अयम् = वीतराग एव, एवकारेणाऽन्ययोगव्यवच्छेदो द्योत्यते । एकः = असाधारणः, सर्वमुख्यो वा, स्वामी = उपदेशादिना सर्वजगत्पालकत्वादीशः, सेव्यो वा, इति = एवंप्रकारमर्थम्, आख्यातुम् - प्रतिपादयितुम्, जम्भविद्विषा = इन्द्रेण, जम्भनामा कश्चिदसुरस्तेन हत इति तन्मूला तदाख्या तस्येति भावः । उञ्च्चैरिन्द्रध्वजव्याजात् = उच्चैः सहस्रयोजनमुत्तुङ्गो य इन्द्रध्वजाख्यो ध्वजः, स एव व्याजो मिषम्, तदाश्रित्येत्यर्थः । तर्जनी = प्रथमाङ्गुलिः, उच्छ्रिता = उन्मुखीकृता, अस्तीति शेषः । नायमिन्द्रध्वजः, किन्त्विन्द्राङ्गुल्येवोन्मुखी ध्वजशब्देनोच्यते इत्याकूतम् । तर्जन्युन्नयनेन किमपि विशिष्टं लोके निदर्श्यते इत्येव - मुक्ति: । यो हि जगत्स्वामी, तस्यैव तादृशोऽतिशय इति भावः । अपहूनुत्यलङ्कारः । तीर्थकृतो विहारादौ देवैः सञ्चार्यमाण इन्द्रध्वजोऽतिशय उक्तप्रकारेण वर्णितः ॥२॥ देवकृतस्वर्णकमलेषु चरणन्यासाऽतिशयमाह— यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरासुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजाच्छ्रियं पङ्कजवासिनीम् ॥३॥ यत्रेति -- तव, पादौ यत्र - यस्मिन् प्रदेशे, पदम् = स्थानम्, 2010_dor Private & Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे चतुर्थः प्रकाशः " पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माधिवस्तुष्वि" त्यमरः । धत्ता= कुरुतः, यत्र तव पादौ पतत इति यावत् । तत्र, सुरासुराः, पङ्कजव्याजात-पद्मापदेशात् , पङ्कजवासिनीम् पद्मालयां, श्रियम् लक्ष्मीम् , किरन्ति-क्षिपन्ति । तत्रैव सर्वसम्पदो यत्र तव पादौ, सर्वसम्पदस्तव पादलमा एवेति यावत् । तत्सूचनायैव देवैः स्वर्णपद्मानि तव पादपातस्थाने न्यस्यन्ते, पङ्कजन्यासे च तद्वासिन्या न्यास उचित एवेति भावः ॥३॥ देवविकृतबिम्बातिशयमाहदानशीलतपोभावभेदाद्धम चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं चतुर्वक्त्रोऽभवद् भवान् ॥४॥ दानेति—मन्ये सम्भावयामि, यदिति शेषः । किमित्याहभवान् , दानशीलतपोभावभेदात् – दानं च शीलं च तपश्च भावश्च, तेषां समाहारः, तद्पाद्भेदात्प्रकाराद्धेतोः, चतुर्विधं धर्मम् , युगपत् सहैव, आख्यातुम् = उपदेष्टुम् , चतुर्वक्त्रः = चत्वारि वक्त्राणि यस्य स तादृशः, चतुर्मुख इत्यर्थः । “वक्त्रास्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं मुखमि" त्यमरः । न कमुखेन युगपद्धर्मचतुष्टयोक्तिः सम्भवतीतिकृत्वेति भावः । एकं पूर्वमुख स्वमुखम् , अपरदिक्षु च देवविकृतार्हत्प्रतिबिम्बानां मुखत्रयमित्येवमर्हतः समवसरणे चतुर्मुखता जायते, तच्च स्वप्रभावादेवेत्येव मुक्तिः । प्रतिविम्बमुखानामर्हन्मुखत्वाऽध्यवसायमूला देवविकृते स्वी 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः यत्वाध्यवसायमूला चोत्प्रेक्षा ॥४॥ समवसरणप्राकारत्रयं वर्णयन्नाह - त्वयि दोषत्रयात्त्रातुं प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्स्त्रयोऽपि त्रिदिवौकसः ॥५॥ त्वयीति - त्वयि भुवनत्रयीम् = तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यन्यायेन भुवनत्रयीस्थजन्तून्, दोषत्रयात् = कायिकवाचिकमानसिकरूपाद् दुरितत्रयादाधिभौतिकादिदु:खत्रयाद्वा, त्रातुम् = परिरक्षितुम् प्रवृत्ते = उद्यते सति, उपदेशादिनेति भावः । त्रयः - चौमानिकज्यौतिषिक भवनपतयः, अपिना नत्वेक एवेति सूच्यते । त्रिदिवौकसः = देवाः, प्राकारत्रितयम् समवसरणप्राकारत्रयं मणिस्वर्णरजतमयम्, चक्रुः = विचक्रुः, मन्ये इत्यर्थबलाल्लभ्यते । अभिव्याप्त्या पालनं यथा स्यादिति पाल्यसख्यया प्राकारनिर्माणमिति भावः । समवसरणे देवैः प्राकारत्रयं विक्रियत इत्येवमुक्तिः । भुवनत्रयपालको बीतराग इति ध्वनिः ॥५॥ विहारसौविध्याऽतिशयमाह - अधोमुखाः कण्टकाः स्यु धीत्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं तामसास्तिग्मरोचिषः ॥६॥ अध इति — तव, धात्र्याम् = पृथिव्याम्, विहरतः सतः, कण्टकाः = तत्पदवाच्या स्तीक्ष्णायाः प्रसिद्धाः, कण्टकवत्पीडाकरत्वा = ३१ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे प्रथमः प्रकाशः - - - - दुर्जनाः, तवाज्ञाविराधकत्वात्क्षुद्रशत्रुभूताः परवादिनश्च, अधोमुखाः= नीचैर्मुखाः, एकत्र तादृशाद्भुतप्रभावादन्यत्र सदुपदेशादिना सत्सिद्धान्तेन च सत्पथं नीता अभिभूताश्च विनयाल्लज्जायाश्च नम्रमुखाः, स्युः, युक्तं चैतत् , तत्र प्रतिवस्तुपमामाह-तिग्मरोचिषः उग्रप्रतापस्य सूर्यस्य, तामसाः = तमसि भवा नक्तंचरास्तमःसमूहाश्च, सम्मुखीनाः = सम्मुखाः, भवेयुः किम् ?-नैव भवेयुरित्यर्थः । तद्वत्कण्टकास्तवाऽपि तथा नेत्यर्थः । भगवतो विहारे पादपीडाजनकाःकण्टकादयो देवैस्तथा स्थाप्यन्ते, यथा न विहरतःप्रतिकूलतेत्येवमुक्तिरिति बोध्यम् ॥६॥. केशाद्यवस्थिताऽतिशयमाहकेशरोमनखश्मश्रु तवाऽवस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा नाऽऽसस्तीर्थकरैः परैः · ॥७॥ केशेति- तव, केशरोमनखश्मश्रु=केशाश्च रोमाणि च नखाश्च श्मश्रूणि कूर्चानि च, तेषां समाहारः । प्राण्यङ्गत्वादेकत्वम् । अवस्थितम् अन्यूनाधिकस्थिति, दीक्षाकाले यावदेतत्तावदेव स्थितमित्यर्थः । भवतीति शेषः । इत्ययम् उक्तप्रकारः, बाह्यः= शरीरबहिर्देशभवोऽपि, अपिनाऽन्तरङ्गस्य योगमहिम्नस्तु कथैव केति सूच्यते । योगमहिमा चारित्रमाहात्म्यम् , परैः त्वदन्यैः, तीर्थ. करैः बुद्धादिभिः, नाऽऽप्त: न लब्धः, तव योगमहिम्नैव प्रेरितैः देवैस्तव केशादीनां तथास्थिति विधीयते, न तु परेषां बुद्धादीन 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः तीर्थकराणां तथेति त्वमेव सर्वमहानिति भावः ॥ ७ ॥ विषयाऽऽनुकूल्याऽतिशयमाहशब्दरूपरसस्पर्शगन्धाख्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न त्वदग्रे तार्किका इव ॥८॥ शब्देति-त्वदग्रे, तार्किकाः तर्कविदो बौद्धादयः, न तु यथास्थितवस्तुविद इति साभिप्रायविशेषणमेतदिति बोध्यम् । ते इव, पञ्च, शब्दरूपरसस्पर्शगन्धाख्याः, गोचराः इन्द्रियार्थाः, विषया इत्यर्थः । “ गोचरा इन्द्रियार्थाश्चे” त्यमरः । प्रातिकूल्यम्=अमनोज्ञताम् , न, भजन्ति आश्रयन्ति, यथा त्वदीययथावस्थितवस्तुप्रतिपादनेन कृत्वा कुण्ठितप्रसरा बौद्धादयः, प्रतिकूलतां त्वद्विरोधितां त्यजन्ति, तथा त्वद्विहारदेशादौ शब्दादयोऽरुचिविषयत्वं त्यजन्ति । तार्किकवच्छब्दादयोऽप्यनुकूला एव भवन्तीति यावत् । देवैः प्रतिकूलानां शब्दादीनां निरसनादिति भावः ॥८॥ सर्ववानुकूल्याऽतिशयमाहत्वत्पादावृतवः सर्वे युगपत्पर्युपासते । आकालकृतकन्दर्पसाहायकभयादिव ॥९॥ त्वदिति-सर्व घडपि, ऋतवः वसन्ताद्या मासद्वयमाना वर्षभागविशेषाः ख्याताः, आकालकृतकन्दर्पसाहायकभयादिव= आकालमा संसारम् , अनादिकालमभिव्याप्येत्यर्थः । कृतं यत्कन्दर्पस्य कामस्य साहायकम् साहाय्यम् , जनमनोदूषणे कामस्यर्तवः सहा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे चतुर्थः प्रकाशः याः, उद्दीपनविभावत्वात्तेषामिति भावः, ततो हेतो यद्भयम् , तदाप्येव, कामवदस्माकमप्यभिभवो मा भूदिति भयं प्राप्येवेति यावत् । युगपत् अहंपूर्वमहंपूर्वमित्यवं सहैव, प्रसादनार्थमिति भावः । त्वत्पादौ उपलक्षणत्वात्त्वत्पादाधिष्ठितसमवसरणासन्नभूमिम् , पर्युपासते आश्रयन्ति, अन्योऽपि हि लोके यतो भयम् , तमनुकूलनाय सेवते इति भावः । समवसरणासन्नप्रदेशेषु देवैः सर्व. वो विक्रियन्ते इत्येवमुक्तिः ॥९॥ सुगन्ध्युदकवृष्टयाद्यतिशयमाहसुगन्ध्युदकवर्षेण दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा पूजयन्ति भुवं सुराः ॥ १० ॥ स्विति-सुराः, भावित्वत्पादसंस्पर्शाम् भावी तव पादयोः संस्पर्शो विहारे न्यासादिना यत्र, समवसरणे च, तां तादृशीम् भुवम् भूमिम् , सुगन्ध्युदकवर्षेण-सुगन्धिजलसिञ्चनेन कृत्वा दिव्यपुष्पोत्करण-दिव्यानां पारिजातादीनां पुष्पाणामुत्करेण प्रकरण पुञ्जेन रचनाविशेषेण वा, चः, समुच्चये, पूजयन्ति, न केवर त्वामेव, भक्त्यतिशयादिति भावः । देवा वीतरागपदन्यासात्पूर्वमेव भूमौ सुगन्धिवारि सिञ्चन्ति, पुष्पाणि च विकिरन्तीत्येवमुक्तिः ॥१०॥ पक्षिप्रदक्षिणाऽतिशयमाहजगत्प्रतीक्ष्य! त्वां यान्ति पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् का गति महतां तेषां त्वयि ये वामवृत्तयः ॥११ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः जगदिति-जगत्प्रतीक्ष्य! जगद्भिः सर्वप्राणिभिः प्रतीक्ष्य ! पूज्य !, अत एव, पक्षिणः, अपिना नरादीनां तु विवेकवतः कथैव केति सूच्यते । त्वाम् , प्रदक्षिणम् दक्षिणेन कृत्वा यथा स्यात्तथा, यान्ति, यद्वा प्रदक्षिणं कुर्वन्तीत्यर्थः । शुभाशंसयेति भावः । देवप्रेरिता इति ध्येयम् । एवं सति, त्वयि, ये= यत्प्रकारा जनाः, वामवृत्तयः प्रतिकूलाचरणाः, आज्ञाविराधनादिनेति भावः, तेषाम् , महताम् अहंमहानित्येवं मन्यमानानाम् , का गतिः कीदृशी गतिरिति न जानामि, निकृष्टा गतिस्तेषां भवित्रीति यावत् । लोकबाह्यो हि दुर्गतिमेवाऽऽप्नोतीति भावः ॥ ११ ॥ विहारे भगवतः समीराऽऽनुकूल्यमाहपञ्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं क्व भवेद् भवदन्तिके १ । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुञ्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥१२॥ पञ्च इति-यद्यस्माद् हेतोः, एकेन्द्रियः स्पर्शनमात्रेन्द्रियः, अपिनाऽसंशिजीवेषु तस्य सर्वजघन्यता हेयोपादेयविवेकशून्यता च सूच्यते । अनिल: वायुः, प्रतिकूलताम्-सम्मुखदिशमपेक्ष्य वहनरूपं प्रतिकूलाचरणम् , मुञ्चति-त्यजति, पृष्ठत एव वहतीत्यर्थः । सम्मुखदिश आगच्छन् वायुर्हि विहारे प्रतिकूलः, मुखादिषु रजःकणादयुड्डायनादिभि वेगादिभि गत्यवरोधादिना च क्लेशजनकत्वात् । पृष्ठतस्तु सोऽनुकूलः, श्रमहरत्वाद्गतिसहायाद्रजःकणादयुपद्रवाद्यकरणाच्च । भगवतो विहारे च वायुः पृष्ठत 2010_030r Private & Personal Use Only ____ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे चतुर्थः प्रकाशः एव सदा वहति, देवनियोगादित्येवमुक्तिः । एवं लब्धावसरः सर्वानुकूल्यमाह-भवदन्तिके भवत्समीपे, पञ्चेन्द्रियाणाम् नरादीनाम् , सम्प्रधारणसंज्ञावतामिति यावत् । दोःशील्यम्-दुराचरणम् , प्रतिकूलाचरणमित्यर्थः । क्व-किं निमित्तम् , भवेत् ? । न भवेदेवेत्यर्थः । एकेन्द्रियस्याऽधमजीवस्य यत्र न प्रातिकूल्याऽवसरः, तत्रोत्तमस्य. विवेकवतः प्रतिकूलाचरणे निमित्तमतिदुर्लभम् । भगवतः प्रभावादतदहीं अपि विवेकिनो जायन्ते, तर्हि विवेकिनः किमु वक्तव्यमिति भावः । सर्वे एव जीवा भगवत्यनुकूलतयैव वर्तन्त इति हृदयम् ॥१२॥ विहारे भगवतस्तस्कृतप्रणाममाहमनों नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत्कृतार्थं शिरस्तेषां व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः ॥१३॥ मूर्नेति-तरवः वृक्षाः, त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः तव माहात्म्येनोक्तप्रकारेण वक्ष्यमाणप्रकारेण च, चमत्कृताः पटूकृताः, सचेतना विवेकवन्त इव कृता इत्यर्थः । अत एव, मूर्ना शिरसा, शिखरेणेत्यर्थः । नमन्ति-नम्रीभवन्ति, प्रणमन्तीति यावत् । त्वामित्यर्थबलाल्लभ्यते । देवैर्भगवदुपचारार्थ तेषां शिखरनमनात् , स्वयमेव वा तेषां फलपुष्पादिभाराऽवनततयैवमुक्तिः । तत्-यस्मात्त्वत्प्रणामाद् हेतोः, तेषाम्=तरूणाम् , शिरः-शिखरम् , कृतार्थम् कृतकृत्यम् , शिरसो हि पूज्यनमनेनैवं कृतार्थता, अन्यथा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः त्वविनयाऽनुषङ्गादकृतार्थता, तदेवाह-पुनः किन्तु, मिथ्यादृशाम्= सम्यग्ज्ञानशून्यानां त्वदाज्ञाविराधकानां त्वयि विनयमभजमानानाम् , व्यर्थम् सर्वनमस्यत्वदनमनाद्धेतोः पूज्यपूजाव्यतिक्रमाऽनुषङ्गासदपि न कृतार्थमिति व्यर्थमेवेत्यर्थः । शिर इत्यनुषज्यते । एतेन मिथ्यादृशस्तवाद्यपेक्षयाऽप्यधिकजडत्वं ध्वनितम् ॥१३॥ भगवतो जघन्यतः कोटिसुरा-सुरसेव्यत्वमाहजघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः । भाग्यसम्भारलभ्येऽर्थे न मन्दा अप्युदासते ॥१४॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रार्यविरचिते श्रीवीतरागस्तवे चतुर्थः प्रकाशः ॥४॥ ____जघन्यत इति-त्वाम् भवन्तं वीतरागम् , जघन्यतः अल्पाल्पतः, कोटिसङ्ख्या:-कोटिसङ्ख्यामिताः, उत्कर्षतस्तु कोटिकोटिसङ्ख्यामिता इति भावः । सुरासुराः, सेवन्ते-उपासते । तादृशगुणानामन्यत्राऽलाभात्त्वामेव सेवन्ते इति भावः । ननु गुणवान् दुर्लभोऽपि सर्वैः सेव्य एवेति न नियम इति मनसिकृत्य समर्थयन्नाह-भाग्यसम्भारलभ्ये भाग्यस्य शुभादृष्टस्य सम्भारेण प्राचुर्येण लभ्ये प्राप्ये, अर्थ-विषये, मन्दाः अल्पमतयः, अपिना विपुलमतीनां तु कथैव केति सूच्यते । न, उदासते-उपेक्षामाश्रयन्ति । त्वत्सेवनं भाग्यसम्भारेण लभ्यमिति तल्लाभे कः सचेता उदासताम् ?, पुनर्लाभस्य सन्दिग्धत्वादित्युचितं देवानां त्वत्सेवनमिति 2010_030r Private & Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीवीतरागस्तवे पञ्चमः प्रकाशः भावः । यस्य देवा अपि सेवकास्तस्याऽन्ये तथेति किमु वक्त व्यम् ?, असेवकाश्च भाग्यवञ्चिता एवेति हृदयम् ॥१४॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तव कीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थः प्रकाशः ॥४॥ "" पञ्चमः प्रकशः अथाऽष्टप्रातिहार्यरूपाऽतिशयान् वर्णयश्चैत्यपादपं वर्णयति - गायन्निवाऽलिविरुतै नृत्यन्निव चलैर्दलैः । स्वगुणैरिव रक्तोऽसौ मोदते चैत्यपादपः ॥१॥ गायन्निति - असौ - आगमादिषु समवसरणस्थतया वर्णितत्वा त्सम्प्रति विप्रकृष्टः, चैत्यपादपः - तन्नाम्ना प्रसिद्धः समवसरणस्थोऽ शोकद्रुमः, अलिविरुतैः–अलीनां भ्रराणां विरुतै गुञ्जनैः कृत्व स्वस्योपरि सुगन्धिसमाकृष्टानामितस्ततो भ्राम्यतामित्यर्थबलाल्लभ्यते । गायन = गानं कुर्वन्निव । तथा, चलैः = वहमा नपवननोदनय कम्पमानैः, दलैः–पत्रैः कृत्वा, " “ द्विरेफपुष्पलिभृङ्गषट्पदभ्रमरा लयः " पत्रं पलाशं छदनं दलं पर्ण छदः पुमानि " चामरः । नृत्य - नृत्यं कुर्वन्निव, किञ्च त्वद्गुणैः = तव गुण गुण रूपैः रञ्जनद्रव्यैः कृत्वेव, रक्तः = रक्तवर्णः, अनुरक्तश्च, गुणैर्धनुरज्यनि जना इति भावः । अत एव मोदते हृप्यति, यो हि मोदते , 3 2010_dor Private & Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः सोऽवश्यं गायति नृत्यति, रज्यति चेति भावः । चैत्यपादपे भ्रमरा गुञ्जन्ति, पत्राणि मन्दपवनैरान्दोल्यन्ते, रक्तश्चाऽसावशोकस्तव प्रातिहार्य निर्वाहयति पुण्यसम्भारलब्धतया मोदमान इति हृदयम् ॥१॥ __द्वितीयं प्रातिहार्यमाहआयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुनीः सुमनसो देशनोा किरन्ति ते ॥२॥ ___ आयोजनमिति—सुमनसः देवाः, ते वीतरागस्य, देशनोाम् = देशनायाः दिशतस्तवाऽधिष्ठानभूतत्वाद्देशनासम्बन्धिन्याम् , ऊर्ध्याम्=भूमौ, समवसरण इति यावत् । आयोजनम् योजनाद् आ, योजनमभिव्याप्येत्यर्थः । समवसरणभूमेर्योजनप्रमाणत्वादिति भावः । जानुदघ्नीः-जानुरूर्वमानं यासां तास्तादृशीः, जानुमानोच्छ्राया इत्यर्थः । अधस्तानिक्षिप्तवन्धना: अधस्ताद्यथास्यातथा निक्षिप्तानि विन्यस्तानि बन्धनानि वृन्तानि यासां तास्तादृशीः, यथा वृन्तानां काठिन्यात्कमलकोमलपादपीडा मा भूदिति भावः । सुमनसः पञ्चवर्णपुष्पाणि, किरन्ति-आस्तृणन्ति । एतज्जगदद्भुतं तव प्रभावातिशय इति भावः ॥२॥ तृतीयं प्रातिहार्यमाहमालवकैशिकीमुख्यग्रामरागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो हर्षोद्ग्रीवै मृगैरपि ॥३॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रीवीतरागस्तवे पञ्चमः प्रकाशः मालवेति-तव-दिशतो वीतरागस्य, मालवकैशिकी मुख्य: ग्रामरागपवित्रितः = मालवकैशिकी तदाख्यो रागविशेषो मुख्य येषु तै स्तादृशैर्ग्रामैरारोहाऽवरोहविशेषैः, स्वरसमूहविशेषै वी, तत्स हितैः रागैः स्वनामख्यातै गायनप्रकारैः पवित्रितो विशदीकृतः किञ्च, दिव्यः = देवैवीद्याद्युपकरणैः कृत्वा प्रगुणितत्वादलौकिकः नहि लोके कोऽपि रागमयं तथा दिशतीति भावः । ध्वनिः- देश नावचोनादः, मृगैः = हरिणैः, उपलक्षणत्वात्पशुभिः, अपिना शेष सर्वप्राणिसमुच्चयः । हर्षोद्ग्रीवैः = हर्षेणाऽतियित्वाज्जातहर्षात्मक विस्मयौत्सुक्यादिनोद्ग्रीवैरुल्लम्बितगलैः, श्रवणे समुत्सुकानां जाति रियमिति बोध्यम् । पीतः = सादरं सोत्कण्ठं च श्रुतः भगवतो देशनावाची हि रागमय्यो देवैरुपवीणिताः श्रुतिमनोहरा श्र भवन्तीति विलक्षणोऽतिशय इति भावः ॥ ३ ॥ चतुर्थ प्रातिहार्य माह— तवेन्दुधामधवला चकास्ति चमरावली । हंसालिखि वक्त्राब्जपरिचर्यापरायणा ॥ ४ ॥ तवेति- तब, इन्दुधामधवला - इन्दोश्चन्द्रस्य धाम चन्द्रिके धवला शुभ्रा, चमरावली - वालव्यजनश्रेणिः, देवै हि चामरैवज्य भगवानिति भावः । वक्त्राब्जपरिचर्यापरायणा - वक्त्रं मुखमब्ज मिव, अत एव तस्य परिचर्यायामुपचारे परायणा सततं व्यापू ता, हंसालि:- हंसश्रेणिरिव, हंसस्याऽपि धवलत्वादुत्प्रेक्षा । हंस - 2010_dor Private & Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3)* कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः - - स्याऽब्जपरिचरणमुचितमेवेति भावः । चकास्ति-शोभते ॥४॥ देशनां श्रोतुं मृगागमनं भङ्गया वर्णयतिमृगेन्द्रासनमारूढे त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥५॥ मृग इति-त्वयि, मृगेन्द्रासनम्-सिंहासनम्, आरूढे= अधिष्ठिते, तथा, देशनाम्-प्रवचनम्, तन्वति–कुर्वाणे सति, श्रोतुम्-देशनामाकर्णयितुम् , मृगाः-हरिणाः, मृगेन्द्रम्-सिंहम् , " सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्य " इत्यमरः । सेवितुम्-उपासितुमिय समायान्ति । यो हि यस्येन्द्रः स तेन सेव्यते इति प्रसिद्धः । एवं च मृगाः यथा स्वस्वामित्वनिर्वाहाय मृगेन्द्र सेवितुं समायान्ति, तथा रागादिनाऽऽकृष्टाः पुण्यसम्भारलब्धपटुत्वसम्यक्त्वादिजनितभक्त्या च तव देशनां श्रोतुमिति समागमक्रियासाम्यादुपमा । सा च मृगाणां मृगेन्द्रसेवनस्याऽप्रसिद्धत्वान्मृगेन्द्रभयात्पलायनस्यैव प्रसिद्धत्वाच्चाऽभूता, “ यथा मेरुशिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयद " इत्यादिवदिति बोध्यम् । श्रोतुं यत्समायान्ति, तन्मृगेन्द्रासनस्थं मृगेन्द्रं स्वस्वामिनं सेवितुमिवेत्युत्प्रेक्षा वा । परमत्र पक्षे श्रोतुमागमनस्याऽपकर्षापत्तिः, अपकृष्टं हि कर्मोत्कर्षलाभायोत्कृष्टेनोत्प्रेक्ष्यते । न तत्कृष्टमपकृष्टेन, अनिष्टार्थप्रतीत्यापत्तेः । अत्र च श्रवणार्थमागमनमेवोत्कृष्टमिति समालोचनीयं सहृदयैः । तिर्यचोऽपि त्वयि भक्तिमन्त इति न केवलं सिंहमेव, किन्तु मृगे 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीवीतरागस्तवे पञ्चमः प्रकाशः न्द्रासनसूचितं मृगेन्द्रस्वामिनं स्वस्वामिस्वामिनं जगत्स्वामिनं त्वां सेवितुं च समायान्तीतिध्वनिव्यङ्ग्यो महांस्तवाऽतिशय इति ध्वनिः ॥५॥ भामण्डलस्याऽपि जनमनोज्ञत्वमाहभासां चयैः परिवृतो ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामिव दृशां ददासि परमां मुदम् ॥६॥ भासामिति-वीतराग ! त्वमित्यर्थात्प्रकरणाद्वाऽनुसन्धेयम् । भासाम् युतीनाम् , “ भाश्छवियुतिदीप्तय " इत्यमरः । चयैः= पुजैः, ज्योत्स्नाभिः चन्द्रिकाभिः, चन्द्रमा इच, परिवृतः= समन्वितः, शरीरद्युतिद्योतितो भामण्डलशोभितश्चेति यावत् । दृशाम् = लोकनेत्राणाम् , चकोराणाम् स्वनामख्यातपक्षिणामिव परमाम् अत्युत्कृष्टाम् , मुदम् आह्लादम् , ददासि, । यथा ज्यो स्नाभिश्चकोरा मोदन्ते, तथा तव भामण्डलेन शरीरद्युतिमि वो लोकलोचनानीत्यर्थः । एतेन भगवतश्चन्द्रवदाह्लादकत्वं ध्वन्यते आसेचनककान्तिभंगवानिति भावः ॥६॥ दुन्दुभिध्वानं वर्णयन्नाहदुन्दुभिर्विश्वविश्वेश ! पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं साम्राज्यमिव शंसति ॥ ७ ॥ दुन्दुभिरिति-विश्वविश्वेश ! विश्वेषां सर्वेषां विश्वानां जग. तामीश !, अहिंसाद्युपदेशादिना सर्वजगत्पालनादिति भावः । ते. 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः पुरः अग्रे, समवसरणे विहारे चेत्यर्थबलाल्लभ्यते । दुन्दुभिः= भेयारख्यो देववाद्यविशेषः । “ भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमानि" त्यमरः । व्योम्नि-आकाशे, प्रतिध्वनन् अनाहत एव ध्वनितः प्रतिध्वनिमुत्पादयन् , शब्दं कुर्वन् वा, त्वत्प्रभावातिशयादिति भावः । जगति लोके, आप्तेषु = आप्तत्वेन स्वीकृतेषु, प्राज्यम् = भूरि, विशालम्,सार्वभौममिति यावत् । साम्राज्यम-चक्रवर्तित्वम् , शंसतिकथयतीव, जगति त्वमेवाऽऽतेषु सर्वमुख्यत्वाच्चक्रवर्तीति दुन्दुभिलों के प्रतिध्वनिमुत्पादयन् सूचयति । लोकेऽपि हि चक्रवर्तित्वं पटहादिध्वनिना सूच्यत इति भावः ॥७॥ प्रभोश्छत्रत्रयं वर्णयति-- तवोर्ध्वमूर्ध्व पुण्यर्द्धिक्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवनप्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥८॥ तवेति --तव, ऊर्ध्वमूर्ध्वम् उपर्युपरि, स्थितेति शेषः । शिरसीत्याल्लभ्यते । अत एव, पुण्यर्द्धिक्रमसब्रह्मचारिणी = पुण्यमेव पुण्यस्य वर्द्धिः सम्पत् सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिरूपा दर्शनज्ञानचारित्ररूपा वा, तस्या यः क्रम आनुपूर्वी, तस्य सब्रह्मचारिणी सदृशी, पुण्याविव क्रमस्य निर्मलतायाश्चाऽत्राऽपि सत्त्वादिति भावः । छत्रत्रयी-छत्राणां त्रयी त्रिभुवनप्रभुत्वप्रौढिशंसिनी-त्रिभुवनस्य यत्प्रभुत्वं स्वामित्वम् , तस्य या प्रौढिदोयमुत्कर्षश्च, तादृशस्वामित्वस्याऽन्यत्राऽभावादिति भावः । तां 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरगस्तवे पञ्चमः प्रकाशः शंसतीत्यवं शीला । कथमन्यथा छत्रत्रयी क्रमश उपर्युपरि व्यवस्थिता, अन्यत्र स्वामिन्येकस्यैव छत्रस्य भावादिति भावः । प्रभोरुपरि छत्रत्रयी त्रिभुवनस्वामित्वाऽविनाभाविनीति गूढाकूतम् ॥८॥ प्रातिहार्यश्रियोऽसाधारण्यं ध्वनयन्नुपसंहरति--- एतां चमत्कारी प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि ही! ॥९॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते वीतरागस्तवे पञ्चमः प्रकाशः ॥५॥ . एतामिति–नाथ !, एताम् वर्णितप्रकाराम् , चमत्कार करीम्-अलौकिकत्वादसाधारणत्वाच्च सहर्षविस्मयकारिणीम् , तव, प्रातिहार्यश्रियम् = चैत्यपादपादिलक्षणप्रातिहा ख्यातिशयविशेषसम्पदम् , दृष्ट्वा, ही आश्चर्यमेतद् , यत् , मिथ्यादृशः त्वदुक्तयार्थदृष्टिदरिद्रास्तीर्थान्तरीया अयथार्थदृशः, अपिना सम्यग्दृशः समुच्चयः । के न चित्रीयन्ते ? = अपि तु मिथ्यादृशोऽपि सर्व एवाश्चर्यमनुभवन्तीत्यर्थः । त्वय्यवज्ञाशीला अपि त्वदतिशयं दृष्ट्वा चित्रीयन्त इति त्वत्प्रभाव आश्चर्यम् , चमत्कारकर्याश्चमत्कारजनन न मुखप्रेक्षिततयेति भावः ॥९॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्ति कलाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमः प्रकाशः ॥५॥ 2010_ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः षष्ठः प्रकाशः तदेवमुक्ताऽसाधारणाऽतिशयादिसमन्वितेऽपि भगवति वीतरागे ये द्वेषादि समाश्रयन्ति, तान्निरस्यन्नाहलावण्यपुण्यवपुषि त्वयि नेत्राऽमृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय किं पुनढेषविप्लवः १ ॥ १ ॥ लावण्येति-भगवन् वीतरागेत्यर्थबलात्प्रकरणबलाद्वाऽनुसन्धेयम् । त्वयि, लावण्यपुण्यवपुषि-लावण्येन मुक्ताफलतरलकान्त्या, पुण्यं पवित्रितम् , विराजितमित्यर्थः । तादृशं वपुः शरीरं यस्य तादृशे सति । “ मुक्ताफलस्य च्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा । प्रतिभाति · यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते” इति लावण्यलक्षणम् । अत एव, नेत्रामृताञ्जने नेत्रस्याऽमृताञ्जनममृतघटिताञ्जनमिव, तस्मिन् । यथाऽमृताञ्जनं नेत्रसुखकारि प्रसादकं च नेत्रस्य, तथा भगवद्वपुरप्यासेचनकं दर्शनेन कृत्वा सम्यग्दृष्टिसमुत्कर्षकतया नेत्रप्रसादकं चेति भावः । तादृशे त्वयि विषये, माध्यस्थ्यम् औदासीन्यमुपेक्षितता वा, दौःस्थ्याय = दुर्गतये, “ दरिद्रो दुर्विधो दुःस्थो दुर्गतो निःस्वकीटकौ " (अ. चि. ३। ३५८।) इति । मध्यस्थो हि न भगवति रागवान् , अत एव न दर्शनोत्सुक इति तस्य न केवलं नेत्रसुखसम्यग्दृष्टिलाभहानिः, अपि तु सद्यो दुर्गतिरपि जायते । तादृशे हि माध्यस्थ्येऽविनयाऽनुषङ्गादनोपचारस्य च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः दुर्गतिनिमित्तत्वादिति हृदयम् । अपिना सूचितमर्थमाह - द्वेष. विप्लवा-द्वेषेण विप्लवो विद्रोहरूपो डमरः, असदारोपो वेत्यर्थः । अनुचिताचरणमिति यावत् । किं पुनः ?-दौस्थ्याय भवतीति कि वक्तव्यम् ? । प्रत्युत माध्यस्थ्याऽपेक्षया द्वेषविप्लवस्य महापराधतय सोऽतिदौःस्थ्यायाऽवश्यमेव स्यादितिभावः । दुःस्था एव भगवद्वेषिणः, भगवद्वेषाच्च ते तादृश एव च सदा भवेयुरिति न भगवति मध्यस्थेन द्वेषिणा वा भाव्यमिति सुहृद्भक्त्वा सूचयतीति ध्येयम् ॥१॥ ___ ननु विवेकपूर्वको द्वेषो न दौःस्थ्यायेति चेन्न । विवेकिने भगवति द्वेषवार्ताऽप्यसह्या, दूरे द्वेषविधिरित्याह तवाऽपि प्रतिपक्षोऽस्ति सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्याऽपि किं जीवन्ति विवेकिनः ॥२॥ तवेति-तव = तादृशातिशयादिविशिष्टस्य निष्कारणं सर्व जगद्धितकृतः, अपिना तादृशगुणसत्वे प्रतिपक्षस्य नितरामसम्भवा सूच्यते, नहि कोऽपि स्वहितकृतं द्वेष्टीति । प्रतिपक्षः-प्रतिकूल पक्षोऽभ्युपगमो यस्य स तादृशः, द्वेषीति यावत् । अस्ति, एतावन्मानं तु सह्यम् , भिन्नरुचि हि लोकः । किन्तु, सः तव प्रतिपक्षः, कोपादिविप्लुतः = कोपादीनां विप्लुतो व्यसनी त्वयि सदा कुपित इति यावत् । “पञ्चभद्रस्तु विप्लुतः । व्यसनी” (अ. चि. ।३।४३४) इति । अपिः प्रतिपक्षसमुच्चये 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ४७ हेतौ च । यतः कोपादिविप्लुतोऽतः प्रतिपक्षः, प्रतिपक्षस्य कोपो व्यसनमेव, व्यसनस्येव कृत्रिमत्वाद् दुस्त्यजत्वान्निष्फलत्वादनापादकत्वाच्च । अत एव तस्य कोपस्त्वयि, अन्यथा तुं तव वीतरागतया सर्वज्ञतया विश्वस्मिन्निष्कारणं वत्सलतया च त्वयि तस्य कोपकारणमत्यन्तमसम्भवीति हृदयम् । विवेकिनः-सदसज्ज्ञानवन्तः, अनया सद्य:प्रतिपादितया, किंवदन्त्या-जनश्रुत्या, अपिना साक्षातथाऽनुभवे तु कथैव केति सूच्यते । " किंवदन्ती जनश्रुति " रित्यमरः । किंजीवन्ति-कष्टेन जीवन्ति, दुःखीभवन्तीति यावत् । एषा वार्ताऽपि तेषामसह्या, द्वेषस्य तु कथैव का ? । एवञ्च त्वद्वेषिणोऽविवेकिन एव । त्वद्वेषादविवेकितैव व्यज्यते इति त्वद्वेषाद्विरमणमेव वरमिति भावः ॥ २ ॥ वस्तुतस्तु कोपादिविप्लुतो भगवतो विपक्षतया व्यवहारयोग्य एव नास्ति, समे एव विरुद्धप्रवृत्तिके विपक्षव्यवहारात् । यद्वा भगवतो विपक्षत्वेन प्रसिद्धो बौद्धादिरविवेकीति गेहेनर्दितामात्रमिति चेत्तत्राह. विपक्षस्ते विरक्तश्चेत् स त्वमेवाऽथ रागवान् । ' न विपक्षो विपक्षः किम् खद्योतो द्युतिमालिनः ? ॥३॥ - विपक्ष इति-ते, विपक्षः, विरक्तः वीतरागः, चेद् = यदि, अस्तीति शेषः । तर्हि, सः विपक्षतया निर्दिष्टो बौद्धादिः, त्वमेव = त्वदभिन्न एव, वीतरागत्वेन रूपेण कथञ्चिदभेदात् । तथा सति हि तस्य त्वविरुद्धपक्षाऽसम्भवात् । अन्यथा वीत 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः रागताविलोपापत्तेः । नहि वीतरागाणां विरुद्धमतितासम्भवः, तस्या रागमूलत्वादिति स विपक्ष एव नास्तीति भावः । अथ यदि रागवान् रागद्वेषादिसहितः, तदा, न, विपक्षः, अत्यन्तमपकृष्टत्वेन तस्य विपक्षतया व्यवहाराऽयोग्यत्वात् , समे तथाव्यवहारादिति भावः । तत्र दृष्टान्तमाह - खद्योतः =ज्योतिरिङ्गणः, “ खद्योत ज्योतिरिङ्गणः” (अ. चि. ।४।१२१३) इति । युतिमालिन:भानुमालिनःसूर्यस्य, विपक्षःकिम् ? नैव विपक्ष इत्यर्थः । नहि कोऽपि सचेताः खद्योतं द्युतिमालिनो विपक्षं कथयति, अत्यन्तः मपकृष्टत्वात् । तथा सरागवीतरागयो ने पक्षप्रतिपक्षभाव इति त्वयि प्रतिपक्षमावस्तेषामविवेकविजृम्भित एवेति भावः ॥३॥ ___ ननु तेऽपि योगिन इति प्रसिद्धाः, ततश्च साम्यमायातमिति चेन्न, तदाह स्पृहयन्ति त्वद्योगाय यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कथैव का ? ॥४॥ स्पृहयन्तीति-यदिति निर्देशे, ते प्रसिद्धाः, लवसत्तमाःअनुत्तरविमानवासिनः सप्तलवमानायुरभावेनाऽप्राप्तकेवला देवाः सर्वो स्कृष्टलौकिकस्थितयः, अपिनाऽन्यदेवादीनां तु कथैव केति सूच्यते त्वद्योगाय त्वदाचरितमागीय, स्पृहयन्ति-उत्कटतयाऽभिलषन्ति यथा झटितिमोक्षलाभ: स्यात् । योगप्रभावादेव तेषां तादृशोस्कृष्टावस्थावस्थत्वेऽपि त्वादृशयोगाऽभावादिति भावः । अब 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ४९ एव, योगमुद्रादरिद्राणाम् योगस्य त्वद्योगस्य या मुद्रा पर्यङ्कासनादिरूपा तया कृत्वा दरिद्राणां निःस्वानाम् , योगमुद्रयाऽपि वञ्चितानामिति यावत् । परेषाम् त्वद्विपक्षाणाम् , तत्कथा-तस्य त्वद्योगस्य कथा वाती, एवकारोऽप्यर्थः । काकीदृशी ?, यत्र योगमुद्राया अप्यभावस्तत्र योगवातीया अपि नाऽवसरः, कार्येण लिङ्गेन कारणाऽनुमानात् , योगलिङ्गस्य मुद्राया एव तेषामभावाद्योगाभावनिश्चयात् । एवञ्च न तस्त्वेन साम्यप्रसङ्गगन्धोऽपीति भावः ॥ ४ ॥ यतश्च तथा, अत एवत्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥५॥ - त्वामिति--त्वाम् भवन्तं वीतरागम् , उक्तहेतोस्त्वादृशस्याऽन्यस्याभावादिति भावः । नाथम् , प्रपद्यामहे-स्वीकुर्मः । त्वं मम नाथ इत्येवं स्वीकुर्म इत्यर्थः । वयमित्यर्थबलाल्लभ्यते । अन्येषामपकृष्टतया स्वयं नाथस्याऽन्वेषणीयतया नाथत्वयोग्यताऽभावादिति भावः । यश्च नाथः स एव स्तुत्य उपास्यश्वेत्याह-त्वां स्तुमः, त्वामुपास्महे । अन्येषामतदहेत्वादिति भावः । प्रपत्त्यादौ स्वेष्टसिद्धिमाह-हि-यतः; त्वत्तः त्वामपेक्ष्य, पर:-अधिकः, उत्कृष्टो वा, त्राता रक्षकः, न, अस्तीति शेषः । यत्र समोऽपि नास्ति, तत्राऽधिकस्य का वार्ता ? । सर्वोत्कृष्ट एव च प्रपत्तियोग्यः, अपकृष्टस्य हि स्वयमसिद्धतया प्रपत्ति 2010_ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः योग्यताऽभावादिति भावः । अत एव, किं ब्रूमः १, किमु. कुर्महे ?, इतोऽन्यन्न किमपि वाच्यं करणीयं चेत्यर्थः । त्वत्प्रप. त्तिस्त्वत्स्तुतिस्त्वदुपासनैव च सर्वस्वम् , नान्यत्किमप्यवशिष्यते तादृशम् , यब्रूमः कुर्महे वेति यावत् । अत्र भक्तिजनितभावा. ऽऽवेशास्त्वामित्यसकृदुक्ति न दोषाय । प्रत्युत भक्त्यतिशयसूच कतया गुण एवेति ध्येयम् ॥५॥ परकीयदोषोद्धोषणपूर्वकं भगवतो जगदुद्धरणसामर्थ्य भङ्गयाऽऽह स्वयं मलीमसाचारैः प्रतारणपरैः परैः । वञ्च्यते जगदप्येतत्कस्य पूत्कुर्महे पुरः १ ॥६॥ स्वयमिति--स्वयम् आत्मना, मलीमसाचारैः मलिनाचारः वद्भिः, तेषामाचारेषु यज्ञादिषु हिंसाधनुषङ्गादिति भावः । “मली मसं तु मलिनं कच्चरं मलदूषितमि" त्यमरः । ननु तेन तेषा मेव हानि नत्वन्यस्येति चेत्तत्राह - प्रतारणपरैः = वञ्चनपरायणैः लोकानामसत्सु प्रवर्तनोद्यतैरिति यावत् । तादृशैः, परैः त्वद्विपक्षै एतद्-दृश्यमानम् , जगदपि = लोकोऽपि, अपिना स्वसमुच्चयः वञ्च्य ते-असत्सु प्रवर्त्यते । न केवलं स्वयमेव पतन्ति, लोक मपि पातयन्तीति तेषामसह्य दौर्जन्यमिति भावः । एवं च तत्-परकीयं तादृशं वञ्चनम् , कस्य, पुरः, पूत्कुर्महे ?=विल पामः, न कोऽपि त्वत्तोऽन्यस्तद्वञ्चनादुद्धन्तु समर्थः, सर्वे ह्यन्वे परवञ्चका एवेति त्वत्पुर एव पूत्कुर्महे-'जगदुद्धरे' ति । भवाने 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः अगदुद्धारसमर्थः, अन्ये च सर्वे वञ्चका एवेति सारार्थः ॥६॥ ननु परैरपि स्वस्वदेवा ऐश्वर्यवन्तो मुक्ताश्च प्रतिपाद्यन्ते इति तिषां पुरः किं न पूत्करणीयमिति चेन्न । तेषां वस्तुतोऽसत्त्वाद्विवेकिभिरनाश्रयणीयत्वादित्याह नित्यमुक्तान् जगज्जन्मस्थेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान् को देवांश्चेतनः श्रयेत् ? ॥७॥ नित्येति-का-किम्प्रकारः, चेतनः चेतयते सञ्जानातीत्येवंशीलः, स तादृशः, सदसद्विवेकवानित्यर्थः । तादृशविवेकाऽभावे तु चेतनासत्त्वेऽपि न जडादतिरिच्यते विशेषेणेति भावः । नित्यमुक्तान् = नित्यं सर्वदैव मुक्ताः कर्मसम्बन्धरहितत्वान्मुक्ता इव । " नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्मे " ति तेरिति भावः । नतु क्षीणकर्माण इत्यर्थः । तथा सति नित्यमुक्तत्वहान्यापत्तेः, कर्म-- क्षयात्पूर्व मुक्तत्वाऽभावाऽनुषङ्गादिति ध्येयम् । नित्यमुक्ता इत्येवं प्रतिपाद्यमानानिति यावत् । ननु मुक्ताश्चेन्निर्गुणा इति तदाश्रयणे तत्पुरः पूत्करणे वा न कोऽपि लाभ इत्याशङ्कयाह-जगजन्मस्थेमभयकतोद्यमान जगतो जन्मनि सर्गे स्थेमनि स्थितौ क्षये प्रलये च कृतोद्यमान् सन्यापारान् । जगतः सृष्टिस्थितिप्रलयकरत्वेन वर्णितत्वात् , तथा च श्रुति :- " विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ते' ति । ऐश्वर्यबलादिति भावः । एवञ्च पूत्कारादिना दयावशाजगदुद्धाराय ते यतेरन्निति सम्भाव्यते इति हृदयम् । उक्तोभय 2010_3or Private & Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः विशेषणसत्त्वादेव हेतोः, वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान् = वन्ध्यायाः पुत्रो त्पादयोग्यताशून्याया यः स्तनन्धयः स्तन्यपानकर्त्ता पुत्रः, तत्प्रायाः तत्तुल्यान् । यथा हि वन्ध्यास्तनन्धयोऽसन् । यदि स्तनन्धयं न वन्ध्यात्वम्, अथ वन्ध्यात्वम्, न तस्याः स्तनन्धयः, विरौ धात् । तथा मुक्ताश्चेन्नोत्पादादिव्यापारवन्तः, कायादियोगशून्य स्यैव मुक्तत्वात् । तादृशव्यापारवन्तश्च न मुक्ता इति विरोधा दुभयगुणविशिष्टा असन्त एव । किञ्च जैननये जगतो नित्यत्वे स्वीकारात्तत्कत्रीदिवर्णनं वन्ध्यास्तनन्धयवर्णनमेवेति भावः । अ एव, तादृशान् देवान् = देवशब्देन परैराख्यातान् श्रयेत् = आश्रयेत् ?, तत्पुरः पूत्करणादिनोपासनादिना वा, न कोऽपीत्यर्थः चेतनस्य सत्सु प्रवृत्तेरिति भाव: कथञ्चित्तादृशदेवस्वीकारेऽपि तेषां रागपरतन्त्रतया न तत् इष्टसिद्धिरिति तदुपासकाः शोचनीया एवेत्याहकृतार्थ जठरोपस्थदुः स्थितैरपि दैवतैः । भवादृशानि नुवते हा हा ? देवास्तिकाः परे ॥ ८ ॥ कृतार्थी इति - देवास्तिका : - वर्णितप्रकारा देवाः सन्ती त्येवं बुद्धिमन्तः, परे = तीर्थान्तरीयाः, यद्वा देवेति सम्बोधनम् तथा च- देव != भगवन् वीतराग !, परे, आस्तिकाः = अस्ति दिष्टमिति मतिर्येषां तादृशाः, जठरोपस्थदुः स्थितैः = जठरमुदरं च उपस्थो गुह्येन्द्रियं च, उदरपदं रसादिभोगोपलक्षणम्, उपस्थप ५२ 110 11 2010_dor Private & Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाब्याख्याविभूषितः कामभोगोपलक्षम् । एवं चोभयं मिलित्वा सकलविषयोपभोगोप-- लक्षणम् । ताभ्यां दुःस्थितैरस्वस्थैः, आत्मारामत्वशून्यैरित्यर्थः । विषयपरवशैरिति यावत् । तैस्तादृशैरपि, अपिना तेषामधमत्वमनाश्रयणीयत्वं च सूच्यते । यद्वाऽपिरत्रैवकारार्थे, दैवतैः = देवैः, कृतार्थाः सिद्धप्रयोजनाः, तादृशैर्दवै ह्यर्थकामयोरेव कथञ्चिल्लाभसम्भवः, न तु मुक्तेः, तेषां स्वयममुक्तत्वात् । अल्पमतितया च परे तावतैव कृतार्थी इति भावः । अत एव, भवादृशान्= वीतरागान् मार्गप्रदर्शकतया मुक्तिप्रदान् , निहनुवते अपलपन्ति, दूषयन्ति वा । परेषामल्पमतितया मुक्ते मूल्यस्यैवाऽज्ञानादर्थकामलाभमात्रेण कृतार्थत्वाद्भवादृशः कुतोऽङ्गीकुर्वन्तु प्रशंसन्तु वेति भावः । अत एव, हा हा ! अत्यन्तं शोचनीयास्ते । निरवधिभवक्लेशवेदनाऽनुषङ्गात् । क्लिश्यमानाश्च दयालुभिरवश्यं शोचनीया इति भावः ॥ ८॥ ननु तर्हि भवद्भिः सुहृदभूत्वा प्रबोधनीयास्ते इति चेन्न । पण्डितंमन्यानां दुर्बोध्यत्वादित्याह खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च । सम्मान्ति गेहे देहे वा न गेहेनर्दिनः परे ॥९॥ स्वपुष्पेति— गेहेनर्दिनः = गेहे एव नर्दन्तीत्येवं शीलाः, नतु बहिः, तादृशप्रतिभाऽभावात्स्वपक्षे दृढतरयुक्त्यभावाच्चेति भावः । परे तीर्थान्तरीयाः, खपुष्पप्रायाम् = आकाशकुसुमसदृशम् , नित्य 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः मुक्तस्य जगत्कर्तृत्वादिरूपम् , उत्प्रेक्ष्य = अतस्मिंस्तत्त्वं बुद्धम्म परिकल्प्य । आकाशे हि कुसुमस्य बुद्धया परिकल्पनामात्रम् नतु तावता वास्तविकं तद्भवितुमर्हति । तथा नित्यमुक्तस्य जग स्कर्तृत्वादिकं बुद्धया परिकल्पितमेव, नतु तद्वास्तविकमिति सुष्ठूत खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्येति । ननु निष्प्रमाणं नोपादेयमिति कथं तदनु सारिणो जना इति चेत्तत्राह-किञ्चित-निःसारतयाऽनिर्देश्यम्, मानम्-प्रमाणम् , क्षित्यादिकं कार्य कर्तृजन्यं कार्यत्वाद्धटादिवदि त्येवं रूपम् । तस्य निःसारत्वं च क्षित्यादेः स्वमते नित्य त्वाबोध्यम् । प्रकल्प्य-उद्भाव्य, सरलजनवञ्चनार्थमिति भावः देहे गेहे वा न सम्मान्ति = स्वं कृतकृत्यं मन्यन्ते इत्यर्थः लोकोक्तिरियं स्वयं स्वश्लाघिनो विषयीकृत्येति बोध्यम् । सदुपदेश कमपि न गणयन्ति, ज्ञानलवदुर्विदग्धत्वादितियावत् ॥९॥ ___ ननु दृढतरविरुद्धसन्मानेन तेषां पक्षं निराकृत्यैव ते बोध नीया इति चेत् , तथापि ते रागात्तत्रैव प्रवय॑न्ति, दृष्टि. रागस्याऽशक्योच्छेदत्वादित्याह कामरागस्नेहरागावीपत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥ १० ॥ कामेति-कामरागस्नेहरागौ-कामात्काममपेक्ष्य राग आस क्तिश्च स्नेहमपेक्ष्य रागश्च, तौ, स्त्रीपुत्रादिविषयासक्ती इत्यर्थ । ईश करनिवारणौ ईषदल्पप्रयासेन सुखेन वा क्रियत इतीपत्करं निवास 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः निराकरणं जगदनित्यत्वाद्युपदेशादिना ययोस्ती, तादृशौ । स्त इति शेषः । तु-किन्तु, तुर्विशेषमपि द्योतयति, तदाह-दृष्टिरागः दर्शनासक्तिः, वस्तुस्वरूपाभ्युपगमरूपस्वस्वसिद्धान्तविषयको रागः, स्त्र्यादिसुन्दराङ्गादिदर्शनविषयको रागश्च, पापीयान् अतिशयेन पापः, पापजनकत्वात्कारणे कार्योपचारः । अधम इति यावत् । तत्र हेतुमाह-सताम् सबुद्धीनाम् , अपिना ज्ञानलवदुर्विदग्धानां तु कथैव केति सूच्यते । दुरुच्छेदः दुष्परिहरः, न त्वपरिहार्यः, अन्यथा सत्त्वव्याघातात् । असतान्त्वपरिहार्य एव । सन्तो हि वीतरागादिवचनमधिगम्य विवेकबलात्पूर्वाङ्गीकृतं दर्शनं स्यादिसुन्दराङ्गा विदर्शनादिकं च प्रयस्य त्यजन्त्यपि, असन्तस्तु हठाग्रहितयाऽल्पमतितया ज्ञानलवदुर्विदग्धतया च वासनापराधीनतया च सन्मार्ग बोव्यमाना अपि पूर्वाङ्गीकृतदृष्टिरागं त्यक्तुं न समर्था भवन्तीति निकृष्टतया दृष्टिरागस्येति सुष्ठूक्तम् दृष्टिरागस्तु पापीयानिति ॥१०॥ ननु ते देवा अभिरूपाः, अत एव तेषां मनोज्ञा इति चेत् , तत्सर्वं वीतरागे । अन्येऽप्यसाधारणा बहव उत्तमगुणा इति ततः पराङ्मुखतायां तेषां मौढ्यमेव हेतुरित्याह- प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढं मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥ - प्रसन्नमिति- आस्यम्=मुखम् , उपलक्षणत्वात्सर्वाङ्गम् । समम्-निमर्लम् , उपलक्षणत्वात्सर्वाङ्गं सर्वसुलक्षणसत्त्वाद् हृदया 2010_3or Private & Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः वर्जकमित्यर्थः । ननु सुन्दरोऽपि पक्षपाती जनैरुपेक्ष्यते इति शङ्कानिराकरणायाह-दृशौ नेत्रे, वस्तुतत्त्वपरिच्छेदसाधने नयभनौ च, मध्यस्थे = रागद्वेषसम्पर्कशून्यत्वादुपकारिण्यपकारिणि च समे, स्यात्कारलाञ्छितत्वादनेकान्तात्मकौ च । वचः-प्रवचनम् , लोकन म्पृणम् लोकप्रीतिजनकम् , हितत्वात्तथ्यत्वाच्चेति भावः । इति= उक्तप्रकारेण, बाढम् अत्यर्थम् , एकमपि पर्याप्तम् , त्रयसत्त्वे तु बाढम् , अन्यत्र त्वेकमपि दुर्लभमिति भावः । प्रीतिपदे अनुः रागविषयतायोग्यतावति सति, अपिना तादृशस्यात्यन्तमनुपेक्षणी यत्वं सूच्यते । त्वयि-वीतरागे विषये, मूढाः हेयोपादेयविवेक विकलाः, उदासते-उपेक्षन्ते, यतो मूढाः, अत उदासते । विवे किनस्तु परेषामीदृशवैशिष्टयाभावात् त्वामेवाश्रयन्त्येवेति भावः ॥११॥ ननु न केवलं वीतराग एवाऽऽप्तः, स एवाऽऽश्रयणीयः, किन्त्वन्येऽप्याप्ताः । किञ्च वीतराग आश्रयणीय एवेति न राज ज्ञाऽस्तीति चेत् , रागिणां तेषां न कदाप्याप्तत्वमित्याह तिष्ठेद्वायु ईवेदद्रिवलेजलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागायै नप्तिो भवितुमर्हति ॥१२॥ इति कलिकालसर्वज्ञहेमचन्द्राचार्यविरचिते श्रीवीतरागस्तवे षष्ठः प्रकाशः ॥६॥ - तिष्ठेदिति-क्वचित कदाचित् , कालस्याऽचिन्त्यप्रभावत्वा दिति भावः । वायुः-वाति सदा गच्छतीत्येवं शीलः, स तादृशः 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4)* कीर्तिकलाप्याख्याविभूषितः ५७ सदागतिः पवनः । तिष्ठेत स्थिरो भवेत् , स्वप्रवृत्तिनिमित्तमपि त्यजेदिति सम्भाव्यते, कुतोऽपि हेतोः कदाचिद्देवादिभिस्तद्गतिस्तम्भस्य शक्यत्वादिति भावः । तथा, अद्रिः न द्रवतीति तादृशः; पर्वतः; द्रवेत-शीनघृतादिवत्कालमाहात्म्याद्विलक्षणतेज:संयोगादिना द्रवीभावं गच्छेत् , किञ्च' जलम्-सलिलम् , अग्निविध्यापनसाधनत्वेन प्रसिद्वम् , अपिः समुच्चये । ज्वलेत-इन्धनतां गच्छेत् , अग्निदीपनमेव भवेत् । पुद्गलानां परिणामस्याऽनियतत्वाद्वियुदादीनामबिन्धनत्वप्रसिद्धेश्चेति भावः । तथापि एतेषां कार्याणां सम्भावनायामपि, रागाद्यैः-रागद्वेषादिभिः , ग्रस्त: कवलितः, रागादिपर. मश इत्यर्थः । आप्त: यथार्थवक्ता, भवितुं नार्हति = आतत्वे वीतरागत्वस्यैव तन्त्रत्वात्तद्विषये कालादिप्रभावस्याऽप्रसरात् । एवं च तादृशराजाज्ञाऽभावेऽपि वीतराग एवाऽऽश्रयणीयोऽवशिष्यते इति भावः ॥१२॥ .. इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां षष्ठः प्रकाशः ॥६॥ सप्तमः प्रकाशः षष्ठप्रकाशे परेषां जगत्कर्तृत्वाऽऽप्तत्वाद्यभावे सामान्यतो हेतु. रुक्तः । सम्प्रति तेषु तद्योग्यताऽपि नास्तीत्याह-- 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्रीवीतरागस्तवे सप्तमः प्रकाशः धर्माधर्मी विना नाऽङ्ग विनाङ्गेन मुखं कुतः १ । मुखाद्विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथम् ? ॥ १॥ धर्मेति-धर्माधर्मी धर्म:पुण्यं कर्म, स च, अधर्मः पाएं कर्म, स च, तौ, विना, अङ्गम् शरीरम् , न, कार्मणशरीर स्यैव सर्वशरीरमूलत्वात्तदभावे औदारिकादेरसम्भवात् । तत्र कर्म स्वीकारे च नित्यमुक्तत्वमेव विहन्येतेति भावः । नन्वेतदिष्यब एव, यदुक्तम्-" अशरीरं वाऽवसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत.” इति चेचिरं जीव, किन्तु, अङ्गेन विना, मुखम् वदनम् , कुतः १ न कुतोऽपीत्यर्थः । शरीरसत्त्व एव तदवयवतया मुखसम्भवः शरीरं विना मुखस्य कल्पयितुमप्यशक्यत्वात् , कुत्राऽप्यप्रसिद्धेः एवं च शरीराऽभावे निराश्रयतया मुखं न स्यादेवेति भावः ननु नैतत्किञ्चिन्नवीनमुच्यते इति चेत् , एवमेतत् , किन्तु, मुखान द्विना, वक्तृत्वम् वचनयोग्यता, न, शब्दस्य वायुताल्वाद्यभिः घातजन्यतया मुखाभावे वर्णपदवाक्यात्मकशब्दवक्तृत्वयोग्यताया अप्यभावात् । नहि कोऽपि मुखं विना वाद्यात्मकं शब्दं वदन दृष्टः श्रुतो वेति भावः । ननु ततः किमित्याह-तत-तस्मान्मुः खाद्यभावरूपाद्धेतोः, परे = ईश्वरत्वेनाऽभिमता देवाः, कथम् = केन प्रकारेण, शास्तार: उपदेष्टारः, वेदादीनां भवितुमर्हन्तीतिशेषः । नैव भवितुमर्हन्तीत्यर्थः । आप्तश्च यथार्थवक्ता, परेषां च नित्यमुक्ततयाऽशरीरतया वचनसाधनाऽभावेन वक्तृत्वस्यैवाऽभावाद्यथार्थ वक्तृत्वं दूरापेतमेव । एवञ्च न केवलं तेऽनाप्ताः, किन्तु योग्य 2010_ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ताया अभावादाप्तत्वकथाऽवसरोऽपि तेषु नास्तीति भावः ॥१॥ ननु क्षित्यादिकार्याणामन्यथाऽनुपत्त्येश्वरस्य तत्कर्तृत्वस्वीका-- राऽऽवश्यकतया वेदादिवक्तृत्वमप्यन्यस्याऽसम्भवात्तस्यैवेति चेन्न । अशरीरत्वाज्जगत्कर्तृत्वयोग्यताया अपि तत्राऽभावादित्याह अदेहस्य जगत्सर्गे प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किञ्चित् , स्वातन्त्र्यान्न पराज्ञया ॥२॥ अदेहस्येति-अदेहस्य-नित्यमुक्ततयाऽशरीरस्येश्वरस्य, जगत्सर्ग-जगतः सर्गे सर्जने, तन्निमित्तमित्यर्थः । प्रवृत्तिः इच्छा यत्नो वा, अपिनाऽऽरम्भादिसमुच्चयः ॥ नोचिता-न योग्या, प्रवृत्तेः कायादियोगरूपत्वादीश्वरस्य च तदभावात्प्रवृत्तियोग्यताऽपि तत्र नास्ति । एतेन क्षित्यादेः कार्यत्वाऽनुमाने शरीराऽजन्यत्वेन सत्प्रतिपक्ष इति सूचितम् । ननु तस्यैश्वर्यशालितया तद्वशादेव तेन जगत्सर्ग इति न तत्र शरीराद्यपेक्षितमितिचेत्तत्राह-किञ्चित् किमपि, प्रयोजनम् = अभिलषणीयम् , इष्टमित्यर्थः । न च-नैव, अस्तीश्वरस्येति शेषः । मुक्तत्वेन सिद्धप्रयोजनत्वात्प्रयोजनं विना प्रवृत्तेरभावात्तां प्रतीष्टसाधनताज्ञानस्य कारणत्वादिति भावः । नन्वनीहमानोऽपि पराज्ञया प्रव मानो दृष्ट इति तस्याऽपि तथाप्रवृत्तिरिति चेत्तत्राह-पराज्ञया - परस्य तद्भिन्नस्याऽऽज्ञया प्रेरणया, राजादेराज्ञया भृत्यादेरिवेति भावः । न, प्रवृत्तिरिति शेषः । तत्र हेतुमाह-स्वातन्त्र्यात् = ईश्वरस्य स्वाधीनत्वात् । अन्यथेश्वरत्वमेव व्याहन्येत, पराज्ञाऽभावे कार्यविपत्तिश्चाऽऽपद्यतेति भावः ॥२॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे सप्तमः प्रकाशः ननु मुक्तस्य स्वतन्त्रस्य तस्य सतो विलक्षणैश्चर्यशालितया प्रयोजनाधभावेऽपि क्रीडयैव तत्र प्रवृत्तिरितिचेत्तदपि नेत्याह--- क्रीडया चेत्प्रवर्तेत रागवान् स्यात्कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तहि सुख्येव सकलं सृजेत् ॥३॥ क्रीडयेति--चेत् = यदि, क्रीडया = प्रयोजनविशेषमनुद्दिश्य विनोदमात्रेण, प्रवर्तेत, जगत्सर्गे इत्यनुषज्यते । तर्हि, कुमारवत् बालकवत् , रागवान्-आसक्तः, स्यात्-सम्भाव्येत । कुमारो हि प्रयोजनाद्यभावेऽपि क्रीडया किश्चिद्वालुकागृहादिनिर्माणे प्रवृत्त स्तत्राऽऽसक्तो भवति । कथमन्यथाऽन्येन विन्ने कृते सति तस्याड प्रीतत्वस्य सर्वेषामनुभवः ? । एवमीश्वरेऽपि तथा सत्यासक्तिसम्भा वनया मुक्तत्वमेव सन्दिग्धं स्यादिति भावः । ननु यथा कृत कृत्यस्याऽपि त्वदभिमतस्य वीतरागस्योपदेशादौ कृपया प्रवृत्तिः, तथे श्वरस्याऽपि तयैव सा स्यादितिचेत्तदप्यसमञ्जसमित्याह-अथ यदि कृपया जीवकृपापरवशः, जीवाऽनुग्रहकाम्ययेति यावत् । सृजेता रचयेत् , जगदित्यर्थात्प्रकरणाद्वा लभ्यते । तर्हि -तदा, सकलम्भ सर्वजीवजातम् , सुख्येव, नतु दुःख्यपीत्यवधारणफलम् । सृजेत्। कृपया हि कोऽपि सुखी क्रियते, नतु दुःखीति भावः ॥३॥ न च कोऽपीह लोके सुखी, प्रत्युत दुःख्येव सर्वो लोक इति कुतस्तस्य कृपया प्रवृत्तिर्मन्यतामित्याह-- 2010_ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिक्लेशविह्वलम् जनं तु सृजतस्तस्य कृपालो का कृपालुता ? ॥४॥ दुःखेति-दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिक्लेशविह्वलम्= दुःखमिष्टवियोगाऽनिष्टसम्प्राप्तिव्याध्यादिजनितः शोकः, तञ्च, दौर्गत्यं दारिव्यम् , तच्च, दुर्योनि र्दु दुःस्थिता नारकतिर्यगादिका पीडाबहुला प्रसिद्धा योनिः, साच, जन्मादिक्लेशो जन्मजरामरणादिरूपा बाधा, स च, तैर्विह्वलो विक्लवस्तं, तादृशम् , दुःखादिपरिगत-- तयाऽस्वस्थमित्यर्थः । “विक्लवो विह्वलः" (अ. चि. ३।४४८) इति । जनम् उपलक्षणत्वाज्जीवम् , तुर्विषादे । दुःखिनमपि कोऽपि सुजतीत्येतया वातया विषण्णो भवामीत्यर्थः । सृजतः रचयतः, तस्य कृपालो कृपालुतया प्रसिद्धस्येश्वरस्य । एतेनोपहासोऽपि ध्वन्यते, दुःखदोऽपि चेत्कृपालुस्तर्हि को नाम निर्दयो भवेत् । । का कृपालुता ? -न कापि कृपालुतेत्यर्थः । कृपा ह्यन्यसुखार्थप्रवृत्तिजनको मनोवृत्तिविशेषः, दु:खिसर्जनेन तु तस्य तत्राऽभाव एवाऽनुमीयते । एवं च यदि स कृपालुस्तर्हि तत्र कीदृशी कृपालुसेति वक्तव्यम् । प्रसिद्धस्य कृपालुत्वस्य तत्राऽसिद्धेः । एवञ्च बदि स वस्तुतो जगत्का स्यात्तर्हि नितरां क्रूर एवाऽनेन कार्येण स्यादिति महानुपप्लवस्तस्य जगत्कर्तृत्वस्वीकारेः समापततीत्या-- . . ननु स कृपालुरेव, कथमन्यथा सुखं दुःखं वा स्वकर्मानु 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीवीतरामस्तवे सप्तमः प्रकाशः कूलमेव जीवस्य ददाति, नोनाधिकमिति चेत्तत्राह कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किमनेन शिखण्डिना ? ॥५ __ कर्मेति-सः ईश्वरः, यदि, कर्मापेक्षः जगत्सर्गे कर्म पेक्षते इति सः, तादृशः । तस्य जगत्सर्गे कर्माऽपेक्षाकारणमिति चेत्तर्हि, अस्मदादिवत् वयमादिर्येषां तेषां संसारिजीवानामि न खतन्त्रः = न स्वाधीनः । जीवो हि कर्मापेक्षया सुखदुः भुनक्ति, ईश्वरश्च तदपेक्षयैव ते ददातीति द्वयोरपि कर्मसापेक्षत्वं त्परतन्त्रता । न कस्य तदपेक्षत्वे परतन्त्रताऽन्यस्य च स्वतन्त्रत युक्तं प्रतिपादयितुम् ? । तदेव हि स्वातन्त्र्यं नाम यदितरा नपेक्षत्वमिति भावः । ननु कर्मापेक्षत्वमात्रेणाऽस्वातव्यं तत्रेय एव सुखदुःखादिदाने, सर्जने तु स्वातन्त्र्यमवशिष्यत एवेति चें त्राह-कर्मजन्ये=कर्मनिष्पाद्ये, वैचित्र्ये-सुखदुःखादिवैविध्ये, स्वी इति शेषः । चो हेतौ । यतः कर्मजन्यं वैचित्र्यमतः, अनेन प्रस्तुतेन, शिखण्डिना=शिखण्डिनामराजपुत्रतुल्येन, किम् ? किमपि प्रयोजनमित्यर्थः । कर्मणैव चेजन्ममरणादिसर्वविधकार्य जार्य न कापि हानिः । ईश्वरं स्वीकृत्याऽपि कर्मणोऽवश्यापेक्षणीय तदेवैकं मन्यताम् , ईश्वरश्च प्रयोजनाऽभावात्त्यज्यतामिति भाव कापेक्षे हि सुखादावीश्वरः शिखण्डितुल्यो जायते । यथा । महाभारते कथा-अर्जुनभीष्मयो युद्धे दुपदराजपुत्रं शिखण्डिन 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाष्याख्याविभूषितः कृत्वा तत्पृष्ठतः स्वयं स्थित्वाऽर्जुनो भीष्मं प्रहरति स्म । भीष्मस्तु प्राग्जन्मस्त्री शिखण्डी स्त्रीषु प्रहारस्याऽनुचितत्वान्मा निहन्यतामिति न त्य प्रतिकरोति स्मेत्यतोऽर्जुनेन भीष्मो निपातितः । सुखादौ च न कोऽपि भीष्मसदृशः प्रतिकता, यदर्थमीश्वरं शिखप्डिवन्मध्येकृत्वा कर्मार्जुनः सुखादिकार्य कुर्यादिति कर्मणा स्वयमेव सर्व क्रियतामिति न शिखण्डितुल्येनेश्वरेण प्रयोजनमिति हृदयम् ॥५॥ ननु जगत्कर्तृत्वादिकं स्वभाव एवेश्वरस्य, स च न पर्यनुयोगमर्हतीति चेत्तत्राह अथ स्वभावतो वृत्तिरविता महेशितुः । परीक्षकाणां तद्देष परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥ अथेति-अथ यदि, महेशितुः = जगजननसाधनाऽनितरसाधारणैश्वर्यशालिनः परमेश्वरेतिख्यातस्य, स्वभावतः तथास्वाभाव्यादेव हेतोः, नतु प्रयोजनादितः । वृत्तिः-जगत्सर्गादौ प्रवृत्तिः, सा च, अविता सुखिनमेव सकलं किं न करोति, दुःखिनं किं करोतीत्यादिरूपेण वितर्कमूहापोहं नाऽर्हतीत्यर्थः । स्वभावस्यैवाऽसूर्यनुयोज्यत्वेन तज्जन्यप्रवृत्तेः सुतरामपर्यनुयोज्यत्वात् । जलाग्न्यादेस्थ ऊर्ध्वगमनादिवदिति भावः । एवं तर्हि भवान् यद्यत्प्रतिविदयति, तत्तच्छृद्धामाधाय स्वीकरणीयम् , नतु परीक्षणीयम् । सर्वत्रैव तथास्वभावत्वस्येश्वरवत्प्रतिपादयितुं स्वातन्त्र्यान्निराबाध-- त्वाच्च स्वभावस्याऽपर्यनुयोज्यत्वादिति परीक्षकास्तूष्णीमेवाऽऽसता 2010_ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीवीतरागस्तवे सप्तमः प्रकाशः मित्यायातमित्याह - तर्हि - ईश्वरस्य तथास्वभावत्वप्रतिपादनानन्तर काले, एषः - ईश्वरस्य तथास्वभावत्वप्रतिपादनम्, परीक्षकाणाम् : साधकबाधकतर्फे वस्तुतत्त्वनिर्णयप्रवृत्तानाम्, कृते इति शेषः । परी क्षाक्षेपडिण्डिमः = परीक्षाया यः क्षेपः समापनं तस्य डिण्डिम पटह:, उपलक्षणत्वात्तद्वादनमित्यर्थः । लोके हि कस्याश्चित्क्रियाया प्रारब्धाया डिण्डिमवादनेन समाप्तिः सूच्यते । तद्वदीश्वरस्य तथा स्वभावत्वप्रतिपादनं परीक्षाप्रवृत्तेः समाप्तिसूचनम् । स्वभावस्य परीक्षाs नर्हत्वात् । एवं च श्रद्धामात्रत एव तत्प्रतिपत्तव्यमिति प्रेक्षा वतां तदनुपादेयमेव । ईश्वरस्य तस्य जगत्कर्तृत्वादेश्च तर्कीs सहत्वादिति गूढाकूतम् ॥ ६ ॥ , तदेवं पराजितान् परानाश्वासयितुं प्रकारान्तरेण तत्पक्ष समर्थयन्नाह - सर्वभावेषु कर्तृत्वं ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥ ७ ॥ सर्वेति – यदि, सर्वभावेषु =जगद्विषये, कर्तृत्वम् = सर्गः ज्ञातृत्वम् = ज्ञानरूपम्, सम्मतम् = अनुमतम् भवत ईश्वरस्थ जगत्कर्तृत्ववादिन इति शेषः । अपूर्वोत्पादकत्वादिरूपस्योक्तरीत्या तर्की " जैनानामि 1 सहत्वाद्धेतोरिति भावः । तदा तत् नः अस्माकम्, मतम् - इष्टम्, यतः, सर्वज्ञाः = त्रैकालिकसर्वद्रव्यसर्वपर्ययज्ञातारः मुक्ताः = साकल्येन कर्मक्षयाच्छरीरसम्बन्धरहिताः सिद्धा इति 2010_dor Private & Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलान्याख्याविभूषितः - यावत् । चः पुनरर्थे भिन्नक्रमः । कायभृतः शरीरिणः, तीर्थङ्करा इति यावत् । अपिनाऽशरीरिसमुच्चयः । सन्ति । एतेन मुक्तानामशरीरतया प्रवचनयोग्यताया उक्तरीत्याऽभावादागमाप्रामाण्यशङ्काया अवसरो निरस्तः । शरीरिणः सर्वज्ञस्य प्रवचनयोग्यता:नपायादिति ध्येयम् । एतावता च ज्ञातृत्वपरतया कर्तृत्वमेव समर्थितम् , स्थितिप्रलयौ जगतस्त्वद्याप्यसमर्थितावेवेति परसम्मतं सृष्टिस्थितिप्रलयकरत्वमीश्वरस्याऽनुपपन्नमेवेति हृदयम् ॥७॥ तदेवं परान्निरस्य वीतरागप्रसादादेवाऽप्रामाणिकवादपरित्यागो यथार्थवादानुरागश्च सम्भवतीति भक्तिभरहृदयतया स्तुवन्नुप-- संहरति सृष्टिवादकुहेवाकमुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ ! प्रसीदसि ॥८॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिते श्रीवीतरागस्तवे सप्तमः प्रकाशः ॥७॥ ____ सृष्टीति-इति प्रतिपादितप्रकारेण, अप्रमाणकम् = प्रमाणरहितम् , तोऽसहिष्ण्विति यावत् । अत एव, सृष्टिवादकुहेवाकम्-सृष्टेर्जगतः सर्गस्येश्वरकर्तृकस्य यो वादः प्रतिपादनं स्वीकारो वा, तत्र कुहेवाकं कदाग्रहम् । यद्धि न परीक्षाक्षमम् , तस्य प्रतिपादने स्वीकारे वा कदाग्रहं विना नाऽन्यो हेतुर्भवितुमर्हतीति भावः । उन्मुच्य परित्यज्य, ते तादृशा जनाः, त्वच्छा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः सने त्वदाज्ञायाम् , आगमप्रतिपादिततत्त्वे इति यावत् । रमन्ते सानुरागं प्रवर्तन्ते । नाथ !, येषाम् यादृशानाम् जनानाम् , शे षष्ठी । येषु विषये इत्यर्थः । प्रसीदसि = उपदेशादिनाऽनुन करोषि, न विना त्वत्प्रसादं यथार्थवस्तुष्वनुरागः सम्भवति, अन्य यथार्थवक्तुरभावादिति भावः । एतेन त्वच्छासनमेव प्रमाणमन्न दप्रमाणमिति स्वस्य सम्यग्दृष्टि लन्यते ॥८॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीति कलाख्यायां व्याख्यायां सप्तमः प्रकाशः ॥७॥ अष्टमः प्रकाशः सप्तमप्रकाशे परवादमप्रामाणिकं प्रतिपाद्याऽधुना वीतरागोर जगत उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वं प्रमाणयन्नाह सत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे कृतनाशाऽकृतागमौ । स्यातामेकान्तनाशेऽपि कृतनाशाऽकृतागमौ ॥१ सत्त्वस्येति-सत्त्वस्य = सतो भावः सत्त्वम् , वस्तुतत्त मित्यर्थः । तस्य, एकान्तनित्यत्वे-एकान्तेनाऽयोगव्यवच्छेदप्रकारे सन्नित्यमेवेत्येवंरूपेणेत्यर्थः । नित्यत्वे = नित्यरूपत्वे, अप्रच्युता नुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वे इति यावत् । एकान्तनित्यत्वं सत्त्वमि सतो लक्षणस्वीकार इति सारार्थः । सतीति शेषः । तथाचं क्तम्--" नासतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सत" इति । किरि 2010_3or Private & Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः यपेक्षायामाह-कृतनाशाऽकृतागमौ–कृतस्य नाशोऽकृतस्याऽऽगमश्च, । स्याताम् आपद्यताम् । एकान्तनाशे-एकान्तेन नाशोऽनेत्यत्वम् , तस्मिन् स्वीकृते सति, 'यत्सत्तत्क्षणिकं सत्त्वादि' त्यनुमानबलेनैकान्ताऽनित्यत्वं सतो लक्षणमित्येवंस्वीकारे सति, अपिनैकान्तनेत्यत्वसमुच्चयः । किमित्याह-कृतनाशाऽकृतागमौ, स्यातामिति बध्यते । अयंभावः-घटादि वस्तु यद्येकान्तेन नित्यं स्यात्तर्हि तस्य कुम्भकारादिकर्तृकमृदानयनादिकर्मणो नाशः, तत्फलस्य घटाइनित्यतया पूर्वत एव सत्त्वान्नैष्फल्यात् । अत एव च मृत्पिण्डाहेष्वकृतस्यैव घटादेरागमो लाभः स्यात् , घटादे नित्यतया मृत्पिण्डाअवस्थायामपि सत्त्वात् । द्वयञ्चाऽनुभवविरुद्धमित्येकान्तनित्यत्वपक्षो 1. कुक्षीकरणीयः । एवमेकान्ताऽनित्यत्वपक्षेऽपि प्रथमक्षण एव घटानाश इति द्वितीयक्षणे लभ्यमानः सोऽकृत एवेति कृतनाशाऽतागमावत्राऽपि पक्षे । एवञ्चाऽगत्योत्पादव्ययध्रौव्यरूपमेव वस्तुस्वमवगन्तव्यम् । ततश्च न कृतनाशाऽकृतागमौ । घटादेः पर्यायपणोत्पादविनाशयोर्मुदादिद्रव्यरूपेण ध्रौव्यस्य च स्पष्टमनुभावात्कृत शाऽकृतागमयोरभावादिति । अत्राऽग्रे च दोषाणां पुनरुक्तिः प्रसिव्यर्थोऽसमाधेयतासूचनार्थश्च । लोकेऽपि हि विषयदायीय तदेव पुनः पुनरुच्यते इत्यवधेयम् ॥१॥ एवमेकान्तवादे सामान्यतो दोषमुक्त्वाऽऽत्मनि कृतत्वस्थ नाऽप्यस्वीकारात्तद्विषये दोषान्तरं प्रदर्शयन्नाह ----- 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्रीषीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः - आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान्न भोगः सुखदुःखयोः । एकान्ताऽनित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदुःखयोः ॥२ आत्मनीति - आत्मनि, एकान्तनित्ये = जीव एकान्ते नित्य इतिवादाऽभ्युपगमे सति, सुखदुःखयोः, भोगः = अनुभव न स्यात् । एकान्तानित्यरूपे, आत्मनीति विशेष्यं सम्बध्यते स्वीकृते सतीति शेषः । अपिनकान्तनित्यपक्षसमुच्चयः । सुरु दुःखयोर्मोगः, न, स्यादिति शेषः । अयमाशयः-यद्यात्मैकान्ते नित्यस्तर्हि स सर्वदाऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपः स्यात् । तत्त्व स्यैव नित्यपदार्थत्वात् । एवं च तेन तादृशेनाऽऽत्मना सुखि दुःखिना वा केनाऽप्येकेनैव प्रकारेण भवितव्यम् । उभयस्य त स्वीकारे स्वभावभेदापत्त्या नित्यत्वव्याघातात् । नहि स येन स्वभ वेन सुखमनुभवेत्तेनैव दुःखमपि, तथा सति सुखदुःखयोमैदस्य दुरुपपादत्वात् । यदुक्तम्-" अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा, यदि रुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चे" ति । तयोः सममनुभवोऽप्यनेने दोषेण निरस्तः । अनुभवानामयोगपद्याच्च । किञ्च तथा सा द्वयोविरोधितयैकेनाऽपरस्य परस्परं पराभवे द्वयोरेवाऽभावान्नैयायिष सम्मता मुक्तिरेवाऽऽत्मनः सर्वदाऽऽपद्येत । सुखं दुःखं चाऽऽत्मा नुभवतीति सर्वाऽनुभवसाक्षिकम् । तस्मान्नैकान्तेन नित्य आत्मा नाऽप्येकान्तेनानित्यः । उक्तदोषस्याऽत्राऽपि पक्षे दुःसमाधेयत्वात् आत्मनस्तत्क्षणं नाशात्तेनैकेन स्वक्षणे सुखं दुःखं वा किमप्येकमेवाऽनुम येत, न तुभयम् । न चाऽपरक्षणे तद्भोगः, तथासति कतिपयक्षणस्थ amiric... Aai... - 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः यितयैकान्ताऽनित्यत्वभङ्गापत्तेः । पूर्वस्य त्वात्मनोऽपरक्षणे क्षणिकत्वादसम्भवात् । एवञ्चैकत्रात्मनि तयो भॊगोऽनुभवसिद्धो विलुम्पत्येव । युगपत्तयोरनुभवश्वाऽत्रापि पक्षे उक्तप्रकारेणैव न सम्भवति । विरोधिगोरेकत्रैकदा युगपदनवस्थानात् । अन्यथा विरोध एव दुरुपपादः स्यात् । किञ्चात्मनः क्षणिकत्वे तस्य स्वोत्पत्तिमात्रव्यग्रतया कथं सुखस्य दुःखस्य वाऽनुभवो भवेत् ? । इति ॥२॥ सुखदुःखानुभवाऽपलापे चाऽनर्थपरम्परामाह---- पुण्यपापे बन्धमोक्षौ न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ नाऽनित्यैकान्तदर्शने ॥३॥ पुण्येति-नित्यैकान्तदर्शने = आत्मा नित्य एवेत्येवमात्मविषयनित्यैकान्तवादे, पुण्यपापे, बन्धमोक्षौ, न । आत्मनः सम्भवतीति शेषः । अनित्यैकान्तदर्शने = आत्माऽनित्य एवेत्येवमात्मविषयाऽनित्यैकान्तवादे । पुण्यपापे, बन्धमोक्षौ, न । तथाहिनित्योऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूप इति तत्र सुखदुःखयोरुक्तरीत्याऽभावे तत्कारणभूतयोः पुण्यपापयोरप्यभावः । कार्याऽभावेन कारणाभावानुमानात् । एवञ्च तयोरभावे बन्धोऽपि न स्यात् , आत्मनः पुण्यपापसम्बन्धस्यैव बन्धपदार्थत्वात् । तदभावे च कुतो मोक्षः । 'तस्य बन्धपूर्वकत्वात् । एवमनित्यैकान्तदर्शनेऽप्युक्तरीत्याऽऽत्मनः सुखदुःखाभावात्पुण्यपापबन्धमोक्षाभावः । एवञ्च लोकपरलोकादिसर्वापलापः प्रसज्यत इति हृदयम् ॥३॥ 2010_3or Private & Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः ननु नहि कार्याऽभावात्कारणाऽभाव इति व्याप्तिः, अयो गोलकादौ धूमाऽभावेऽपि वह्निभावात् । एवञ्च सुखाद्यननुभवे पुण्यादिसत्त्वान्नोक्तदोषपरम्परा । नाऽपि कृतनाशादिः, घटादेनित्य त्वेऽपि तदाविर्भावादी कृतस्योपयोगात् । अत एव नाऽकृताग मोऽपि, तस्य कृतनाशोत्तरभावित्वात् । एकान्ताऽनित्यत्वेऽपि । पूर्वपूर्वक्षणानां सदृशापरापरक्षणोत्पादकत्वादुक्तदोषाऽनवकाशादिदि चेन्न, तदाह क्रमाक्रमाभ्यां नित्यानां युज्यतेऽर्थक्रिया नहि एकान्तक्षणिकत्वेऽपि युज्यतेऽर्थक्रिया नहि ॥४॥ क्रमेति--हि-यतः, नित्यानाम्=नित्यत्वेनाऽभ्युपगमविषया णामात्मादिपदार्थानाम् , क्रमाक्रमाभ्याम् क्रमः पूर्वापरीभावः, र च, अक्रमो योगपद्यम् , स च, ताभ्याम् , कृत्वा, अर्थक्रियाप्रयोजनसम्पादनम् । कार्यकरणमित्यर्थः । न. युज्यते-घटते. एकान्तक्षणिकत्वे = एकान्ताऽनित्यत्वे, अपिनैकान्तनित्यसमुच्चयः पदार्थानामित्यर्थबलाल्लभ्यते । हि-यतः । अर्थक्रिया, न, युज्यते क्रमाऽक्रमाभ्यामितीहाऽपि सम्बध्यते । अयम्भावः--पुण्यपापे शुभा शुभक्रियाजन्ये कर्मणी, नित्यस्य चाऽऽत्मन एकरूपतया शुभाऽशुः भक्रियाऽसम्भवः । तथाहि स क्रमेण क्रियां कुर्यादक्रमेण वा ? । न तावत्क्रमेण, तथासति स्वभावभेदस्य दुर्वारतया नित्यत्वभङ्गा पत्तेः । स्वभावाऽभेदे च क्रियाभेदो दुरुपपादः । पुण्यपापे च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः भिन्नक्रियाजन्ये, अन्यथा तयोर्भेदो न सिद्ध्येत् । कार्यभेदे कारणभेदस्य तन्त्रत्वात् । नाऽप्यक्रमण, एकदा विरुद्धानेकस्वभावस्यैकत्राऽसम्भवेनैकदैव विरुद्धाविरुद्धसकलकार्यकरणाऽसम्भवात् । एकेन स्वभावेन विरुद्धनानाक्रियाकरणासम्भवस्योपपादितत्वाच्च । तथा घटादेरप्येकरूपत्वे क्रमाक्रमाभ्यामुक्तरीत्यैवाऽर्थक्रिया न सम्भवति । तथा पूर्वस्मिन्नेव क्षणे सकलार्थक्रियाकरणादुत्तरस्मिन् क्षणे पदार्थानां निष्क्रियत्वापत्तिश्च । ततश्चाऽर्थक्रियाकारित्वमेव च वस्तुलक्षणमिति तदभावे जगतोऽवस्तुत्वप्रसङ्गश्च । अनित्यैकान्तेऽपि क्रमाऽक्रमाभ्यामर्थक्रिया न युज्यते । क्षणिकानामपरस्मिन् क्षणेऽवर्तनात्क्रमाऽसम्भवात् । अक्रमेण चार्थक्रियाकारित्वस्योक्तरीत्यैवाऽसम्भवात् । एवञ्च पुण्यपापाऽपलापमुखेन लक्षणाऽभावाच्च वस्तुमात्राऽपलापप्रसङ्ग इति हृदयम् ॥४॥ एवञ्चाऽगत्या वीतरागदर्शित एवोपायः समाश्रयणीय इत्याहयदा तु नित्यानित्यत्वरूपता वस्तुनो भवेत् । यथाऽऽत्थ भगवन्नैव तथा दोषोऽस्ति कश्चन ॥५॥ यदेति - भगवन् ! ऐश्वर्यशालिन् ?, भगोऽस्यास्तीति 'तत्सम्बोधने । यदक्तम्-" ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य तपस:श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणे' ति । यथा येनप्रकारेण, आत्थ-दिशसि, त्वमिति शेषः । तथा तेन प्रकारेण । यदा, तुर्विशेषे, तदेवाह-वस्तुनः आत्मादिसकलपदार्थस्य, नित्यानित्यत्वरूपता = अनेकान्तात्मकता, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकतेति यावत् । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः भवेत् स्वीक्रियेत । तदा कश्चन कोऽपि कृतनाशादिः, दोषा= आपत्तिः, नैव, सम्भवतीति शेषः । आत्मनो द्रव्यरूपेण नित्यतया तत्र क्रमेण सुखादिभोगः, पर्यायरूपेणाऽनित्यतया भिन्नस्वभावेन शुभाशुभक्रियाकरणाच्च पुण्यपापादिसम्भवः । तथा घटादीनां पर्यायरूपेणाऽनित्यतया न कृतनाशः, घटायुत्पादेनैव कृतस्य मृत्तिकानयनादेः कर्मणः साफल्यात् । द्रव्यरूपेण नित्यतया च नाऽकृतागमः, पूर्व कृतस्यैव द्वितीयक्षणेऽपि सत्त्वात् । तथा क्रमे णाऽर्थक्रियाऽपि सिध्यति । एवञ्च सर्व समञ्जसमिति भगवानेवाऽऽ श्रयणीय आपत्तिनिवारणमार्गप्रदर्शकत्वादितिहृदयम् ॥५॥ ननु “प्रत्येकं यो भवेद्दोषो द्वयोभीवे कथं न स ?" इति पूर्वपक्षोच्छेदाय विरुद्धयोरेकाश्रयत्वेन दोषाभावे दृष्टान्तमाह___ गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् ।। द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे ॥६॥ गुड इति-हि दृष्टान्तोपदर्शने, यथेत्यर्थः । गुडःप्रसिद्ध इक्षुविकारविशेषः । कफहेतुः कफस्य श्लेष्मणो हेतुः कारकः स्यात् , तथा नागरम्-शुण्ठी, पित्तकारणम्-पित्तस्य कारणं जनकम् ; स्यादिति सम्बध्यते । किन्तु, द्वयात्मनि-द्वयं गुडना. गरमात्मा स्वरूपं यस्य तादृशे, तत्प्रधानत्वादिति भावः । गुडनागरमेषजे-गुडनागरमिश्रणसिद्धौषधे, दोषः कफहेतुत्वं पित्तकारणत्वं च, नास्ति,कफकारकेण पित्तोपशमनास्पित्तकारकेण च कफोपशमनात्ता. दृशभेषजस्य हितत्वात् । तथा नित्यत्ववाददोषस्याऽनित्यतयाऽनि 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5)* कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः स्यत्ववाददोषस्य च नित्यतयोपशमेन नित्यानित्यत्वात्मकपदार्थस्वीकारे सर्वदोषोपशमः । तत्प्रकारश्च पूर्वपद्ये प्रदर्शित एवेति बोध्यम् ॥६॥ ननु विषम उपन्यासः, गुडनागरयो ।व्ययोः स्वरूपेणाडविरोधात्तयोः संयोगे तजन्यगुणद्वारा विभिन्नदोषोपशमनात्प्रकृति साम्याद्धितकरत्वात् । नहि तत्र विरुद्धयोर्गुणयोरेकत्र सत्त्वम् । अत्र तु विरुद्धयोनित्यानित्यत्वयोरेकत्र विरोधादसम्भव इति चेन्न, तदाह द्वयं विरुद्धं नैकत्राऽसत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि दृष्टो मेचकवस्तुषु ॥ ७॥ द्वयमिति-द्वयम् = नित्यत्वाऽनित्यत्वोभयम् , एकत्र-एकस्मिन्नात्मघटादावाश्रये, न विरुद्धम् परस्परेणाऽप्रतिबन्धकम् , तत्र हेतुमाह-असत्प्रमाणप्रसिद्धितः न सतां यथार्थानां प्रमाणानां प्रसिद्धिः, तस्याः । यथार्थप्रमाणाभावादित्यर्थः । विरोध इति शेषः । इदमत्र तात्पर्यम्-समानापेक्षया नित्यत्वमनित्यत्वं च विरुद्धमिति तेन रूपेण तयोरेकत्राऽसम्भवः । विभिन्नापेक्षत्वेन च तयोर्विरोधे प्रत्यक्षादिप्रमाणानामभावः । प्रत्युत विभिन्नापेक्षत्वेनैकत्र विरुद्धयोः सत्वमेव प्रत्यक्षादिप्रमाणेनोपलभ्यते । तत्र दृष्टान्तमाह-हीतिदृष्टान्तोपदर्शने, यथेत्यर्थः । मेचकवस्तुषु मेचकेषु मयूरपिच्छस्थचन्द्रकेषु, उपलक्षणत्वादन्येष्वपि चन्द्रकतुल्येषु चित्रवर्णेषु पटादिवस्तुषु । बहुवचनं प्रसिद्धिसूचनार्थम् । यद्धि बहुत्र दृष्टं तदेव प्रसि 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः द्धमिति भावः । " मेचकश्चन्द्रकः समौ “ मेचकश्चन्द्रकः समौ " ( अ. चि० 18 १३२० । ) इति । विरुद्धवर्णयोगः - विरुद्धानां सहानवस्थायि नीलश्वेतादीनां वर्णानां योगः सामानाधिकरण्यम्, दृष्टः = प्रत्यक्षसिद्ध तत्राऽपि हि तत्तदवयवभेदापेक्षया विरुद्धा वर्णी एकत्राऽऽश्रये सन्ति न च विरोधिनः । एवमत्राऽपि द्रव्यापेक्षया नित्यत्वस्य पर्यायाऽपेक्षयाः नित्यत्वस्य चैकत्र सत्त्वेन विरोध इति कथमेकत्र तयोरसम्भवः स्यात् ! एवञ्च प्रत्यक्षसिद्धमेव द्वयात्मत्वं वस्तुन इति । अत एव च सर्वदो मोषोऽपि । उक्तदोषपरिहारार्थमपि चाऽनिच्छयाऽपि तन्मन्तव्यां वेति । तथा चाsत्र प्रयोगः - अपेक्षाभेदेन नित्यानित्यते एकत्रा विरुद्धे, तेन रूपेण विरोधे प्रमाणप्रसिद्धेरभावात् । ययोरपे क्षाभेदेनैकत्र सत्वम्, तयोरविरोधः । मेचकवस्तुषु विरुद्धवर्णयो गवदिति । यद्यपि पद्येऽपेक्षाभेदेनेति नोक्तम्, तथाप्यविरोधी पपादनपरतया पद्यस्य तल्लभ्यते इति ध्येयम् ॥ ७ ॥ एवमुक्तप्रकारेण वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वं समर्थ्य, बौद्धा दीनां तत्प्रतिक्षेपोऽपि न युज्यते, स्वयं तथा स्वीकारादिति प्रद र्शयन्नाह— विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्ताथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ||८| विज्ञानस्येति – विज्ञानस्य क्षणिकज्ञानस्य, एकम् आका - " रम्= स्वरूपम्, नानाकारकरम्बितम् = नानाऽऽकारैः करम्बितं मिश्रम् 2010_dor Private & Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाष्याख्याविभूषितः ७५ घटितमित्यर्थः । इच्छन् स्वीकुर्वन् , ताथागतः बौद्धः, प्राज्ञः= पण्डितः, “धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञः सयावान् पण्डितः कविरि" त्यमरः । चेत्तर्हि, अनेकान्तम्-वस्तुनो विरुद्धानेकधर्मात्मकत्वम् । न-नैव, प्रतिक्षिपेत्-निराकुर्यात् । स्वीकृतं हि निराकुर्वतः प्राज्ञतैव हीयेत, प्रकर्षणाऽज्ञता च सम्भाव्यतेति भावः । बौद्धा हि केचित्शणिकविज्ञानमेव सत् , घटादयो विज्ञानाकारा एव । विज्ञानसत्त्व एव तेषां भावात् , विज्ञानाभावे च तेषामनुपलम्भात् । एकस्मिन् ज्ञाने चैक एवाकारः, अन्यथा पृथग्घटपटादिव्यवहारविलोपप्रसङ्गात् । ततश्च नीलपीतादिविरुद्धाकारविशिष्टैकचित्रपटज्ञानं न स्यादितिदोषपरिहारायैकमेव चित्रज्ञानं नानाकारकं तैः स्वीकृतम् । एवञ्चैकस्यैव वस्तुनो विरुद्धनानाधर्मात्मकत्वरूपोऽनेकान्तवादस्तैः स्वीकृत एवेति तस्य निराकरणे स्वाभ्युपगतस्यैव निराकरणापत्तिस्तस्य त्यादिति कथनाम प्राज्ञः संस्तथा कुर्यादिति हृदयम् ॥८॥ नैयायिको वैशेषिको वाऽप्युक्तहेतोरेव नानेकान्तं प्रतिक्षेप्तुअर्हतीत्याह चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वाऽपि नाऽनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥९॥ चित्रमिति—चित्रम्-चित्राख्यम् , रूपम्-वर्णम् , एकम्= शैलपीताद्यतिरिक्तप्रकारम्, अनेकम् नीलपीताद्यनेकाकारकरम्बितम् , वा समुच्चये । प्रामाणिकम् प्रमाणप्रसिद्धम् , बदन् प्रतिपाद 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः यन् । रूपादीनां व्याप्यवृत्तित्वादेकस्मिन्नेव पटादौ विरुद्धश्वत नीलादीनामसम्भव इत्येकं चित्रं रूपं स्वीक्रियते । नीलपीताद्या कारकरम्बितं च तत् । चित्रप्रतीतौ नीलपीतादीनां मिश्ररूपेण प्रतीतेरानुभविकत्वादिति नीलपीताद्यनेकाकारकरम्बितमेकं चित्रं रूप मित्येवं प्रतिपादयन्निति भावः । स क इत्यपेक्षायामाह-योगः: गौतमानुयायी नैयायिकः । वैशेषिका कणादानुयायी, वाऽपीति समुच्चये । अनेकान्तं न प्रतिक्षिपेत् । स्वयमेव विरुद्धानेका कारात्मकैकचित्ररूपात्मकाऽनेकान्तस्वीकारादिति भावः ॥९॥ साङ्ख्यस्याऽप्यनेकान्तप्रतिक्षेपाऽनवसर इत्याहइच्छन् प्रधानं सत्त्वायैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः । साङ्ख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो नाऽनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१० इच्छन्निति-सङ्ख्यावताम् = पण्डितानाम् , मुख्यः = श्रेष्ठः, विवेकितम इति यावत् । मुख्यत्वं च तस्य नैयायिकाद्यपेक्षया तत्पक्षस्येश्वराद्यस्वीकारेण विशुद्धत्वाबोव्यम् । साङ्ख्यःकापिलः, प्रधानम् = प्रकृतिम् , “प्रधानं प्रकृतिः स्त्रियामि " त्यमरः । सत्त्वाद्यैः सत्त्वरजस्तमोभिः, विरुद्धैः = परस्परेण प्रतिबन्धकैः, गुणैः गुणशब्दवाच्यैः, गुम्फितम्=करम्बितम् , इच्छन् । तस्य हि " सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिरव्यक्तम् । तत्तारतम्येन च महदाद्याविर्भाव इति त्रिगुणात्मकं जगदिति मतमिति भावः । नाऽनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् । स्वयमेव विरुद्धसत्त्वादिगुणात्म 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाख्याव्यख्याविभूषितः ७७ प्रकृतिरूपाऽनेकान्तात्मकवस्तुस्वीकारात्तन्निराकरणस्याऽनर्हत्वात् । व्यथा सङ्ख्यावतां मुख्यतैव हीयेतेति भावः ॥१०॥ ___चावीककृतोऽनेकान्तप्रतिक्षेपस्तूपेक्षणीय एव, तत्समर्थनेऽप्यबदरादित्याह विमतिः सम्मतिर्वापि चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी ॥११॥ विमतिरिति-यस्य यत्प्रकारस्य, चार्वाकस्य, परलोकात्मपोक्षेषु = परलोके आत्मनि मोक्षे च विषये, शेमुषी = बुद्धिः"मुद्धिमेनीषा धिषणा धी:प्रज्ञा शेमुषी मतिरि" त्यमरः । पति-विवेकं नाऽवधारयति । भूतेभ्य एव चेतनोत्पत्तिः, पिष्टो गुडादिभ्यो मदशक्तिवत् । एवञ्च नित्यस्य जीवस्याऽभावात्परमेमोक्षयोरभावः । जीव एव नास्ति, तर्हि कस्य तौ स्याताम् ? । वस्वीकार एव पुण्यादिव्यवस्था । परलोकमोक्षयोश्च पुण्यादिल्यनिमित्तत्वात् । यदुक्तम्-" यावजीवेल्सुखं जीवेणं कृत्वा पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?” ॥ एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं यद्वदन्ति बहुश्रुताः” इति च ॥ अतएव तस्य, चार्वाकस्य= शिकायतिकेतिख्यातस्य, विमतिः विरुद्धमतिः, अनेकान्तस्य निरास्थिमिति यावत् । सम्मतिः समर्थनम् , वाऽपीति समुच्चये । इ, मृग्यते-अम्विष्यते । मूलत एव विचारभेदात्तद्विमतेः सम्म।वी स्वपक्षेऽकिञ्चित्करत्वादितिभावः ॥११॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टमः प्रकाशः तदेवं बहुसम्मतत्वादनेकान्तपक्ष एवाऽऽदरो विदुषामित्युपसंहारेण वीतरागं स्तौति तेनोत्पादव्ययस्थेमसम्भिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपझं कृतधियः प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् ॥१२॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवेs. ष्टमः प्रकाशः ॥८॥ तेनेति-तेन-अनेकान्तस्य बहुसम्मतत्वेन हेतुना, कृतधियः विद्वांसः, त्वदुपज्ञम् त्वया वीतरागेणोपज्ञम् प्रथममुपदिष्टम् , गोरसादिवत-यथा गोरसादिस्यात्मकम् , तद्वत् । यदुक्तम्-" पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् " इति । उत्पादव्ययस्थेमसम्भिन्नम् उत्पादव्य. यध्रौत्र्यात्मकम् । सत्-वस्तु, वस्तुतस्तु-वास्तविकरूपेण, प्रपन्ना:स्वीकृतवन्तः, ईदृशरूपमेव वस्त्वित्येवमङ्गीकृतवन्तः । सत्स्वेव बहूनां सम्मतिरिति कृतधियां बहुसम्मतमेवाऽऽदरणीयम् । तच्च त्वदुपज्ञमेव । अन्यत्त्वसदबहुसम्मतमिति तत्राऽऽदरोऽविदुषामेवेति त्वमेव विजयसे इति महांस्तव महिमा । न च त्वत्तोऽन्यो महानिति भावः ॥१२॥ इतिश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्ति. कलाख्यायां व्याख्यायामष्टमः प्रकाशः ॥ ८॥ 2010_ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः प्रकाशः अथाऽष्टभिः प्रकाशैरसाधारणाऽनुत्तमगुणवैशिष्टययथार्थवक्तृत्वाऽन्याऽनभिभवनीयत्वादिगुणगणकीर्तनेन कृत्वा वीतरागस्यैव भजनीयत्वमिति भङ्गया समर्थ्य कालस्याऽपि 'जन्यानां जनकः कालो जगतामाश्रयो मत' इति भक्तिफलावाप्तिं प्रत्यपेक्षितत्वात्कालविशेषस्य च शीघ्रफलप्रदत्वमाहात्म्यात्तादृशस्य कलिकालस्य स्वस्य वीतरागभक्तिफलं प्रत्यत्युत्कण्ठिततया स्तुतिमुपक्रमते यत्राऽल्पेनाऽपि कालेन त्वद्भक्तेः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु कृतं कृतयुगादिभिः ॥१॥ यत्रेति-यत्र यत्प्रकारे कलिकाले, कलियुगेतिप्रसिद्धे चतुयुगाऽन्यतमकाल इत्यर्थः । त्वद्भक्तेः तव वीतरागस्य भक्तेः सेवायाः, साच तदाज्ञाराधनादिनेति बोध्यम् । अल्पेन-इतरयुगापेक्षयाऽल्पतरेण, कालेन अहोरात्रादिरूपेण, अपिना नतु बहुना कालेनेत्येवकारार्थध्वननेन कलिकालमाहात्म्यं ध्वन्यते । फलम् = मुक्त्यादिरूपं फलम् , आप्यते । यदुक्तम्=" कृते वर्षसहस्रेण नेतायां हायनेन च । द्वापरे यच्च मासेन अहोरात्रेण तत्कमावि " ति । सः= तादृशमाहात्म्यविशिष्टः, एकः केवलः, " एकोऽन्यार्थे प्रधाने च प्रथमे केवले तथे " त्यमरः । कलिकाला कलियुगाख्यः कालविशेषः, अस्तु । कृतयुगादिभिः सत्ययुगत्रेताद्वापरयुगैः, कृतम् अलम् : न तैःप्रयोजनम् , विलम्बेन 2010_ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे नवमः प्रकाशः फलप्रदत्वादित्यर्थः । सर्वस्य हि शीघ्रफलप्रद एवेष्टो भवति । मादृशानाञ्चाऽल्पायुर्बलादीनां सुतरां फलप्राप्तौ विलम्बस्याऽसहनीयस्वात् । तादृशश्च कलिकाल एवेति तमेवैकं कालं प्रार्थये । त्वदाज्ञामाराधयन्नपि न भवे चिरं स्थातुमिच्छामीति भावः । एतेन स्वस्य मुक्तिविषयाऽत्युत्कटेच्छा ध्वन्यते ॥१॥ ननु न केवलं कालमाहात्म्येन फलावाप्तिः' तस्यापेक्षाकारणत्वात् । किन्तु भजनीयकृपैव तत्र मुख्यं तन्त्रम् । तां विना कालस्याकिञ्चित्करत्वादिति चेत्, एवमेतत् । अत एव सा दुःखबहुले कलौ प्रशस्तफला विशेषतोऽपेक्षितेत्याह--- सुषमातो दुःषमायां कृपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि श्लाघ्या कल्पतरोः स्थितिः ॥२॥ सुषमात इति-तव, कृपा-उपलक्षणत्वात्कृपया कृतः सदुपदेशादिः, सुषमातः सुषमाराख्यं सुखसबुद्धिबहुलं सत्ययुगादिकं वाऽपेक्ष्य, दुःषमायाम् दुःखदुर्बुद्धिबहुले दुःषमारे कलौ वा, फलवती-भूरिफला प्रशस्यफला च । अरान्तरे कालमाहास्यादल्पानामेव दुःखित्वाद् दुर्बुद्धित्वाच्च तदुद्धारेणाऽप्यल्पफला बहुदुःखिदुर्बुद्धितारणात्प्रशस्तफला च । एवञ्चाऽत्र सा विशेषेण त्वया कृपा प्रवर्तनीयेति भावः । तदृदृष्टान्तेन समर्थयन्नाह-हि-यथा, कल्पतरोः अभीष्टप्रदस्य कल्पवृक्षस्य, मेस्ता मेरुपर्वतं सर्वसौविध्यसमृद्धमपेक्ष्य, म जलादिहीने वालकामयप्रदेशविशेषे मरुनाम्ना प्रसिद्धे, स्थितिः= 2010_ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः अवस्थानम् , श्लाघ्या-प्रशस्या सविशेषमपेक्षिता च । तत्र.. तस्यफलविशेषात् : "व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधैरि " ति, भावः । अत्र मरुभूमिदुःषमयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावेन. मरौ कल्पवृक्षस्येव कलौ वीतरागस्य कृपा तदुपदेशप्राप्तिरूपा दुर्लभेति ध्वन्यते । सति च तल्लाभे शीघ्र फलाऽवाप्तिरिति कालमाहात्म्यमिति तादृशः कालस्तव कृपा. च द्वयमेवापेक्षितमिति हृदयम् ॥२॥ ननु वीतरागवचनमागमादिरूप्रेणा प्रथितं सर्वसुलभम् कलिकालश्च प्रवर्त्तमान एव । किन्तु पिरला एवं शानिमाताकृपामाजस्तद्भक्तिफलभाजश्च ततोऽपि विरलाः इति किं नाम कृपा-.. माहात्म्यं कालमाहात्म्यं वेतिचेत्, एवमेतत् । चैतावतारायः कालस्य वा माहात्म्यं हीयते । अपि तु तादृशमाहात्मानभवेऽपेक्षितसामग्रयन्तरविरह एव प्रयोजक इत्याह का श्राद्धः श्रोता सुधीर्वका युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्चं कलावपि ॥३॥ श्राद्ध इति-ईश! यदि, श्रोता=ज्याल्यातृभिः प्रतिपाद्यमानानां त्वत्प्रवचनानां श्रावकः, श्राद्धः = सम्यग्दर्शनवान् , वक्ता-व्याख्याता, सुधीः त्वत्प्रवचनमर्मवेदी जिज्ञासुप्रबोधकुशलश्च, लावुभौ, युज्येयाताम् एकत्र मिलेताम् । तत् तदा, कलौ, अपिना युगान्तरसमुच्चयः । युगान्तरे तादृशयोोगः कालप्रभामात्सुलभः, कलिकालस्य तु मिथ्यात्वभूयिष्ठत्वात्स दुर्लभः । सति - - - 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीषीतरागस्तवे नवमः प्रकाशः - - - च तादृशे योगे, त्वच्छासनस्य त्वदाज्ञायाः, साम्राज्यम्= प्रभु त्वम्, एकच्छत्रम् एकमन्यस्य तादृशप्रभुत्वाऽभावादद्वितीयं छत्र प्रभुत्वलिङ्गमातपत्रं यस्य, तत्तथा । प्रतिपक्षरहितमित्यर्थः ।। त्वच्छासनमेव विजयेतेति यावत्. । एवञ्च श्रद्धालूनां निपुणव्या. ख्यातृणां चाऽभावादेव वीतरागकृपापात्राणामल्पता, तद्भक्तिफलभाज च विरलता । सति च सामग्रीसाकल्ये तदुभयमाहास्यमविकल मेवोपलभ्येत । नहि जलायभावेन बीजस्याऽङ्कुराऽजननं तदयो. ग्यत्वसाधनायाऽलमिति भावः ॥३॥ ननु तादृशयोगदौर्लभ्ये दुर्गुणबहुलकलिप्रभाव एव मूलमिति कलिस्तुतिस्तवाऽस्थान इति चेन्न । युगान्तरेऽपि दुर्गुणानां सत्त्वा. दित्याह--- युगान्तरेऽपि चेन्नाथ ! भवन्त्युच्छृङ्खलाः खलाः । पृथैव तर्हि कुप्यामः कलये वामकेलये ॥४॥ युगेति–नाथ !, चेद् यदि, युगान्तरे = अन्यः सत्ययुगादिर्युगो युगान्तरम् , तस्मिन् , अपिना कलिसमुच्चयः । सद्गुण. बहुलतया ख्यातेऽपीति वा सूच्यते । उच्छृङ्खला: उद्गतं दूरी. भूतं शृङ्खलमिव नियममर्यादा येभ्यस्तादृशाः, निर्मर्यादा इत्यर्थः । अश्रद्धालबो ज्ञानलवदुर्विदग्धाश्चेति यावत् । अत एव, खला:खलशब्दवाच्या दुराचाराः, भवन्ति । तर्हि, वामकेलये-वामा दुष्परिणामत्वाद्वका केलि विलासो यस्य, स तादृशः । तस्मै, 2010_ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याल्याविभूषितः कुटिलाचारबहुलाय । एतेन कोपे कारणसामग्र्युक्ता । सर्वोऽपिहि कुटिलाचाराय कुप्यतीति भावः । कलये कलियुगाय, एवकारो भिन्नक्रमोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थोऽत्र सम्बध्यते । न त्वन्यस्मा इत्यर्थः । वृथा-निष्कारणम् , कुप्यामः-दु:षमारोऽयमित्येवमाक्रुश्य क्रोधमाविष्कुर्मः । यदि हि सर्वत्र दुर्जनास्तर्हि सर्वेषामेव युगानां वामकेलितेति सर्वेभ्य एव कुप्यन्तु, न तु कलये एव । एवञ्च कलये एव कोपो वृथेति । यद्वा-कलये वृथैव कुप्यामः । तत्र हेतुगर्म विशेषणमाह-वामकेलये-वामाऽभीष्टत्वाद्रग्या केलिः शीघ्रभक्तिफलप्रदानप्रयोजकत्वरूपो विलासः प्रभावो वा यस्य, तस्मै, तादृशाय । “वामस्तु वक्रे रम्ये स्यात्सव्ये वामगतेऽपि चे" त्यमरः । न च युगान्तरेष्वीदृशवैशिष्ट्यम् । एवञ्च युगान्तरेभ्य एव कोपो युक्तः । कलये तु दूरे योग्यतावाती, प्रत्युत वृथैवेति तात्पर्यम् ॥४॥ ___ भवतु वा कलि दुर्गुणखानिः, तथाऽपि युगान्तरेभ्योऽ. यमतिशेते । कल्याणपरिचयसाधनत्वात्तस्येत्याह कल्याणसिद्ध्यै साधीयान् कलिरेव कषोपलः । विनाऽग्निं गन्धमहिमा काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥ कल्याणेति-कल्याणसिद्ध्यै-कल्याणस्य कल्याणगुणविशिष्टस्य । भव्यस्येति यावत् । सुवर्णस्य च । सिद्ध्यै-निर्णयाय, कल्याणो न वा ?, किशो वा कल्याण इत्येवं शङ्काविप्रति 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवास्तवे मवनः प्रकाश पत्त्यादिनिराकरणपूर्वकनिश्चयाय । कल्याणप्राप्त्या इति वाऽर्थः । साधीयान् अतिशयेन साधुः, सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः । कलिरेक नत्वन्यः । कमोपलः = निकषयावा । यथा निकषेण-सुवर्णस्य तत्प्रकारस्य च निर्णयः, शुद्धत्वनिर्णयेन सुवर्णप्राप्ति वी भवति । तथा यः कलिं तरति, स कल्याण इति निर्णीयते, उत्कृष्ट गुणश्च । नहि गुणोत्कर्ष विना कल्याणं विना वा कलौ कोऽपि स्वस्थो भवितुमर्हति । यदि वा यः कलिं तरति, सोऽवश्यं कल्याणं प्राप्नोति । तथा कषेण परीक्षया यथा झटिति सुवर्णप्राप्तिस्तथा कलावपि शीघ्रफलप्राप्तिरिति सुष्ठूत्तम्-कलिख कषोपल इति । कल्याणसिद्धौ कले: प्रयोजकत्वं समर्थयन्नाहअग्नि विना, काकतुण्डस्य-कालागुरोः, गन्धमहिमा-आमोदोत्कर्षः, न, एधते वर्धते । अग्नितप्तस्य हि काकतुण्डस्याऽऽमोदः प्रसरति, नाऽन्यथा । तथा यः कलिं सहते, तस्यैव गुणोत्कर्षो जायते । अन्यथा तु गुणतारतम्यस्य दुर्गमता दुर्लभता चेति कलिरवश्यस्तुत्य इति भावः ॥५॥ भवतु वेतरेवामितरे स्तुत्याः, मम तु कलिरेव स्तुत्यः, तत्रैवेष्टसिद्धेरित्याह निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं मरौ शाखी हिमे शिखी । कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं त्वत्पादाब्जरजःकणः ॥६॥ निशीति-दुरापः दुःखेन कष्टेनाऽनेकभवपुण्यसम्भारबलेना. 2010_03or Private & Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽप्यत इति सः कथमन्यथा सर्वस्यैव न तल्लाभ इति भावः । स क इत्यपेक्षायामाह-त्वत्पादाब्जरजाकणः = तबः पादावब्जे कमले इव, तद्रजःकणः परागलेश इव धूलिकणः अयम् बुद्धिस्थत्वात्प्रत्यक्षक्दनुभ्यमानः, कलौ प्रासः । अतः सः मयाsवश्यस्तुत्यः । यो हि दुर्लभ प्रापयति, तस्याऽस्तुतौ कृकाव व्यज्यत इति भावः । तस्य दुरापत्वाऽतिशमबोधनाय मालारुमकं लुप्तमालोपमा वाऽऽह-निशि-रात्रौ, दीप-दीप इव, दीपरूपो बा, सबस्तुसन्मार्गप्रकाशकत्वात् । तथा, अम्बुधौ-समुद्रे, दीपम् = द्विगता आपो यस्मिंस्तत् , अन्तरीपम् । जलान्त प्रदेशविशेषइति यावत् । तदिव, तदरूपो वा । अब्धौ द्वीपमिव भवे मज्जतामाश्रयभूमित्वात् । तथा, मरौ-मरुप्रदेशे, शाखी-वृक्षः, स. इव, तद्रूपो वा । आक्पतप्तानां शीतलच्छायाप्रदानेन कृत्वा यथा सुखकरो मरुवृक्षस्तथा भक्तापतप्तानां तन्निवारणेन कृत्वा शीताश्रयप्रदानात् । तथा, हिमे शीतों, शिखी = अमिः, स इव, तदरूपो वा । अग्नि हि हिमे निजतापेन जाड्यनाशकः, तथाऽयमपि सम्यग्ज्ञानप्रदानेन कृत्वा मतिमान्द्यरूपजाड्यनाशकः । ईदृशगुणविशिष्टो न सुलम इति दुराप इति तात्पर्यम् ॥६॥ कलिनमस्करणेन स्वस्य कृतज्ञतां सूचयन् वीतरागदर्शनदौर्लभ्य भङ्गयाह युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि त्वदर्शनविनाकृतः । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्रीवीतरागस्तवे नवमः प्रकाशः नमोऽस्तु कलये यत्र त्वदर्शनमजायत ॥७॥ युगेति -- त्वदर्शनविनाकृतः = त्वदर्शनेन त्वदवलोकनेन त्वदुक्ततत्त्वश्रद्धया वा विनाकृतो रहितो वञ्चितो वा । अत एव, युगान्तरेषु = बहुष्वन्येषु युगेषु । भ्रान्तः = विहितभ्रमणः, अस्मि । यदि हि त्वदर्शनवानभवम् , न युगान्तरेष्वभ्राम्यम् । त्वदर्शनस्य भवविच्छेदकरत्वात् । अत एव न युगान्तरेषु मम सादरं ममः, किन्तु, यत्र-यस्मिन् कलौ, त्वदर्शनम् = त्वदुक्ततत्त्वश्रद्धानम् , त्वबिम्बाद्यवलोकनरूपं त्वदवलोकनं वा, अजायतजातम् , लब्धं वा, तस्मै, कलये, नमोस्तु । स्वस्य तत्रैव महालाभात्तं प्रति कृतज्ञस्तं नमामि, न तु युगान्तरम् । तत्र स्वार्थाsसम्पत्तः । 'सर्वः स्वार्थ समीहत' इति भावः ॥७॥ यद्वा न कोऽपि प्रशस्यो निन्धो वा स्वतः, किन्तु भवत्सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामेव तत्त्वमित्याह बहुदोषो दोषहीनात्वत्तः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्फणीन्द्र इव रत्नतः ॥ ८॥ इति... कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे नक्मःप्रकाशः ॥९॥ बहुदोष इति-बहुदोषः मिथ्यात्वादिदोषबहुलः, कलिः, दोषहीनात्-वीतरागात् , त्वत्तः त्वदपेक्षया, अशोभत । वर्तमानाप्रभृति यद्वा तद्वा भवतु, अतीतकाले तु स प्रशस्य एव । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः यद्वा-दोषहीनात्त्वत्तो हेतोः, बहुदोषः इषदसमाप्तदोषवान् । अल्पदोष इत्यर्थः । सर्वथा दोषाभावस्तु न, स्वभावस्य दुरुच्छेद्यत्वादिति भावः । वीतरागस्य तव सम्पर्का दोषबहुलोऽपि कलिरल्पदोषो जातः । महतामाश्रयेऽल्पस्य गुणोत्कर्षात् , “ संसर्गजा दोषगुणा भवन्नी " ति न्यायात् । अत एवाऽशोभत । बहुदोषस्याऽल्पदोषत्वे शोभनमुचितमेव । वीतरागो हि यत्र भवति, ततो दोषाकरादपि दोषोऽपचीयत एवेति भगवतः कलौ सत्वात्कलेरल्पदोषत्वात्स्तुत्यत्वमेवेति तात्पर्यम् । तत्रोपमानमाह-विषयुक्तः= विषधरः, फणीन्द्रः महासर्पः, विषहरात्-विषापहारकाद् , रत्नत इव । यथा विषदोषसत्त्वेऽपि विषहररत्नाद्धेतोः फणीन्द्रः प्रशस्यते, यद्वा तादृशरत्नतो दोषमोषेण कृत्वा फणीन्द्रः स्तुयतेऽनर्थभयाभावाद्रबलाभाच्च । तथा कलेर्दोषवत्त्वेऽपि त्वत्त एव स प्रशस्यः, यद्वा त्वत्तस्तद्दोषमोषेण दुर्लभत्वल्लाभेन च स प्रशस्य एवेति भावः ॥९॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तक्कीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां नवमः प्रकाशः ॥९॥ दशमः प्रकाशः तदेवमुक्तप्रकारेणाऽतिशयादिस्तुतिद्वारा कलिस्तुतिद्वारा च भगवन्तमुपश्लोक्य " चक्रः सेव्यो नृपः सेव्यः ” इति न्याय 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे दशमः प्रकाशः मनुरुन्धन् साक्षादेव वीतरागमुपचारकाक्यैः स्तुवन्निर्हेतुककारुणिकत्वमेव मनोरञ्जनचतुरवाचा भङ्ग्या स्तौति मत्प्रसस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि प्रसीद भगवन् ! मयि ॥१॥ __मदिति-मत्प्रसत्तेः = मम प्रसत्तेः प्रसन्नतायाः, सम्यम्दर्शनपूर्वकत्वदाज्ञाराधनादिना कषायादिकलुषाऽपाकरणेन निर्मलमनोवृत्तिकताया हेतोः, अनन्तरमिति शेषो वा । मदीयशुद्धमनोवृत्तिकतामपेक्ष्येति वा । त्वत्प्रसादः तव वीतरागस्य प्रसादोऽनुग्रहः, मयीति सम्बध्यते । यद्वा मम शुद्धमनोवृत्तित्वे शुभसम्भावनया तव प्रसन्नता स्यात् । सर्वो हि स्वानुयायिनं शुद्धवृत्तिकमुपगम्य प्रसीदति । यदुक्तम्-“वीतस्पृहाणामपि योगभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः” इति । पुनः किन्तु, इयम्-मत्प्रसत्तिः, त्वत्प्रसादात त्वदनुग्रहात् । यदि हि त्वमनुगृह्योपदेशादिकं ददासि, तदेव सन्मार्गज्ञानादिना मत्कालुष्यप्रमोषसम्भव इति मत्प्रसत्तिस्त्वत्प्रसादात् । एतच्च महत्कौतुकम् , यदेवं मत्प्रसत्तिस्त्वत्प्रसादो वा किमपि न सम्भवति । एकस्य भावेऽपरस्याऽपरस्य भावे चैकस्याऽपेक्षणादन्योन्याश्रयदोषास्पदत्वात् । ननु तर्हि त्वयाऽऽदौ स्वप्रसत्तिरेव सम्पादनीयेति चेन्न । असमर्थस्य मम त्वदनुग्रहं विना तदसम्भबात् । स्व तु वीतरागस्य सर्वसमर्थतया निर्हेतुककारुणिकतया च नाऽतीवाऽपेक्षिता मत्प्रसत्तिरिति प्राक्त्वमेव प्रसीदेत्याह - इति= 2010_03r Private & Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6)* कीर्तिकलाण्याख्याविभूषितः उक्तरीत्याऽऽपद्यमानम् , अन्योन्याश्रयम् = द्वयोभीवे परस्पराऽपेक्षणरूपं दोषम् , भिन्धि अपाकुरु, किं कृत्वेत्यपेक्षायामाह-भगवन् != ऐश्वर्यशालिन् ! एतेन सम्बोधनेन दोषभेदसामग्रीसाकल्यं सूचितम् । नीश्वर्यशालिनः स्वचिकीर्षिते किमप्यत्यन्तमपेक्षितं भवति?, ऐश्वर्यशालित्वस्यैव तथा सति सन्देहास्पदत्वापत्तेः । अत एव, मयि= अल्पसामर्थे स्वप्रसत्तिसाधनविकले, प्रसीद-प्रसन्नो भव । तव निर्हेतुकपरमकारुणिकत्वात् । मत्प्रसत्तेरवश्यमपेक्षणे च तदपि विवादास्पदं स्यादिति भावः । एतेनाऽप्रसन्नं मां कृपया प्रसादयेति स्वाऽभिलाषोऽपि भङ्गया निवेदितम् ॥१॥ ननु त्वत्प्रसत्तावलं मत्प्रसादापेक्षणेन, मद्रूपदर्शनेन मद्गुणकीर्तनेन चाञ्जसा तत्सम्भवादिति चेत् , एवमेतत् । किन्तु तदपि मादृशामत्यन्तमशक्यमित्याहनिरीक्षितुं रूपलक्ष्मी सहस्राक्षापं न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥२ ___ निरीक्षितुमिति----स्वामिन्, सहस्राक्षः सहस्राण्यक्षीणि याय स तादृशः, शक्र इत्यर्थः । अपिना द्वयक्षादेमादृशस्य तु कथैव केति सूच्यते । ते-तव, रूपलक्ष्मीम् स्वरूपसमृद्धिम् , समृद्धं रूपमिति यावत् । निरीक्षितुं, न, क्षम: समर्थः । नहि निर्गुणानां सर्वोत्कृष्टानन्तगुणानां च रूपं कोऽपि द्रष्टुं क्षमः । सगणस्यापि परिमितरूपस्यैव च दर्शनविषयत्वादिति भावः । तथा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे दशमः प्रकाशः गुणान् ,ते इति सम्बध्यते । सहस्रजिह्वः सहस्रा जिह्वा यस्य स तादृशः, शेषनाग इत्यर्थः । अत्राऽप्यपिना सर्वाधिकवचनसाधनसम्पन्नस्य चेन्न शक्तिस्तर्हि मादृशामेकजिह्वानों का कथेति सूच्यते । वक्तुम्-वर्णयितुम् । न शक्तः । एवञ्च त्वत्प्रसादं विना न मत्प्रसत्तिः केनाऽपि प्रकारान्तरेण सम्भवतीति मयि प्रसीदेति भावः । एतेन भङ्गया भगवतोऽनन्तरूपगुणवत्ता सुचिता ॥ २ ॥ ननु ममैव गुणाःस्तोतव्या इत्येव कुत इति चेत्तत्राहसंशयानाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतःपरोऽपि किं कोऽपि गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः १॥६ संशयानिति-नाथ !, अनुत्तरस्वर्गिणामपि अनुत्तरविमानवासिनाम् , अन्याऽपेक्षया ज्ञानादिगुणोत्तमानामपीत्यपेरर्थः । तेषां सप्तलवमानायुरभावमात्रत एव केवलाप्राप्तेः । एवञ्चाऽन्येषां कथैव केति सूच्यते । भगवतः सर्वाधिकज्ञानवस्त्वं च ध्वन्यते । संशयान् = आगमादिपदार्थाऽनिर्णयात्मकसन्देहान् , हरसे युक्त्यादिना पदार्थान्निीयाऽपाकरोषि । भूमिष्ठोऽपीति प्रस्तावाल्लभ्यते । एतच्चाऽनितरसाधारणवैशिष्ट्यं तवेति भावः । तदेवाह-कोऽपि, परः अन्योऽपि, किम् ? =न कोऽप्यन्यो भूमिष्ठोऽपि सन्ननुत्तरस्वर्गिणामपि संशयाऽपहारको दृष्टः श्रुतो वाऽद्यावधीति भावः । अतः अस्माद्धेतो:. वस्तुतः याथातथ्येन रूपेण, गुणः तवेत्यर्थबलालभ्यते । स्तुत्यः स्तोतुं योग्यः । नाऽन्यस्य कस्याऽपि, 2010_03or Private & Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलापाख्याविभूषिता ९१ - तादृशवैशिष्ट्यस्याऽन्यत्र कदाप्यलाभादिति भावः । अतः परोऽपि कोऽपि गुणो वस्तुतः स्तुत्योऽस्ति किमित्येवमन्वये त्वतः परो गुणो न वस्तुतः स्तुत्य इति गुणस्य वस्तुतोऽस्तुत्यत्वे गुणस्याऽप्यवस्तुत्वापत्त्यनुषङ्गादनिष्टार्थप्रतीतिप्रसङ्ग इति सुधीभिश्चिन्तनीयम् ॥३॥ अथ विरोधाभासमुखेन भगवतो वैशिष्ट्यं स्तौतिइदं विरुद्धं श्रद्धत्तां कथमश्रद्दधानकः १ । आनन्दसुखसक्तिश्च विरक्तिव समं त्वयि ॥४॥ इदमिति-अश्रद्दधानकः–नः श्रद्धते इति सः, स्वार्थे कः । श्रद्धाविधुरान्तःकरण इत्यर्थः । विरुद्धम् परस्परस्पर्वि लोके सहावस्थानस्याऽदर्शनादिति भावः । इदम् कथम् - फेनप्रकारेश श्रद्धत्ताम् = रुचिविषयं करोतु ? । रुचेरेवाऽभावान्मलं नाहित कुछ शाखेति भावः । इदमिति किमित्याकाङ्क्षायामाह त्वयि भवति वीतरागे, समम् = युगपदेव, आनन्दसुखसक्तिः - निरुपाधिकशाच तानन्दात्मकस्य सुखस्य सक्तिः सङ्गः, अखण्डशाश्वतानन्दमग्नतेक त्यर्थः । विरक्तिः = प्रशमः, सङ्गविरह इत्यर्थः । चद्वयं समुच्चये । सङ्गसङ्गविरहद्वयं विरुद्धम्, भावाभाववत्सहानवस्थानादित्येकत्र तद्वयं न यौक्तिकम् । त्वादृशस्याऽन्यस्याऽभावादृदृष्टान्तशून्यत्वादिति समं तद्व्यस्वीकारे न श्रद्धातिरिक्तं साधनम्, अश्रद्दधानस्य च श्रद्धाया एवभाव इति स नैतच्छ्रद्धातुं शक्नोतीति भावः । अत्र कर्ममूलसङ्गविरतिः, कर्मक्षयमूलसुखसङ्गश्चेत्यपेक्षा भेदाद्द्द्वयोरविरोधो बोध्यः । " | 2010_dor Private & Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ श्रीवीतरागस्तवे दशमः प्रकाशः वीतरागो मुक्तश्च सहैव भगवानित्यद्भुतगुणविशिष्ट इति हृदयम् ॥४ नन्वस्वानन्दसुखसक्तिर्विरक्तिश्च समं वीतरागे, किन्तुपेक्षोपकारिताद्वयी भवता वर्ण्यमाना कथम् ?, विरोधादिति चेन्न । तदाह नाथेयं घट्यमानापि दुर्घटा घटतां कथम् १ । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु परमा चोपकारिता ॥५॥ नाथेति–नाथ !, सर्वसत्त्वेषु-उपकारिष्वपकारिषु तटस्थेषु च, उपेक्षा माध्यस्थ्यम् , समदृष्टितेत्यर्थः । परमा = सर्वोत्तमा, उपकारिता-उपकारशीलता, चः समुच्चये, यद्वा हेतौ । यतः सर्वसत्त्वेषूपकारिता, अत उपेक्षाऽपक्षपातिता, इत्यतः-इयम्-उक्तोभयी, घट्यमाना-उपपद्यमाना, अपितो, वीतरागतया समतायाः, तीर्थप्रवर्तनान्यथानुपपत्त्योपकारितायाश्च निर्णयात् । ततश्चोपेक्षा काप्येकत्र पक्षपाताऽभावेन, कथमन्यथा तीर्थप्रवर्त्तनेन कृत्वा सर्वोपकारकरणम् ? । उपेक्षाऽभावे हि पक्षपाताऽवश्यंभावात्सर्वोपकारिता न सम्भवति । एवञ्च सर्वोपकारितैवोपेक्षामपक्षपातरूपां साधयतीत्यतो हेतोः, कथम् केनप्रकारेण, दुर्घटा दुरुपपादा, घटताम् = जायताम् ? । एकस्या भावेऽपरस्या अवश्यम्भावाद्विरोधाऽभावात्सुघटैव, न तु दुर्घटा । नहि कस्यापि हिताहिताकरणमुपेक्षा, अपि त्वपक्षपातेन सर्वहितकरणमेव । एवञ्च तयो दुर्घटत्वं मन्यमाना विवेकवञ्चिता एवेति भावः । तवैतन्माहात्म्यम् , यद्यदन्यत्र दुर्घटम् , 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः तदेव त्वयि सुघटमिति लोकोत्तरगुणो भवानिति हृदयम् ॥५॥ अतएव परेषां मते विरुद्ध अपि निम्रन्थताचक्रवर्तिते भगवत्यविरुद्ध एवेत्याह द्वयं विरुद्धं भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च या चोच्चैश्चक्रवर्तिता ॥६॥ द्वयमिति-भगवन् ! ऐश्वर्यशालिन् ?, एतेन विरोधिनोरपि विरोधपरिहारे कारणसाकल्यं सूचितम् । एश्वर्यशालिनां हि न किमप्यसम्भवमिति भावः । द्वयम्-उभयम्, विरुद्धम्-परस्परप्रतिस्पर्धि, तव त्वत्सम्बन्ध्येव, त्वय्येव घटते, अस्ति वा । अन्यस्य, कस्यचित् कस्यापि, न । भगवत्त्वाऽभावादिति भावः । किन्तइद्वयमित्याह-या यादृशी च, परा-उत्कृष्टा, निर्ग्रन्थता=निःसङ्गतामूलमाकिञ्चन्यम् , तथा, या, च, उच्चैः परा, चक्रवर्तिता धर्मसाम्राज्यम् । तदुक्तधर्मस्य सर्वोत्कृष्टत्वादिति भावः । एतद्वयमित्यर्थः । यो ह्यकिञ्चनः, स न चक्रवर्तीति विरोधः । नि:तया निम्रन्थता, सर्वोत्कृष्टधर्मप्रवर्तनेन च धर्मचक्रवर्तितेत्यरोधः । एषोऽपि तवाऽद्भुतो गुणो विरोधिनोरविरोधरूप इति वीतरागस्य चारित्रमप्यद्भुतमित्याह---- नारका अपि मोदन्ते यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं को वा वर्णयितुं क्षमः १ ॥७॥ 2010_ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमाश नारका इति--यस्य यादृशस्य वीतरागस्य, कल्याणपर्वसु कल्याणानां सर्वसत्त्वशुभानां पर्वसु महोत्सवाऽवसरेषु, अवसरविशेषेषु वा प्रसिद्धेषु पञ्चकल्याणकेषु च्यवनादिषु, नारकाः नरकस्था एकान्तदुःखिनः । अपिनाऽन्यस्य तु कथैव केति सूच्यते । मोदन्ते क्षणं सुखमनुभवन्ति । वीतरागमाहास्यादिति भावः । तच्च माहात्म्यं चारित्रमूलमित्यतः, तस्य-ताशस्य वीतरागस्य, पवित्रम् = सर्वजगत्सुखजननादिना स्मरणादिना मनःशुद्धिजनकत्वाच्च पुण्यम्, चारित्रम्चरित्रम् , वाकारःपूर्वोक्ताद्भुतमुणसमुच्चये भिन्नक्रमः । का, वर्णयितुम् , क्षमः =न कोपीत्यर्थः । तस्य महाविषयतयाऽन्यत्राऽश्रुतादृष्टतया च वागतीतत्वादिति भावः ॥७॥ सर्वमप्यद्भुतं वीतरागस्येत्युपसंहरतिसमोऽद्भुतोऽद्भुतं रूपं सर्वात्मसु कृपाऽद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ॥८॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरामस्त। दशमः प्रकाशः ॥ १०॥ - शम इति-शमः-तृष्णाक्षयः, अद्भुता इतरत्राऽनुफ्ला म्भाद्विलक्षणत्वाद्विस्मयजनकः । तथा, रूपम् स्वरूपम् , अद्भुतम् उक्तातिशयादिहेतोरिति भावः । सर्वात्मसु-सर्वजीवेषु, कृपा क्षुता । अमल ताशकृपाऽलाभादिति भावः । किं परिग नया, यदद्भुतं तत्सर्फ तवैवेत्यत:-सर्वाद्भुतनिधीशाय 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः षामद्भुतानां यो निधिराकरस्तस्येशाय; सर्वेषामद्भुतानां त्वमीश इति तस्मै, तुभ्यम् भगवते भगवानित्यन्वर्थविशेषणविशिष्टाय, नमः । अस्त्वितिशेषः । नमस्कार एवाऽस्माकं शक्यः, न तु तवाद्भुतगुणवर्णनमिति भावः ॥ ८ ॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां दशमः प्रकाशः ॥ १० ॥ एकादशः प्रकाशः सम्प्रति माहात्म्यं वर्णयन् वीतरागं स्तौतिनिघ्नन् परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं महतां कापि वैदुषी ॥१॥ निघ्नन्निति-चीतराग !, परीपहचमूम् परितः सर्वतः कायेन मनसा वाचा च सह्यन्त इति परीषहाः क्षुदादयो द्वाविंशतिः प्रसिद्धाः, तेषां च चक्रम् , परीषहसमूहमिति यावत् । “वरूथिनी चमूश्चक्रम् " (अ. चि० ।३।७४६।) इति । निछनन् सहनेन कृत्वा हतमिव कुर्वन् । यथा हि निहननेन परसैन्यविनाशस्तथा सहनेन परीषहाणां विनाश एव भवति, तत्फलस्याऽस्वस्थताया अनुत्पादात् । परीषहाणां चमूत्वं च विनाश्यत्वसाधासमुदायरूपत्वाच्च । किञ्च परसैन्याहनने स्वस्य पराजयादिसम्भवः, 2010_ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ श्रीवीतरागस्तवे एकादशः प्रकाशः " " तथा परीषहाऽसहने संयमविलोप इति बोध्यम् । तथा, उपसर्गान् = देवादिकृतोपद्रवान्, “उपलिङ्गं त्वरिष्टं स्यादुपसर्ग उप द्रवः " ( अ. चि० |२| १२५ ) इति । श्रूयन्ते हि पार्श्वादि जिनानां कमठादिकृता उपसगी इति भावः । प्रतिक्षिपन् = निरस्तमिव कुर्वन् । असाधारणदृढमहासत्त्वतया स्वस्य तैः क्षोभ लेशस्याऽप्यभावादुपसर्गीणां क्षोभचिकीर्षयाऽपचिकीर्षया वा कृतान निष्फलत्वादिति भावः । नन्वेतत्सर्वं किमर्थमित्यपेक्षायामाह - शमसौ. हित्यम् - तृष्णाक्षयजन्यं परमानन्दम् प्राप्तोऽसि नहि परिषहोप सर्गजयं विना शमलाभ इति भावः । अर्थान्तरन्यासेनैतत्समर्थय न्नाह - महताम् = उत्तमोत्तमानां षष्ठप्रकृतिकानाम्, वैदुषी = धनोपायज्ञता, काऽपि = लोकविलक्षणा । नाल्पसत्त्वो ऽधीरोऽल्प वा तथाकृत्वा शमसौहित्यं प्राप्तुं जानाति, शक्नोति वा शमसौहित्यं तेन प्रकारेणैव प्राप्यत इति भवादृशो महान्त एवं जानन्ति तत्प्राप्नुवन्ति च । तदेतद्भवन्माहात्म्यं लोकोत्तरमिति भावः । अत्र घातक्षेपप्रवृत्तस्य न शम इति विरोधः । परी होपसर्ग घातक्षेपजन्यशमसौहित्यवानित्यंविरोधः ॥ १ ॥ -साध्यसा उक्तोपायप्राप्तशमफलं भङ्गयाऽऽहअरक्तो भुक्तवान् मुक्तिमद्विष्टो हतवान् द्विषः । अहो ! महात्मनां कोsपि महिमा लोकदुर्लभः ॥२ अरक्त इति - वीतराग !, भवान् । अरक्तः = विषयदि 2010_dor Private & Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः रक्तः, वीतराग इत्यर्थः । अत एव, मुक्तिम्- कार्येन कर्मक्षयलक्षणं मोक्षम् , भुक्तवान-प्राप्तवान् । नहि रागिणो मुक्तिः, रागस्य कर्मोपचयहेतुत्वात् । अत्र रागं विना न भोग इति विरोधः । नीरागस्य मुक्तिप्राप्तिरित्यविरोधः । ननु मा भूद्रागः, नहि रागाभाव एव मुक्तिप्रयोजकः, किन्तु द्वेषाभावोऽपि, तदाहअद्विष्टः द्वेषरहितः, अत एव, द्विषः कषायादीन् श्रेयःप्रतिपन्थिभूतत्वादरितुल्यान् , हतवान् नाशितवान् । शमवतो न रागद्वेषौ, तथा सति शम एव न स्यात् । रागद्वेषयोस्तृष्णामूलत्वात् । शमस्य च तृष्णाक्षयरूपत्वात् । एवञ्च शमाद्रागद्वेष. जयस्ततश्च मुक्तिः । अत्र यो द्वेषरहितः, स न द्विषो हन्तीति विरोधः । द्वेषाभावाच्च तन्मूलानां कषायादीनामभावरूपो वध इत्यविरोधः । यश्च भोगी वधकश्च तस्य न मुक्तिरिति विरोध:, मुक्तिप्राप्तिरेव भोगः, कषायादीनामभाव एव तद्वध इत्यविरोधः । ननु रागद्वेषजयो न सुकर इत्यतोऽर्थान्तरन्यासेन तत्समर्थयन्नाह-अहो ! महदाश्चर्यमेतद् , यत् , महात्मनाम् उत्तमोत्तमानाम् , लोकदुर्लभ: लोकैरप्राप्यः, अतएव, कोपि अनिर्वचनीयः, लोकैर्हि लौकिकोऽर्थो निरुच्यत इति भावः । महिमा माहा. स्यम् , महानुभावतेत्यर्थः । तादृशानिर्वचनीयमाहास्यादेव भगवतो रागद्वेषजयः सुसाध्यः । कथमन्यथा सर्वस्यैव न स इति भावः । शमो रागद्वेषजयश्चाऽलौकिकाऽऽत्मसामर्थ्यसाध्यः, तादृशश्च भगः 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे एकादशः प्रकाशः वानिति तन्माहास्यमलौकिकम् । शमी वीतरागो मुक्तश्चेलि कृतार्थो भगवानिति हृदयम् ॥२॥ यतश्च तादृशोऽतो लोकाधिको भगवानित्याहसर्वथा निर्जिगीषण भीतभीतेन चाऽऽगसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये महतां काऽपि चातुरी ॥३॥ सर्वदेति-भगवन् !, त्वया, सर्वथा सर्वैः प्रकारैः, गुणादिना बलादिना वा, निर्जिगीषण-जेतुमिच्छा जिगीषा, तस्या निर्मतो रहितः, स तादृशो निर्जिगीषः, तेन सता, वीतरागत्वादिति भावः । नहि रागं विना जिगीषा सम्भवति । ननु निर्भयत्वादविजिगीष: स्यात् . भयहेतुं हि लोको जेतुमिच्छतीति चेत्तत्राह-आगस: अपराधात् , पापादिति यावत् । “ आगोड़पराधो मन्तुश्चे" त्यमरः । भीतभीतेन-नित्यं भीतेन सत्ता, चा समुच्चये । यो छपराधाद्विभेति, स न कदाप्यपराधं करोतीति निरवद्यो भगवानिति भावः । जगत्त्रयम् , जिग्ये-अधरीकृतम् । योहि जितो भवति, स जेतु नो भवति । भगवांश्चाऽपराधभीतो निरीहश्च । न च तादृशोऽपरो लोके इति जगत्त्रयं भगवतो हीनम् , भगवांश्च लोकाधिकः इति भगवतो लोकाधिकं माहात्म्यम् । अत्र यो न जिगीषुरपि तु भीतः, तस्य न जगत्प्रयजय इति विरोधः । अविरोधस्तुक्त एव । लोकजयस्यैष प्रकारो लोकविलक्षण इत्यर्थान्तरन्यासेनाह-महताम् , चातुरी 2010_ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिकलव्याख्याविभूषितः साध्यसाधनदक्षता, काऽपि लोकविलक्षणा । फथमन्यथा तादृशोऽपि सन् लोकं जयति । उक्तप्रकारेण लोकजयचातुरी वीतरागसहशानां महतामेव, नाऽन्येषामिति सा लोकविलक्षणा । निरवद्यो निरीहश्च भगवानेवेति लोकाधिकं माहात्म्यं भगवत इति भावः ॥ ३ ॥ लोकजयाच्च प्रभुत्वमयत्नसिद्धमित्याहदत्तं न किञ्चित्कस्मैचिन्नाऽऽत्तं किश्चित्कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाऽप्येतत् कला काऽपि विपश्चिताम् ॥४॥ दत्तमिति- भगवन् !, त्वया, कस्मैचित् , किश्चिद् = धनधान्यादिकम् , न दत्तम् । निष्परिग्रहत्वेनाकिञ्चनत्वादिति भावः । ननु यो ददाति स एव प्रभुरिति न नियमः, करादिग्रहीता हि प्रभुलॊके कथ्यते इति चेत्तत्राह-कुतश्चन, किञ्चित् करादिकम् , न, आत्तम्-गृहीतम् , निरीहत्वादिति भावः । तथापि आदान प्रदानयोरभावेऽपि, ते-तव, प्रभुत्वम्-ईश्वरत्वम् । अस्तीति शेषः । अतिशयादिना तस्य सिद्धत्वादिति भावः । यद्वा लोकजयाल्लो. कप्रभुत्वमयत्नसिद्धं नाऽऽदानप्रदाने अपेक्षते । "प्रभुत्तेश्वरी विभुः" (अ. चि० ३।३५९।) इति । अत्राऽर्थान्तरन्यासमाहविपश्चिताम-सङ्ख्यावताम् , "व्यक्तो विपश्चित्सङ्ख्यावान् । (अ. चि. ।३।३४२।) इति । कला-शिल्पम् , विधिपटुतेति पवित् । “शिल्पं कला विज्ञानं च" (अ. चि. ३९००1) 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीवीतरागस्तवे एकादशः प्रकाशः इति । काऽपि = अद्भुता । कथमन्यथा लोकप्रसिद्धोपायं विनैव प्रभुत्वम् ? । आदानप्रदानादिकं विनैव भगवतः प्रभुत्वमिति विलक्षणं माहात्म्यम् । न राजादिवत्प्रभु भगवान्, किन्तु लोकोत्तरगुणापेक्षमलौकिकं प्रभुत्वं तस्येति भावः ॥ ४ ॥ प्रभुत्वं सुकृतफलमिति जगदधिकसुकृतमपि भगवतो माहात्म्यमित्याह - , यस्यापि दानेन सुकृतं नाऽर्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ ! पादपीठे तवाऽलुठत् ॥ ५ ॥ यदिति – नाथ !, यत् सुकृतम् - पुण्यम्, " स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृष " इत्यमरः । परैः = बौद्धादिभिः, देहस्य = स्वदेहस्याऽपि, आदिना देहदानस्याऽन्यदानाऽपेक्षया दुष्करत्वं सूच्यते । नहि जीवस्य देहादधिकं किमपि रक्षणीयं प्रियं च भवतीति भावः । दानेन समर्पणेन कृत्वा, अत्र कस्यचि - द्वौद्धस्य सिंह क्षुत्पीडितायै तद्दुःखनिवारणमनसः करुणार्द्रस्य स्वदेहदानकथाSनुसन्धेया । न अर्जितम् = सञ्चितम् । यथा जगस्प्रभुत्वभवविच्छेदादिकं भवेत्तथा पुण्यं नार्जितम् दानस्याsविशुद्धत्वात् । शरीरस्य नानाकृमिकुलाकुलत्वात् । दानं हि तदेव प्रशस्यते, येन सर्वेषामुपकारो भवतु मा वा, अपकारस्तु कस्याऽपि मा भूत् । किञ्च दानं पुण्यानुबन्धि, न तु निरनुबन्धं कर्मेति भावः । तत् = तादृशम् जगत्प्रभुत्वादिफलं सुकृतम् । , 2010_dor Private & Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाभ्याख्याविभूषितः तव = वीतरागस्य दानादिफलं भवपरम्परैवेतिरहस्यविदः, अतएव, हदासीनस्य = दानाऽऽदानादिसानुबन्धक्रियारहितस्य, निरनुबन्धकियस्येति यावत् । पादपीठेऽलुठत् = तव तादृशपुण्यानपेक्षतया तत्पुण्यं तव पादतलं सेवत इव । यो हि यदनपेक्षो भवति, से तस्य चरणं सेवत इति लाक्षणिको लौकिक: प्रयोगः । भगवतो निरनुबन्धक्रियतया मुक्तिरेव दासीभूतेति तत्र पुण्याऽनुबन्धिपुण्यस्य तच्चरणकैङ्कमप्यतिबहिति भावः । जगदुत्तममुकृतवान् भगवान् जगत्प्रभुरिति हृदयम् ॥५॥ __ प्रभुहि भीमकान्तगुणवान् भवतीति प्रतिपादयन् भगवतो वीतरागत्वं सर्वजगदुपकारकत्वं चाऽऽह रागादिषु नृशंसेन सर्वात्मसु कृपालुना । भीमकान्तगुणेनोचैः साम्राज्यं साधितं त्वया ॥६॥ रागादिष्विति-भगवन् !, त्वया, रागादिषु-रागद्वेषादिषु, विषये, नृशंसेन-धातुकेन, " नृशंसो घातुकः क्रूर" इत्यमरः । थमन्यथा रागादिविनाशनं भवत इति भावः । एतेन वीतरागो भगवानिति प्रतिपादितम् । तथा, सर्वात्मसु = सर्वजीवेषु, कृपालुना=निर्हेतुकरुणावरुणालयेन, कथमन्यथा सर्वसावधविरत्युपदेशो भगवत इति भावः । अतएव, भीमकान्तगुणेन-भीमो भयापादकः कान्तः स्पृहणीयश्च गुणो यस्य, तादृशेन सता, नृशंसता भीमो गुणः, कृपालुता च कान्तो गुंणः । यद्वा नृशंसता 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागत कादशः अकाराः गुणः सामान्यतो भीमोऽपि कान्तः, रागादिविषयत्वाच्छ्योनिमित त्वात् । कृपालुतागुणश्च सामान्यतः कान्तोऽपि सर्वात्मविषयत्व दुष्करत्वाद्भीमः । एवं च भीमश्चासौ कान्तश्च, स तादृशो गुमो यस्य, तेन तादृशेन सतेत्यर्थः । एतच्चाऽपि माहात्म्यं भगवतो यद्यदेव भीमः स एव कान्तोऽपीति । अन्यत्र भीमस्य कान्तस्य च गुणस्य पार्थक्येनैवोपलब्धेरिति ध्येयम् । उच्चैः सर्वोत्कृष्टम् , साम्राज्यम् प्रभुत्वम् , त्रिजगत्प्रभुत्वमिति यावत् । न झन्यस्य तादृशं साम्राज्यमितिभगवतस्तदुच्चैरेव भक्तीति भावः । यो हि रागादिप्रणयी, अतएव व्यक्तिविशेष एव कृपालुश्च, तस्य न कदापि तादृशं साम्राज्यमपि । यो हि वीतरागः स एव सर्वात्मर कृपालुश्च भवितुमर्हति । तादृशश्च भगवानेवेति भगवतो महन्माहास्यमिति हृदयम् ॥ ६ ॥ नन्वेतावता वीतरागे सर्व गुणा एव, दोषाःपुनरन्यत्रैवेत्यायातम् , एतच्चातिबहितिचेदेवमेतदित्याह सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः ।। स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या तत्प्रमाण सभासदः ॥२॥ सर्वेइति --अन्येषु = बौद्धादिषु, सर्वात्मना = सर्वप्रकारेण, सर्वे-रागादयः, दोषाः भवपरम्परादिदूषणनिमित्तानि, सन्तीतिशेषः । पुनरिति विशेषे, तदेवाह-त्वयि-भगवति भवति वीतरागे, गुणाःजगदुपकारित्वविरक्तत्वादयो गुणपदवाच्याः, निरनुबन्धत्वादिति भावः । सर्वे सर्वात्मनेति सम्बध्यते, सन्तीति शेषः । ननु सर्वः स्वमुत्कृष्ट कथ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्सिकडायास्याविभूषितः तीति न तत्प्रमाणमिति चेत्तत्राह-इचम्-त्वयि सर्वे गुणाः सर्वात्मनेयुक्तप्रकारा, स्तुतिः-माहात्म्यवर्णनम् , मिथ्या असत्या, निर्मूला, कल्पिता वेति, चेत् यदि, तत्-तर्हि, सभासदः सभ्याः परीक्षकाः, प्रमाणम् =अवधेयवचना निणेतारः, अत्र विषये इति शेषः । विवादे हि सभ्य एव निर्णता, स यदि 'इथं स्तुतिमिथ्ये' ति व्यवस्था हदाति, तर्हि सा तथा, अन्यथा त्वन्यथा । वीतरागो हि निर्दोष इस्याबालगोपालं प्रतीतः, दोषमूलस्य रागस्यैव तत्राऽभावादिति सभ्या मदुक्तार्थमेव समर्थयन्तीति नाहं 'स्वमुत्कृष्टं कथयती' त्येवं वचनीय इति भावः । वीतरागः सर्वगुणपात्रमिति विलक्षणं माहात्म्यं तस्य, कोऽपि किमपि वा जल्पतु, सभ्यास्तु मदनुकूला एव युक्तिविचक्षणा इति हृदयम् ॥७॥ तादृशस्य महतः स्तुत्या स्वस्य कृतार्थत्वं प्रतिपादयन्नुपसंहरति महीयसामपि महान् महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥८ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे एकादशः प्रकाशः ॥११॥ - महीयसामिति-महीयसाम् अन्यैः महत्तरत्वेन स्वीकृतानां पौद्धादीनाम् , अपिना महदादीनां तु कथैव केति सूच्यते । महान् उत्कृष्टः, सर्वात्मना सर्वगुणवत्त्वेन सभ्यः समर्थितत्वादिति 2010_03r Private & Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीवीतरागस्तवे द्वादशः प्रकाशः 1 " भावः । अतएव, महात्मनाम् - देवेन्द्रादीनाम् । योगिनामप त्यर्थबलाल्लभ्यते । महनीयः - पूजनीयः, ध्येयश्च । यो हि सर्वं महान् स सर्वैरपि पूज्यते इति भावः । अतएव, स्वामी = नाथः, स तादृशः, स्तुवतः - स्तुतिं कुर्वतः मे - ममा महात्मनोऽवि स्तुतेः, गोचरम् = विषयत्वम् आगमत् = प्राप्तः, इत्येतद् अहो ! = सानन्दाश्चर्यजनकम् । दुर्लभस्य लाभो हि मादृशस्याs ल्पस्य हर्षातिरेकजनको विस्मयजनकश्च । तथा च परं कृतार्थों ऽस्मि । यदुक्तम् - " इदं हि भवकान्तारे जन्मिनां जन्मनः फलमि ' ति । सर्वमहान् वीतराग एव स्तोतव्यः, ततश्चाद्भुतलाभ इति भावः ॥ ८ ॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्ति कलाख्यायां व्याख्यायां एकादशः प्रकाशः ॥ ११ ॥ स्तुवन्नाह - " द्वादशः प्रकाशः भगवतः सर्वात्मना सर्वगुणवत्त्वं वैराग्यमूलमिति वैराग्यद्वार पट्वभ्यासादरैः पूर्व तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म तत्सात्मीभावमागमत् ॥ १॥ पट्वभ्यासेति -- वीतराग ! त्वम्, पूर्वम् = पूर्वजन्मनि, पट्व भ्यासादरैः = पटुभिरिष्टसाधनक्षमैः, अभ्यासैः क्रियाभ्यावृत्त्या वैर 2010_dor Private & Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाब्याख्याविभूषितः यभावनैः, आदरै वैराग्यविषयसम्यग्रुचिभिश्च कृत्वा, यद्वा पटवो निरन्तरतया निरतीचारतया च प्रशस्ता ये अभ्यासेषु आदराः सरुचि पुनःपुनर्भृशं च निरन्तरविशुद्धवैराग्यभावनानीत्यर्थः । तैः कृत्वा । तथा-तेन प्रकारेण, वैराग्यम्-विरतिम् , आहरः समचिनोः, वीत गाणां बहतां पूर्वजन्मन्यर्हद्भक्त्यादिस्थानकोपासनस्याऽऽगमादिषु प्रतिपादितत्वादिति भावः । यथा-येन प्रकारेण, इह = चरमे, जन्मनि भवे, आजन्म = जन्मन एवाऽऽरभ्य, तद् = वैराग्यम् , सात्मीभावम् तादात्म्यम् , आगमत् = प्रापत् । दीक्षाग्रहणात्पूर्व केषाश्चिच दारादिपरिग्रहः कर्मफलस्याऽनिवार्यत्वादेव, नतु रागादिति ध्येयम् । यद्धि सदभ्यस्तं भवति, तत्तादात्म्यमेति, तच्च नैकेन जन्मना । यदुक्तम्-" अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिमि" ति । न पर इवेह जन्मन्येव विरक्तो भगवान् , किन्तु पूर्वजन्मत एव तथाप्रवृत्तिकः । अत एव सहजविरागगुणवान् , न च सहजवैराग्यं विना तादृशभुवनाद्भुतगुणलाभः । सहजविरक्तत्वाच्च सर्वे सर्वात्मना गुणा भगवति, कदापि दोषमूलस्य रागस्याऽभावात् , सर्वदैव गुणमूलस्य विरागस्य सद्भावाचेति भावः ॥१॥ तच भगवतो वैराग्यं विलक्षणमित्याहदुःखहेतुषु वैराग्यं न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीवीतरागस्तवे द्वादशः प्रकाशः दुःखेति-नाथ !, दुःखहेतुषु = शोकनिमित्तेषु, यतो दुः जायते, तेषु, यथा व्याध्यादिषु, नहि कोऽपि कदापि तदि च्छति । वैराग्यम्-अनासक्तिः, विरतिरित्यर्थः । यद्वा दुः हेतुविष्टवियोगादिषु सत्सु जातं वैराग्यम् , तथा = तादृशम् | निस्तुषम् निरावरणम् , निरुपाधिकमित्यर्थः । निर्मलमिति यावा न-नैव । कृत्रिममिति समुदायार्थः । दुःखहेतुष्वतीतेषु तन्मूलन वैराग्यस्याऽप्यपायाकारणाऽभावे कार्याभावनियमादिति भावः । मोक्षोपायप्रवीणस्य मोक्षस्योपायः साधनं तत्र प्रवीणस्य कुशलस तज्ज्ञस्य च, ते तव, सुखहेतुषु-सुखजनकेषु स्रक्चन्दनाङ्गनादिषुः सुखहेतुषु सत्सु वा, यथा = यादृशम् , निस्तुषं वैराग्यमिति सम्बध्यते । सहजं हि वैराग्यमविशेषेण सुखहेतुषु दुःखहेतुष तेषु सत्सु च भवति, न च निवर्तते । ततश्च मोक्षं जायते, इतीदृशं मोक्षोपायं त्वमेव जानासि, अतस्त्वमाजन्म विरागवान पूर्वजन्मन्यपि च तदर्थ कृतश्रमः । अन्ये च न मोक्षोपायः प्रवीणा इति तेषां वैराग्यं दुःखहेतुषु । ततश्च तेषां मोक्षोऽपि न । कृत्रिमस्य वैराग्यस्य तदहेतुत्वादिति विलक्षणं त्वद्वैराग्यमिति भावः । जगदनित्यत्वादिभावनाया जातं वैराग्यमेव विशुद्धम् , दुःखहेतुत्वभावनया जातं च तत्सुखादिलाभे कदाचित्प्रतिपतेदपीति न तद्विशुद्धमिति विशुद्धविरागवान् भगवानेवेति ॥ २ ॥ सहजमपि तद्वैराग्यं नाऽविवेककवलितम् , येन तदकिञ्चित्कर स्यादित्याह 2010_ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः विवेकशाणे वैराग्यशस्त्रं शातं तथा त्वया । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षादकुण्ठितपराक्रमम् ॥३॥ विवेकेति-भगवन् , त्वया, विवेकशाणैः विवेको हेयोपादेयज्ञानम् , तदेव शाणा निकषोपलाः शस्त्रतक्ष्ण्यसाधनविशेषाः, तैः कृत्वा, वैराग्यशस्त्रम् वैराग्यमेव शस्त्रमिव कर्मवनकर्तनक्षमत्वाच्छस्त्रम् , तत् , तथा तेन प्रकारेण, शातम्=तीक्ष्णीकृतम् परिशोधितं च । यथा येन प्रकारेण, तत्-वैराग्यशस्त्रम् , मोक्षे-कर्मक्षये, अपिनाहेयस्य त्यागरूपे नाशेऽपि, साक्षात् अन्यव्यापाराव्यवधानेन, अकुण्ठितपराक्रमम् अनवरुद्धशक्तिकम् , सम्पन्नमिति शेषः । अविवेकपुरस्कृतेन हि वैराग्येन हेयवदुपादेयमपि सदनुष्ठानादिकं त्यजेत् , ततश्च न कर्मक्षयसम्भवः, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैरेव तत्सम्भवात् । विवेकपुरस्कृतेन च तेन हेयपरित्यागेनोपादेयोपादानेन च सम्यग्दर्शनादिना साक्षादेव तल्लाभः । अन्येषां च सम्यग्दर्शनाद्यभावादविवेककलितमेव वैराग्यं परैः स्वीक्रियमाणमपीति तदकिञ्चित्करमेवेति विलक्षणं वैराग्यं भगवतः । अत्र परम्परितरूपकाऽलकारः ॥३॥ ननु तस्य सहजं वैराग्यमित्यसद्वर्णनम् , देवेन्द्रभवे, चरमभवेऽपि च दीक्षाग्रहात्प्राग्नृपत्वे भोगोपभोगप्रवृत्ततया तत्र वैराग्यकथाया वाङ्मात्रत्वादिति चेन्न, तदाह यदा मरुनरेन्द्रश्री स्त्वया नाथोपभुज्यते । 2010_03or Private & Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे द्वादशः प्रकाश: ___ यत्र तत्र रति नाम विरक्तत्वं तदापि ते ॥४॥ यदेति-नाथ !, त्वया, यदा यस्मिन् भवे, चरमभवाप्राग्भवे, चरमभवेऽपि दीक्षाग्रहात्प्राक् , यत्र-यस्मिन् स्थाने विमाने मनुष्यक्षेत्रे वा, मरुनरेन्द्रश्री:-मरुतो देवाः, नराश्च, तेषामिन्द्रौ, देवेन्द्रो नरेन्द्रश्च, तयोः श्रीलक्ष्मीः, विमानसुखं राज्यसुखं चेत्यर्थः । उपभुज्यते अनुभूयते, तदापि-तत्तत्कालेऽपि, तत्र-तत्तस्थलेषु तादृशोपभोगेषु, ते तव वीतरागस्य, रतिः-आसक्तिः, विरक्तत्वं नाम-वैराग्यमेव किल । नामेत्यलीके । सा रतिरलीकैव । क्स्तुतस्तु . तद्वैराग्यमेव । तद्वैराग्यस्य विवेकपरिशुद्धत्वात् , कर्मफलभोगस्याऽपरिहार्यतयैव तबुद्धयैव कर्म क्षीयतामिति मनसिकृत्य हि जिनस्य तदुपभोगः, नत्वासक्त्या । कथमन्यथा तृणवत्तत्त्यक्त्वा तस्य दीक्षाग्रहणम् । ततश्च विवेकिनां विरक्तानां विषयसम्पर्कः कर्मक्षयार्थमेव, नतु व्यासङ्गादिति जिनः सहजविरक्त एवेति भावः ॥ एवञ्च जिनस्त्र विषयोपभोगसङ्गः सांसारिकत्वे वैराग्यमेव, अनासक्तिप्रवृत्तिकत्वादिति ॥ ४ ॥ न च वाच्यमुभयावस्थायां वैराग्यसत्त्वे दीक्षानर्थक्यमिति, द्वयोरवस्थयो वैराग्यस्य विलक्षणत्वादित्याह-- नित्यं विरक्तः कामेभ्यो यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १०९ नित्यमिति-भगवन् !, कामेभ्यः = काम्यन्त इति कामा विषयास्तेभ्यः, नित्यम् जन्मतः प्रभृत्येव, विरक्तः तेष्वनासक्तः, कर्मक्षयार्थमेव तेषु प्रवृत्तेरिति ध्येयम् । एभिः कामैः, अलम्= कृतम् , अवश्यभोक्तव्यस्य भुक्तत्वात्पुनर्विरक्तस्य तदुष्परिणामाभिज्ञस्य विवेकिनः प्रवृत्तेरनुचितत्वादनावश्यकत्वाच्चेति भावः । इति इत्येवं कृत्वा. यदा भोक्तव्यभोगानन्तरम् , योगम-सर्वसावधप्रत्याख्यानरूपं व्रतम् , प्रपद्यसे- स्वीकरोषि, दीक्षां गृह्णासीति यावत् । तदा तादृशयोगग्रहणानन्तरम् , ते = तव वीतरागस्य, प्राज्यम् = परां काष्ठामापन्नत्वादतिप्रचुरम् , “ विशालं प्रचुरं प्राज्यं भूरी" त्यमरः । वैराग्यम्-विषयपराङ्मुखता, अस्ति-भवति । अनासक्त्याऽपि विषयसम्पर्कसत्त्वे यद्वैराग्यम् , तदपेक्षया सर्वसावद्यप्रत्याख्यानानन्तरं तत्सर्वविशुद्धम् , लेशतोऽपि दोषाभावादिति योगप्रपत्त्या वैराग्यमुत्कृष्यत इति न दीक्षानर्थक्यमिति भावः ॥५॥ ननु दीक्षाग्रहेऽपि मोक्षेच्छासत्त्वान्न सर्वथा तृष्णाक्षय इति कुतो वैराग्योक्तर्ष इति वाच्यम् । मोक्षेच्छायास्तृष्णारूपत्वाऽभावात् । किञ्च भगवतो एकान्तात्यन्तिकमाध्यस्थ्याद् मोक्षेऽप्युदासीनतया सर्वदैव वैराग्यमित्याह सुखे दुःखे भवे मोक्षे यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति कुत्र नाऽसि विरागवान् ॥६॥ सुख इति-यदा यद्यत्काले, सुखे-सुखतया प्रसिद्धे देवे 2010_03or Private & Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीवीतरागस्तवे द्वादशः प्रकाशः न्द्रनरेन्द्रश्याद्युपभोगरूपे, दुःखे = परीषहोपसर्गादिजन्यवेदनादौ, भवे-संसारे, मोक्षे = कर्मक्षयलक्षणे शाश्वताऽखण्डसुखात्मकमुक्ती, चोऽर्थाल्लभ्यते । औदसीन्यम-माध्यस्थ्यम् , उपेक्षामिति यावत् । रागादेरेकान्ततोऽत्यन्ततश्चाऽभावादिति भावः । ईशिषे = स्ववशं करोषि, तदा तत्काले, वैराग्यमेव, नहि वैराग्यं निषेधात्मकमेव । किन्त्वात्मस्थतयोपेक्षारूपेति भावः । इति ततो हेतोः, सर्वदोदा. सीनत्वात् । कुत्र = कस्मिन् काले स्थाने च, विरागवान् = विरक्तः, नाऽसि १ । अपि तु सर्वत्र विरागवानेवाऽसीत्यर्थः । सर्वदैव वीतराग इति भावः ॥ ६ ॥ जिनस्य वैराग्यं चाऽसाधारणमित्याह-- दुःखगर्भे मोहगर्भे वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं त्वय्येकायनतां गतम् ॥७॥ दुःखेति-भगवन् !, परे अन्यतीर्थिकाः, दुःखगर्भे दुःखमिष्टवियोगाऽनिष्टप्राप्त्यादिरेव गर्भो जन्महेतुर्यस्य, तादृशे, दु:खजनिते इत्यर्थः । तथा, मोहगर्भे मोहो मूर्छा, स एव गर्भो यस्य, ताशे, अज्ञानाऽनुविद्धे इत्यर्थः । वैराग्याल्लब्धिपूजादिलाभं दृष्ट्वा स्वशक्तिमविचार्यैव तल्लाभेच्छादिभि वैराग्यस्वीकारादिति भावः । वैराग्ये-विरतो, निष्ठिताः निष्ठावन्तः । तत्परा इत्यर्थः । कृताशया इति यावत् । तुर्विशेषे भिन्नक्रमः, किन्तुज्ञानगर्भम = संसाराऽनित्यत्वविषयासेवनदुष्परिणामादिभावनाजनितहे 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाभ्याख्याविभूषितः १११ योपादेयविवेकविशुद्धम्, वैराग्यमेव श्रेय इति ज्ञानजनितमित्यर्थः । वैराग्यम्, त्वयि = भवति सम्यग्ज्ञानिनि, एकायनताम् एकमनन्यमयनमाश्रयो यस्य, तस्य भावस्तत्ताम्, एकाश्रयत्वमित्यर्थः । गतम् = प्राप्तम्, ज्ञानगर्भवैराग्यस्य त्वमेवैक आश्रयः । अन्यत्र तु दुःखगर्भ मोहगर्भ वा वैराग्यम् । एवञ्चाऽसाधारणं विशुद्धञ्च तत् तवेति त्वमेवैको बीतराग इति भावः ॥ ७ ॥ ननु य एकान्ततोऽत्यन्ततश्च विरक्तः, अलं तत्स्तुतिप्रयासेन । तत इष्टसिद्धेः सम्भावनाया दूरापेतत्वादिति चेन्न । तदाह औदासीन्येऽपि सततं विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिघ्नाय तायिने परमात्मने ॥ ८ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे द्वादशः प्रकाशः ॥ १२ ॥ औदासीन्येऽपीति-वीतराग !, तुभ्यम्, सततम् = सर्वदैव, न तु यदाकदाचिदेव, औदासीन्ये = उपेक्षायां सत्यामपि, अपिना महद्वैशिष्ट्यं भगवतो यदौदासीन्येऽप्युपकारकरणमिति सूच्यते । विश्वविश्वोपकारिणे= विश्वेषां सर्वेषां विश्वानामुपलक्षणत्वात्तत्स्थजन्तुनामुपकारिणे सदुपदेशदानादिना हितकराय, तीर्थङ्करनामकर्मप्रभावादिति भावः । अत एवोदासीनस्योपकारकत्वं विरुद्धमप्यविरुद्धम् । अत एव तायिने = पालकाय, यो ह्युपकरोति, स एव पालक 2010_dor Private & Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे त्रयोदशः प्रकाशः इति भावः । वैराग्यनिघ्नाय वैराग्ये निघ्नो निष्ठितः, वैराग्यमयायेत्यर्थः । अत एव, परमात्मने परमात्मस्वरूपाय, यो हि वैराग्यमयः, स एव परमात्मा, न तु जातु विषयासक्त इति भावः । नमः नमस्कारोऽस्तु । स एव प्रणम्यो नाऽन्यः इति भावः । अत्र सततमुदासीनो वैराग्यनिघ्नश्चैक एवार्थ इति पुनरुक्ति ने शङ्कनीया । वैराग्यद्वाराऽत्र प्रकाशे भगवतःस्तुति. विषयत्वादुपक्रमोपसंहारयोरेकरूपतानिर्वाहाय तदुपादानादित्यवधेयम् ॥ ८॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकी. र्तिकलाख्यायां व्याख्यायां द्वादशः प्रकाशः ॥ १२ ॥ त्रयोदशः प्रकाशः यद्यपि भगवानुदासीन इति निस्पृहः, तथापि विश्वोप काराय जायते तत्प्रवृत्तिरितीष्टत्वात्तं सप्तसु विभक्तिषु प्रत्येकं यथा क्रमं तत्तद्विभक्त्यन्तैःपद्यैः स्वव्युत्पत्तिविशेषं भङ्गया प्रदर्शयन्स्तौति अनाहूतसहायस्त्वं त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥१॥ अनाहूतेति-भगवन् !, त्वम् , अनाहूतसहाय: अनाहूतोऽ नाकारित एव सहायः सयात्रः. सुखदःखसंविभागिरित्रमित्यर्थः 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ११३ "सहायस्तु सयात्र:स्यादि " त्यमरः । न च केनाऽपि परेष्टदेवादिबद्दीनवागादिनाऽऽहूतस्तथा, स्वत एव सदुपदेशादिभि भव्यानां भवदुःखोच्छेदोपाये प्रवृत्तरित्येतद्वशिष्ट्यं भगवस्येव । ननु नाऽनाहूतःक्वापि सहायो दृष्टइति चेन्न, तदाह-त्वम् , अकारणवत्सलः अकारणं कृतार्थतया निर्हेतुकमेव परमकारुणिकत्वाद् वत्सलः स्निग्धः । “ स्निग्धस्तु वत्सलः " (अ..चि.।३। ४७८) इति । प्राणिषु निर्हेतुकस्नेहसद्भावादेवाऽनाहूतसहायः, यो हि सहेतु सहैति, स एवाऽऽह्वानमपेक्षत इति भावः । एषञ्चाकारणवत्सलस्याऽन्यस्याभावादेव तादृशदृष्टान्ताभाव इति सूचितम् । अत एव, त्वम् , अनभ्यर्थितसाधुः = अनभ्यर्थितोऽप्रार्थित एव साधुः परोपकारी । यो हि कारणं विनैव स्नियति, स कथमुपकारे प्रार्थनामपेक्षताम् । अत एव च, स्वम् , असम्बन्धबान्धवः असम्बन्धो न सम्बन्धो भ्रातृत्वादि यस्य स ताशश्चाऽसौ बान्धवो बन्धुवत्साहाय्यस्नेहोपकारादिप्रवृत्तत्वात्स्वजन इव । " अथ बान्धवः । स्वो ज्ञातिः स्वजनो बन्धुः सगोत्रश्च" (अ. चि. १३५६११) इति । सहायो यदाकदाचित्साधुस्तु सर्वदा, तथा स्नेहवानेव वत्सलः । बन्धुस्तु न वत्सल एव, किन्तु सहायः साधुरपि चेति तत्तद्विशेषणानां न पौनरुक्त्यमित्यवगन्तव्यम् ॥१॥ विरोधाऽभासमुखेन स्तुवन्नाहअनक्तस्निग्धमनसममृजोज्ज्वलवाक्पथम् । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे त्रयोदशः प्रकाशः अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ अनक्तेति-वीतराग !, अनक्तस्निग्धमनसम्-अनक्तम् कर्मरजःसंश्लेषकत्वान्मोहस्तैलादिस्नेह इवाऽभ्यङ्गोऽञ्जनम् , न तेनाऽक्तं सलिलमित्यनक्तम् , मोहाद्यभ्यङ्गसम्पर्कशून्यमपि, स्निग्धं वत्सलं मनो यस्य जन्तुषु, तं तादृशम् । अकारणवत्सलमिति यावत् । अत्र नाऽक्तं तैलाद्यभ्यङ्गरहितं तत्कथं स्निग्धं तेलादिस्नेहसम्पृक्तमिति विरोधः । परिहारस्तुक्त एव । तथा, अमृजोज्ज्वलवाक्पथम् अमृजम् न मृजा शोधनं यस्य तत् , भास्वरतापादकसंस्कारशून्यमपि, । उज्ज्वलं यथार्थत्वादवदातं वाक्पथं देशनापद्धतिर्यस्य, तं. तादृशम् । न हि भगवतो वचःशुद्धिः शास्त्राद्यध्ययनरूपां मृजामपेक्षते । निसर्गसम्यक्त्ववत्त्वात्केवलित्वाचेति भावः । अत्र यदमृजं न तदुज्ज्वलमिति विरोधः । तत्परिहारस्तुक्तप्रकारेण । तथा, अधौतामलशीलम् न धौतं प्रक्षालितम् , निसर्गवैराग्यात्परिकर्मरहितम् । तथाऽप्यमलमतीचारादिदोषरहितत्वात्परिशुद्धमनवचं शीलं चारित्रं यस्य, तत्तादृशम् । सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानान्निर्मलचारित्रवन्तमित्यर्थः । अत्राऽपि यन धौतं न तदमलमिति विरोधः । परिहारस्तूक्तप्रकारेणार्थेन कृत. एव । ननु भवतु तस्य तत्सर्वम् , तावता न स्वस्य कोऽपि लाम इति चेत्तत्राह-शरण्यम् शरणे रक्षणे साधुं दक्षम् । अत एव, शरणम्-रक्षकम् , त्वाम् भवन्तं वीतरागमेव, श्रये-प्रपन्नोऽस्मि । यो हि सहेतु स्निग्धः, स न यथार्थवक्तोज्ज्वलवाक्पथः, 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः ११५ अत एव च चारित्रहीनोऽपि स्यादिति स न तदर्हः, स्वयमसिद्धत्वादिति भावः ॥२॥ भगवतः सहेतु सकलकर्मक्षयमाहअचण्डवीरव्रतिना शमिना समवर्तिना । त्वया काममकुट्यन्त कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥३॥ अचण्डेति—अचण्डवीरव्रतिना अचण्डोऽकोपनः, स चाऽसौ वीरव्रती च वीरवत्प्राणात्ययेऽपि प्रतिज्ञातनिर्वाहकः कर्तव्ये वर्धमानो साहो लक्ष्यसिद्धिं विनाऽपरावर्ती च, तेन तादृशेन, नन्वचण्डो वीरव्रतीति विरुद्धमित्यत आह-शमिना निस्तृष्णेन, सतृष्णस्य हि कोप इति भावः । शमे भङ्गया मानमाह-समवर्तिना-समं सदृशं सर्ववस्तुषु यथा स्यात्तथा वर्तते व्यवहरतीति सः, समदृष्टिरित्यर्थः । अन्तकश्च । तेनेवेति ध्वनिः । “ समवर्ती परेतराडि" त्यमरः । कथमन्यथाऽविशेषेण सदुपदेश इति भावः । अत एव, त्वया भवतैव, कुटिला: श्रेयःप्रतिपन्थित्वात्प्रतिकूलत्वादनुजवः, कर्मकण्टकाः कर्माणि कण्टका इव दुःखाऽनुबन्धित्वात्ते, कामम् अत्यर्थम् , साकल्येनाऽपुनर्भवरूपेण च यथा स्यात्तथा, अकुट्यन्त विनाशिताः । अन्तकेन जीव इव भवता कर्माण्यकुट्यन्तेत्यर्थः । नानीदृशः कोऽपि तादृशः कर्मनाशक इति त्वमेव सर्वमतिशेषे इति भावः ॥३॥ अतएवअभवाय महेशायाऽगदाय नरकच्छिदे । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरसातवे मोदछः प्रकाशः अराजसाय ब्रह्मणे कस्मैचिद्भवते नमः ॥४॥ अभवायेति--अभवाय न भवः शिवः, तथा न भवो जन्म तद्धेतोः कर्मयः साकल्येन नाशाद्यस्य स तारशः । तस्मै, भवभिन्नाय जन्मजरापरिग्रहादिरहिताय च । भवो हि दारपरिग्रहादिविशिष्ट इति तद्भिन्नो भगवानिति भावः । अतएव, महेशाय-महान् सर्वोत्कृष्ट ईश:सहजाद्यैश्वर्यशाली, तस्मै । अथ च शिवाय । " व्योमकेशो भवो भीमः", "शिवःशूली महेश्वर" इति चामरः । यो न भवः स न महेश इति विरोध: पक्षान्तरेण परिहरणीयः । तथा, अगदाय-गदो रोग स्तद्रहिताय, अथ च गदाख्यशस्त्ररहिताय, तथा, नरकच्छिदे-मुक्तिमार्गोपदेशेन भव्यान नरकविनाशनाय, अथ च नरकासुरहन्त्रे विष्णवे । अत्र यो नरकच्छिद्विप्णुः, स कथं गदारहितः स्यात् , तस्य सर्वदा गदाधरत्वादिति विरोधः। अर्थान्तरेण तु तत्परिहारः । तथा, अराजसाय= रजोगुणशून्याय, शुद्धसत्त्वात्मने इनि यावत् , तथा, ब्रह्मणे = सिद्धरूपेणाऽक्षरस्वरूपाय । यदुक्तम्-" अक्षरं ब्रह्म परमम् " इति “ अहमित्यक्षरं ध्येयमि" ति च । अथ च विधये, “स्रष्टा प्रजापतिबंधा विधाता विश्वसृड्विधिः", " ब्रह्मात्मभूरि" ति चामरः । ब्रह्मा हि रजोगुणमालम्ब्यैव जगत्सृजतीति यो न राजसः स कथं ब्रह्मेति विरोधः । परिहारस्तुक्त एव । तादृशाय, भवते तुभ्यं वीतरागाय, कस्मैचित् = विरोधाभासिगुणात्मकत्वादनिर्वचनीयस्वरूपाय, 2010_Bor Private & Personal Use Only ___ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिवालावाखाविभक्तिः - - THEATER बमः = नमोऽस्तु । साकल्येन कर्मक्षयसद्धावान्मूलाभावाद्भवादिसाहित्यं भगवत एव नान्यस्येति सर्वथा भगवानेव नमस्करणीय इति भावः ॥४॥ वीतरागादेवेष्टसिद्धिसम्भव इत्याहअनुक्षितफलोदग्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥५॥ अनुक्षितेति-अनुक्षितफलोदग्रात न उक्षितः सिक्तः, सेक विनैवेति यावत् । फलैः कृत्वोदन उन्नतः, उत्कृष्टफलप्रद इत्यर्थः । तस्मात्तादृशात् । वृक्षादेहि फलं सेकसम्बर्षिताल्लाककमRA परदेवाश्च वल्यादिप्रदानरूपसेकालापुत्राविरूपलाNिTतु बीतरात्वानिहेतुकपरमकारुणिकालाघडलकिक - प्रकारसेकं विनैव ददातीत्यत एव स एवं फलोवमा नया भावः । “तुङ्गमुच्चमुन्नतमुधुरम् । प्रांशुच्छ्रितमुष का चि. ।६।१४२८-२९।) इति । तथा – अनिपातगरीयसानिपातोऽधोगमनं यस्य स चाऽसौ गरीयांश्च, स ततः, अप्रतिपातिनो गुरुतरादित्यर्थः । क्षायिकभावस्थतया मुक्ततथा प्रतिपातस्य स्वकक्षास्खलनरूपस्य कथाया अप्यनवसरात् , अतएव च जगदुरोः । नत्वन्यदेववदवतारादिना प्रतिपातिनो रागादिमत्त्वेना. शुरोति भावः । ननु भवतु स तथा, तव को लाभ इलि चेतनाह-- असङ्कल्पितकल्पद्रोः = असक्कल्पितस्याऽवाञ्छितस्थाऽपि 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे प्रयोदशः प्रकाशः - - कल्पद्रुस्तद्वत्प्रदायकः, तस्मात् । कल्पद्रुर्हि सङ्कल्पितं ददाति, आ वसङ्कल्पितमपि जगद्धितकृत्तया ददाति ज्ञानादिकम् , अप्रार्थितस्यै व तस्योपदेशप्रवृत्तरिति भावः । एतादृशात् , त्वत्तः = भवतो वीतरागत एव, फलम्=निजेष्टम् , अवाप्नुयाम्=लभेय । नाइ न्यतः, तेषां दुराराध्यत्वादपकृष्टत्वाच्च तेभ्यः फलप्राप्ते दुष्करः त्वादसम्भवत्वाच्चेति भावः । अत्राऽनुक्षित एव फलप्रद इति. अनिपातो गरीयानिति, असङ्कल्पितस्य कल्पद्रुरिति च विरोधः परिहारस्तुक्त एव ॥५॥ अत एव तस्यैव कैङ्कय युक्तमित्याहअसङ्गस्य जनेशस्य निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्त्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः ॥६॥ असङ्गस्येति - असङ्गस्य = वीतरागत्वाद्विषयासङ्गशून्यस्य जनेशस्य-जनेष्वीशः सर्वातिशायिगुणवत्त्वादीश इव, ईशो ह्यधिक गुणवान् भवतीति भावः । अत्राऽसङ्गो न जनेश इति विरोधः । तथा, निर्ममस्य-वीतरागत्वादेव ममत्वरहितस्य, कृपात्मनः परम कारुणिकस्य । निर्हेतुककारुण्यविशिष्टस्य, तीर्थकरनामकर्मप्रभावादिति भावः । अत्र कृपालुममतावान् दृष्ट इति विरोधः । तथा = मध्यस्थस्य-वीतरागत्वादेव हिताहितयोरुदासीनस्य, जगत्त्रात:विश्वपालकस्य, सद्धर्मोपदेशादिना भवभीतानां त्राणादिति भावः । अत्र मध्यस्थो न जगत्त्रातेति विरोधः । ते = तव तादृशस्य 2010_ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाग्याख्याविभूषितः " अनङ्कः- दण्डपुण्ड्रादिचिह्नरहितः, निष्कलङ्क इति स्म परदेवभक्ता हि तत्तद्देवभक्तिसूचकं दण्डपुण्ड्रादिमन्तो भवन्ति, अतएव सगरूपकलङ्कसहिताश्च, नाऽहं तथा । किन्तुं त्वं सेवनीय इत्येतावतैव चिह्नमनादृत्यैव च किङ्करः सेवकः, त्वदाज्ञाराधनादिवेति भावः । अस्मि । यो हि जनेशो दयालू रक्षकश्च तस्यैव कैङ्कर्य सफलम्, अनीदृशस्य तु तन्निष्फलं फल्गुफलं वेति तस्य किङ्कराः शोचनीया एवेति भावः । अत्र किङ्करोऽङ्कसहितो दृष्ट इति विरोधो बोध्यः । परिहार उक्तप्रकारः ॥ ६॥ कैर्यं हि नाज्ञापालनमात्रमपि तु सर्वथाऽऽत्मसमर्पण ・ मित्याह अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारले च त्वय्यात्माऽयं मयाऽर्पितः ॥७॥ अगोपित इति-अगोपिते - अनावृते, न तु कृपणधनवभूम्याद्यन्तर्हिते, रत्ननिधौ - दर्शनादिरत्नत्रयाकरे, निधिर्हि गोपितो भवतीति विरोधः । किञ्च परे देवा ज्ञानादिमत्त्वेन वर्णिता अपि न प्रकटाः, त्वन्तु प्रकट इति भावः । तथा, अवृते - वृति - हिते, सस्यवृक्षादिरक्षणाय क्षेत्रादीनां कण्टकादिवेष्टनं वृतिः । प्रभुस्तु कण्टकतुल्यकर्मरूपावरणरहितः । तस्मिन् तादृशे, कल्पवादपे = सर्वोत्कृष्टमुक्तिरूपेष्टप्रदत्वात्कल्पद्रुतुल्ये, अत्र पादपो वृतिहान् भवतीति विरोधः । अचिन्त्ये = सर्वातिशाय्यलाकिकानन्त " 2010_dor Private & Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीवीतरागस्तवे नवोदशः प्रकाशः गुणवत्त्वेन विचारागोचरे, ज्ञानातीत इति यावत् । चिन्तारये स्वयं निरीहोऽपि फलप्रद इति चिन्तारत्नतुल्यः- तस्मिन्, ह्यचिन्तितमपि ददाति स चिन्तितं ददातीति सिद्धमेवेति चिन्तार इत्यप्यर्थः । चिन्तारस्नं हि नाऽचिन्त्यमिति विरोधः । समुच्चये, त्वयि = तादृशे भवति विषये मया स्तोत्रा, अयम् स्तुतिक्रियोपयुक्तः, आत्मा - स्वः, अर्पितः = त्वदेकतानः कृतः, त्वदेकाश्रयः कृतो वा । आत्मार्पणे हि न किमप्यवशिष्य यदन्यस्य स्यादिति सर्वथा तवैवाऽस्मि, अचिन्तितस्याऽपि रत्नावृति प्रभृतेर्ला भानुषङ्गार्थमिति ॥ ७ ॥ प्रभृतेर्लाभानुषङ्गार्थमिति , आत्मसमर्पणप्रयोजनं ज्ञापयन्नुपसंहरति- फलानुध्यानवन्ध्योऽहं फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ किङ्कर्त्तव्यजडे मयि ॥८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्त इति त्रयोदशः प्रकाशः ॥ १३ ॥ फलेति-अहम् = अल्पज्ञोऽज्ञो वा जनः, फलानुध्यान वन्ध्यः = फलानुध्याने किमिष्टमित्येवमनुचिन्तने, मम कः परमा इत्येवं विचारणे, वन्ध्योऽफलः, प्रयस्याऽपि परमार्थं न जानामी सारार्थः, अज्ञत्वादल्पज्ञत्वाद्वेति भावः । " वन्ध्ये मोघा फलमुधा । (अ. चि० | ६ | १५१६ । ) इति । तथा भवान् फलमात्रतनुम फलान्येव फलमात्रम्, सर्वमनन्तज्ञानदर्शनादिरूपं फलमित्यर्थः 2010_dor Private & Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8)* कीर्तिकलाभ्याख्याविभूषितः " तत्तनुः स्वरूपं यस्य स तादृशः, अनन्तज्ञानादिस्वरूपः । गुणगुणिनोरभेदादिति भावः । कृतकृत्यः कृतार्थश्चेत्यर्थः । अत एव भवन्तं प्रार्थये, यत् - यत्कृत्यविधौ - यद्यत्प्रकारं कृत्यं करणीयम् फलमुद्दिश्येत्यर्थबलाल्लभ्यते, तस्य विधौ प्रकारे विधाने वा, किङ्कर्त्तव्यजडे= किंकर्त्तव्यस्य कर्त्तव्यप्रश्नस्य जड उत्तरानभिज्ञः किङ्कर्त्तव्यताविमूढ इत्यर्थः । यः फलमेव न जानाति, तस्य तदुपायज्ञानस्य क्वावसर इति भावः । अतएव, तादृशे, मयि अज्ञे जने, निजात्मसमर्पके, प्रसीद । सिद्धफलो हि प्रसन्नः फलं तदुपायं च दर्शयेन्नान्य इति त्वत्प्रसादमेवात्मसमर्पणेनाऽभिलषामि, त्वत्तोऽन्यस्य सिद्धफलस्याऽभावादिति भावः ॥ ८ ॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां त्रयोदशः प्रकाशः ॥ १३ ॥ १२१ चतुर्दशः प्रकाशः सम्प्रति भगवतो योगं वर्णयन् मनोजयमाहमनोवचः कायचेष्टाः कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता मनः शल्यं वियोजितम् ॥ १॥ मन इति — कष्टाः कष्टप्रदाः, सावद्याः, न तु निरवद्या - अपि, तीर्थङ्करत्वादिति भावः । मनोवचः कायचेष्टाः = कायवाङ् 2010_dor Private & Personal Use Only - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीवीतरागस्तवे चतुर्दशः प्रकाशः मनोव्यापारान्, आस्रवानित्यर्थः । सर्वथा = सर्वैः प्राकारैः, संहृत्य = संवृत्य, ' आस्रवनिरोधः संवर' इत्युक्तेरिति भावः । अत एव, श्लथत्वेन शिथिलत्वेन, क्रियापराङ्मुखो मन्दक्रियो वा हि शिथिल उच्यते । एवकारोऽवधारणार्थः । भवता, मनः शल्यम् = मनसः शल्यं शङकुम्, तद्वत्कष्टप्रदत्वादशुभवृत्तिम् । वियोजितम् - दूरी कृतम् । अन्योऽपि हि विद्धशल्यो निष्क्रियः शिथिलाङ्गः सन् शरीरे विद्धं शल्यं वैद्यादेः सकाशादुत्पाटयतीति भावः । संवरेण कृत्वाऽऽस्रवं निरुध्य भवता मनोजयः कृत इति सारार्थः । एतेन मनोजयस्यैष एव प्रकारः प्रकारः साधीयान्न तु प्रकारान्तरमित्यपि ध्वन्यते ॥ १ ॥ इन्द्रियजयप्रकारमाह संयतानि न चाऽक्षाणि नैवोच्छृंखलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥२॥ संयतानीति - सम्यक्प्रतिपदा - सम्यम्ज्ञानिना, अतएव, त्वया, अक्षाणि - इन्द्रियाणि न च नैव, संयतानि - नियन्त्रिताणि, सर्वथा न निर्व्यापाराणि कृतानि इन्द्रियसत्वे सर्वथा तेषां निव्यापारत्वाऽसम्भवादिति भावः । उच्छृङ्खलितानि - नियन्त्रणशून्यानि, चः समुच्चये, नैव कृतानीति सम्बध्यते । अन्यथाऽसत्स्वपि प्रवर्तेरन्निति भावः । इति = एवम्प्रकारेण इन्द्रियजयः = इन्द्रियनिरोधः कृतः । नेन्द्रियजयः सर्वथेन्द्रियव्यापारनिरोधः, किन्त्वि , 2010_dor Private & Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः १२३ न्द्रियाणामसत्प्रवृत्तिनिरोध एव । शरीरयात्रार्थमिन्द्रियव्यापाराणामावश्यकत्वात् । सम्यग्ज्ञानी च भवानित्यतो. मव्यमोऽयं प्रकारो भवतः, ततश्चेन्द्रियजयः साध्यः । ये त्वज्ञाः सर्वथैवेन्द्रियाणां व्यापाररोधाय प्रवर्तन्ते, ते श्रेयोमूलं शरीरं वा पातयन्ति, सर्वथा निरोधाऽसम्भवाद्वेन्द्रियवशत्वमेव गच्छन्ति । अत इन्द्रियजयस्य भवदाश्रित एव प्रकार इति भावः ॥२॥ .. इन्द्रियमनोजय एव योगः, अन्यादृशस्तु प्रपञ्चमात्रमित्याह-- योगस्याऽष्टाङ्गता नूनं प्रपञ्चः, कथमन्यथा ? । आबालभावतोऽप्येष तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥ योगस्येति-योगस्य-चित्तवृत्तिनिरोधरूपस्य, “योगश्चित्त-- वृत्तिनिरोध” इत्युक्तेरिति भावः । अष्टाङ्गता-अष्टा अष्टसंख्यकान्यङ्गानि भेदा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिरूपाः पातञ्जलोक्ता यस्य तद्भावः, अष्टप्रकारतेत्यर्थः । ननमित्यलीके, प्रपञ्चः-विस्तारः । योगस्याष्टप्रकारतया विस्तारोऽलीकम् , किन्तु भवदनुष्ठितेन्द्रियमनोजयप्रकार एव वास्तविको योगः । तत्र व्यतिरेकेण हेतुमाह - अन्यथा = योगस्याऽष्टाङ्गत्वस्य तत्त्वरूपत्वे, कथम्-केनप्रकारेण, एष = योगश्चित्तवृत्तिनिरोधरूपः, आबालभावतः बाल्यादारभ्यैव, अपिरेवार्थे, जन्मत एवेति यावत् । भगवतो जन्मत एव ज्ञानत्रययुक्ततया योगस्याऽपि तत एव सत्त्वात्., अन्यथा ज्ञानाऽनुपपत्तेः । नवजितेन्द्रियमनोवृत्तेज्ञानसत्त्वे मानम-- 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भीवीतरागस्तवे चतुर्दशः प्रकाशः स्तीति भावः । तव भगवतो वीतरागस्य, सात्म्यम्=तादात्म्यम् , आत्मपरिणामत्वमिति यावत् , उपेयिवान् = प्राप्तवान् । भगवान् हि जन्मत एव योगी, यदि हि परोक्तो योगो नाऽलीकप्रपञ्चस्तर्हि तन्नोपपद्येत । यमनियमाद्यनुष्ठानस्य जातमात्रेऽसम्भवात् । संवर इन्द्रियाणामल्पप्रवृत्तिश्च बालतोऽपि ज्ञानिनः सम्भवत्येवेति परोक्तो योगप्रपञ्चोऽलीक एव । भगवदाश्रितमार्ग एव श्रेयानिति न भग. वतः परो योगीति भावः ॥३॥ योगश्च भगवतोऽलौकिको गुण इत्याहविषयेषु विरागस्ते चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि स्वामिनिदमलौकिकम् ॥४॥ विषयेष्विति-स्वामिन्! ते तव वीतरागस्य, चिरम् = अनेकप्राग्भवान् यावत् , इह भवे तु न, जन्मत एव योगसत्त्वात् । सहचरेषु-सार्धमवस्थितेषु प्रत्यक्षमुपलभ्यमानेषु, देहिनां हि शब्दादयो विषयाः सहैव तिष्ठन्ति, तत्राऽऽसक्तिस्तु स्यानवेत्यन्यदेतत् । एवञ्चेह जन्मन्यपि विषयाणां भगवत्सहचरतया प्रतिपादने न दोषः, भवस्थतां यावत्तत्साहचर्यस्याऽनिवायंत्वात । नहि साहचर्य भोगोपभोगौ । अत एवोत्तरार्धेत पीत्युक्तिः सङ्गतिमावहति । दृष्टेषु विरागोऽदृष्टेषु सात्म्यमित्याश. यात् । अथवोपभुक्ततया सहचरवस्थितेष्वित्यर्थः । अपिना सहचरे विरागासम्भवो द्योत्यते । साहचर्यस्य रागप्रयोजकत्वा 2010_ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकळाव्याख्याविभूषितः १२५ दिति बोध्यम् । विषयेषु = शब्दादिषु, विरागः = पराङ्मुखता, तथा, अदृष्टे = आत्मधर्मत्वादप्रत्यक्षे, पूर्वजन्मन्यनुपलब्धतयाऽसहचरे वा, योगे - इन्द्रियमनोजयरूपे योगे, सात्म्यम् = तादात्म्यमूला परमासक्तिः, इति, इदम् = दृष्टे विरागोऽदृष्टे सात्म्यं च, अलौकिकम् = लोकोत्तरम्, लोके ह्रदृष्टे विरागोऽनिच्छारूपो दृष्टे च रागो दृष्टः, तव तु तद्विरुद्धमित्यतोऽलौकिकमिदमित्यर्थः । ईदृशं वैशिष्ट्यं भवत्येव नाऽन्यत्रेति भावः ॥ ४ ॥ अपरमपि भगवतोऽलौकिकं गुणमाह ॥५॥ तथा परे न रज्यन्त उपकार परे परे । यथाऽपकारिणि भवानहो ! सर्वमलौकिकम् तथेति - भगवन् !, परे = अन्यतीर्थिकाः, उपकारपरे -हितकर्त्तरि, सेवके च, तथा तेन प्रकारेण, न, रज्यन्ते = स्निह्यन्ति, भवान्, यथा येन प्रकारेण, अपकारिणि = उपसर्गीदिविधानेनाहितकर्त्तरि कमठादौ, रज्यत इति वचनविपरिणामेन सम्बध्यते । अयं मम कर्मक्षयविधौ सहाय इति भवांस्तं हितकृतमेव मन्यते, इत्यतः परमा प्रीतिस्तत्र भवतः । अत एवाविशेषेण सर्वेभ्य एव हितमुपदिशति भवान् । अपकारिण्यप्रीतौ तु हितकृतमुद्दिश्यैव तथा विदध्यादिति भावः । तदेवम्, सर्वम् = भवतश्चरित्रमात्रम्, अलौकिकम्, लोकेऽन्यत्र तथाऽदर्शनादिति भावः । अहो ! = आश्चर्यजनकमेतत् । यद्ध्यश्रुताऽदृष्टपूर्वं तदद्भुतमेव अत एव, भवतीति भावः ॥५॥ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तव चतुर्दश: प्रकाशः अत एवहिंसका अप्युपकृता आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते के वा पर्यनुयुञ्जताम् ? ॥६॥ हिंसका इति-भगवन् !, त्वया, हिंसकाः वधोद्यता उपसर्गकरणप्रवृत्ताश्चण्डकौशिकादयः, अपिना हिंसकानामुपकाराऽनहत्वं ध्वन्यते, यद्वाऽहिंसकानां तु कथैवकेति सूच्यते । उपकृताः सन्मार्गप्रापणेनाऽनुगृहीताः । तथा, आश्रिताः आज्ञाराधनादिना भक्तिमन्तः, अपिना लोके आश्रितानामुपेक्षानहत्वं ध्वन्यते । उपेक्षिताः ताटस्थ्येनाऽवलोकिताः, व्यसनेभ्यो न रक्षिताः । सुनक्षत्रमुन्यादयो दह्यमाना अपि न रक्षिता इति प्रसिद्धमेवेति भावः । इदम्-हिंसकोपकरणाश्रितोपक्षेणरूपम् , ते तव वीतरागस्य, चरित्रम् आचरणम् , चित्रम् आश्चर्यम् , लोके तद्विपरीतप्रकारस्यैवोपलम्भादिति भावः । अत एव, के-किम्प्रकारा जनाः, पाकारोऽनास्थायाम् , पर्यनुयुञ्जताम् कथमित्थं कृतमिति प्रेरयन्तु ?, न केऽपीत्यर्थः । लौकिकानामलौकिकचरित्रविषयपर्यनुयोगस्यानर्हत्वात् , । एतदद्भुतं चरित्रं तवैव नाऽन्यस्येति भावः ॥६॥ __ भगवतः समाधेरलौकिकत्वमाह तथा समाधौ परमे त्वयात्मा विनिवेशितः । सुखी दुःख्यस्मि नाऽस्मीति यथा न प्रतिपनवान् ॥७॥ तथेति-भगवन् !, त्वया, परमे = इतरविलक्षणत्वादुत्कृष्टे, 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याच्याविभूमि समाधौ ध्यानकतानतायाम् , अध्यात्मल्ये इत्यर्थः । तथा तेम प्रकारेण, विनिवेशितः = स्थिरीकृतः, यथा = येन प्रकारेण, सुखी, दुःखी, अस्मि, नास्मि, इति एवं प्रकारेण विविक्तं किञ्चिदपि, न, प्रतिपनवान-ज्ञातवान् , समाधिस्थस्य तव निजामसत्ताऽपि लयं गच्छतीति तव समाधिरप्यलौकिको निर्विकल्पश्च । अन्येषां हि न तथेति भावः ॥ ७ ॥ समाधे वैशिष्टयवर्णनेन निर्विकल्पत्वं समर्थयतिध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं कथं श्रद्धीयतां परैः ॥८॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे चतुर्दशः प्रकाशः ॥ १४ ॥ ___ ध्यातेति-भगवन् !, त्वत्समाधाविति प्रकरणाल्लभ्यते, ध्याताक्षपकश्रेण्यारूढः, ध्येयम् = ध्यानविषयोऽर्हत्स्वरूपम् , तथा, ध्यानम्-ध्येयविषये तदेकतानता, इत्येतत् , त्रयम्-ध्यातृध्येयध्यानानि, एकात्मताम्=तादात्म्यम् , गतम् प्राप्तम् , निर्विकल्पके हि समाधौ न कोऽपि विकल्प इति तत्र ध्यातुर्येयस्य ध्यानस्य वा न विवेकेन भानसम्भव इति तत्र त्रयं तदात्म्यापन्नमेव भवति, अन्यथा विकल्पापत्तेः । एवञ्च कथं तत्राऽऽत्मसत्ताऽपि ज्ञायतामिति सुष्ठूक्तम् “न प्रतिपन्नवानि" ति । यद्वा-केवली शुक्लध्यानवानेव ध्याता, स एव चाऽन्येषां ध्येयः, ज्ञानतादास्याच्च 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीवीतरागस्तवे पञ्चदशः प्रकाश: स ध्यानमपि, ध्यानस्य ज्ञानविशेषत्वादिति त्रयमेकात्मतां गतः मिति भावः । इति उक्तत्रयैकाम्यरूपम् , ते, योगमाहात्म्यम् = समाध्युत्कर्षः, परी अन्यतीर्थि कैस्तथासमाधिशून्यैः, कथम् केन प्रकारेण, श्रद्धीयताम् एतत्तथेत्येवं रुचिविषयीक्रियताम् ?, अपि तु न कथमपि, स्वस्य तदभावादित्यर्थः । निजोपलब्धमेव लोकः श्रद्दधातीति भावः । भगवानेव परसमाधिमान्नान्य इति हृदयम् ॥८॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशः प्रकाशः ॥१४॥ पञ्चदशः प्रकाशः भगवतो गुणानां प्रत्येकं जगज्जेतृत्वमाहजगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवाऽऽसताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥१॥ जगदिति–त्रातः सन्मार्गप्रदर्शनादिना रक्षक !, तव, अन्ये, जगज्जैत्राः जगतां सर्वेषां जैत्रा जयनशीलाः, भगवद्गणानामन्यगुणतोऽत्युत्कृष्टत्वादिति भावः । गुणा: पूर्ववर्णिता अति. शयादयो विशेषणविशेषाः, तावदासताम्-न साम्प्रतं तेषामिहो. द्धाटनमपेक्षितमिति तथैव तिष्ठन्तु, यावता, उदात्तशान्तया 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) कीर्तिकलापमालिभारितः उदाताऽत्युत्कृष्टा, उदास, सुकवादिति भावः, सा चासौ शान्त सौम्या, उद्वेगाजनिकेत्यर्थः । अन्येषां तु मुद्रा दुष्करा भीषण चेति भावः । तया तादृश्या, मुद्रयैव = पर्यशासनादिरूपयैत्र, एसकारेमाऽन्यगुणापेक्षया मुद्राया अपकर्षो ध्वन्यते, जगत्वपी त्रिभुवनम् , जिग्ये अधरीकृता, तादृशमुद्राया अन्यत्राभावात् , हीनमुणो हि जित एव, उत्कृष्टगुणश्च जेतैव । मुद्रयैत्र पत्र जगस्त्रयजयस्तत्र ततोऽप्यधिकोत्कृष्टगुणान्तरेण जगत्त्रयजय इति किमु वक्तव्यम् । भगवतो गुणमात्रं जगज्जेविति भावः ॥१॥ तादृशस्य भगवतो दूषणे स्वस्यैव लाघवमित्याहमेरुस्तृणीकृतो मोहात्पयोधि!ष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो मरिष्ठो यैः पाप्मभिस्त्वमपोदितः ॥२॥ मेरुरिति-भगवन्!, यैः, पाप्मभिः पूज्यपूज्याव्यतिक्रमजन्यप्रत्यवायपरिगतत्वात्पापकर्मभिर्जनैः परतीर्थिकैः, गरिष्ठेभ्यः लोके मुरुतस्तया ख्यातेभ्य इन्द्रादिभ्यः, तानपेक्ष्याऽपीत्यर्थः । गरिष्ठः= श्रेष्ठः; कथमन्यथा तैस्तस्य पूजादीति भावः, तादृशः, त्वम् भवान् चीतरागः सर्वजैत्रगुणाकरः, अपोदितः अपवादोऽवर्णवादः, तद्विषयःकृतः, असत्तकैरसदारोपैश्च दूषितः, तैः तादृशैःपाप्मभिः, मोहात्= अज्ञानात् , मेरुः=सुवर्णमयः पर्वतेन्द्रः, तृणीकृतः तृणवद्गणितः, तथा, पयोधिः समुद्रः, गोष्पदीकृत्तः गोष्पदमात्रमित्येवं गणितः, नहि मेरुस्तृणवत् , समुद्रो वा गोष्पदमात्रम् । एवञ्च लयोस्तथागण 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीवीतरागस्तवे पञ्चदशः प्रकाशः नमज्ञानादेव सम्भवति । ततश्च तयोस्तथागणनं गणयितुर - ज्ञानं यथा प्रकटयति, तथा सर्वगरिष्ठस्य तवाऽपावादोऽप्यपवदितुः पापत्वं व्यनक्ति, पूज्योपचारातीचारस्य पापजनकत्वादिति यथा तृणवद्गुणनेऽपि मेरुर्मेरुरेव, गोष्पदवद्गुणनेऽपि च सागर : सागर एव, नहिं तयोः काऽपि हानि, प्रत्युत तथागणयितुरेव लाघवं जायतेऽज्ञानानुषङ्गात् । तथा तवाऽपवादेऽपि भवान् नाऽपोदितो भवति, किन्त्वपवदितैव पाप्मना ग्रस्यते इति धिगसमीक्ष्यकारिणमिति भावः । भवान्निरपवादः सर्वथेति हृदयम् ॥ २ ॥ भवदपवादकाश्च भवच्छासनवञ्चिता एवेति महती हानिदौर्भाग्यं च तेषामित्याह -- च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा । यैस्त्वच्छासनसर्वस्वमज्ञानैनात्मसात्कृतम् ॥ ३ ॥ --- " च्युतइति —— भगवन् !, यैः, अज्ञानैः = जडैः, उपादेयस्य त्यागो हि जाड्याविनाभावीति भावः । त्वच्छासनसर्वस्वम् = त्वच्छासनमेव दुर्लभत्वात्सुगतिप्रदत्वाच्च सर्वस्वम् सारभूतं धनम्, परमकारुणिकेन त्वयाऽविशेषेण प्रदानात्सुलभमपि, न, आत्मसात्कृतम्=उररीकृतम्, गृहीतमित्यर्थः । स्वाधीनं कृतमिति यावत् । त्वदाज्ञा न स्वीकृतेति सारार्थः । तेषाम् = तादृशानां त्वच्छासनवञ्चितानाम्, चिन्तामणिः - चिन्तामात्रेण चिन्तामणिवत्सकलमुक्तत्याद्यभीष्टप्रदत्वसाधर्म्य तदाख्यमणिविशेष एव पाणेः = करात् । च्युतः पतितः । 2010_dor Private & Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः यथा भाग्यात्करगतश्चिन्तामणिः पतितः शोचनीयत्वं न्यनक्ति वत्प्राप्त तथा त्वच्छासनाप्राप्तिर्भवपरम्परामज्ञानिताश्चेति खदाज्ञात्यामासाच्कि न्तामणिपात एवेति भावः किश्च लब्धा-भामा सुधार तम् , मुधा-निष्फलम् , यथा सुधा : सन्धाऽप्यपानानानिक तथा त्वच्छासनं दैवात्प्रासमायानगीकारापायालमामि वस्तुनः सत्त्वमात्र फलाय, किन्तकोमोनिमोचितस्तस्यका तादृशानामज्ञानिनां महती हानिर्दीभीन्यं चेति भावा! INTER वीतरागद्वेषिण आक्रोशनियस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ॥४॥ य इति-भगवन् !, यः-पूर्वोक्तोऽज्ञः पाप्मा, त्वयि = भगवति वीतरागे, अपिना भगवति जगद्धितकृति कस्याऽपि कोपोऽत्यन्तमनुचित इति सूच्यते । उल्मुकाकारधारिणीम् उल्मुकमुल्का तस्याकारमिवाकारं स्वरूपं धरत इत्येवंशीला, ताम् , उल्मुकवदीयाकोपादिना रक्तां तीक्ष्णां वक्रां च, कोपादिना नेत्ररक्तता कविसमयप्रसिद्धा । दृष्टिम् नेत्रम् , दधौ-चक्रे, । यस्तुभ्यं कुप्यतीर्ण्यति च, त्वां दूषयति चेति सारार्थः । तमत्वयि विवर्णनेत्रम् , आशुशुक्षणिः अग्निः, साक्षात् सद्य एव, नेत्रसूचितः कोपाग्निरेवेति हृदयम् । भस्मीकरोत्वित्याक्षिप्यते, किन्तु सभ्यानामसभ्यमनिष्टं च वचनं नोचितमतो नोच्यत इत्याह-वा= 2010_030r Private & Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रकाशः - अथवा, इदं हि-ताशे जने विषयेऽग्निकृत्यम् , आलयालम न माध्शाना साधूनामुन्धारणाहम् , तस्य श्चस्तित्वात् । स्वदु कृतफलं स स्वयमेव प्राप्स्यतीति नाऽस्माकं तदुक्त्या स्वमुत दूषणीयमिति भावः । यस्तुभ्यं द्रुह्यति, सोऽग्निविषयो भवत्विति दोग्धुराकोशे वा तात्पर्यम् पदरचनास्वरसादवगम्यते । यो हि यस्य भक्तः, स सदोग्धारमाक्रोसतीतिः वीतरागे स्वभक्तिरेतेन प्रदर्शिताः ॥४॥ तवेव तव शासनमप्यनुपममित्याह--- स्वच्छसनस्व साम्य के मन्यन्ते शासनान्तरः । विषेण तुल्यं पीयूषं तेषां हन्त । हतात्मनाम् ॥५॥ त्वदिति-भगवन् !, ये यत्प्रकारां जनाः, त्वच्छोसनस्य तब स्वथा प्रलपितत्वात्वत्सम्बन्धि यच्छासन शाखेम, आगम इति यावत् । तस्य, शासनान्सरैः अन्यानि एकान्तवादिप्ररूपितानि शासनानि तानि शासनान्तराणि, तैः, साम्यम्सादृश्यम् , मन्यन्ते स्वीकुर्वन्ति, तेषाम् तादृशसाम्यप्रतिपादकानाम्', हतात्मनाम्-हता विवेकाभावानष्टा आत्मानो येषाम् तेषाम्, तारतम्यज्ञानविधुराऽज्ञानोपहतमतीमामित्यर्थः । गुणदोषों ह्येव गुणिदोष इति भावः । मत इति शेषः पीयूषम् = अमृतम्, “ पीयूषममृती सुधै" त्यमरः । विषेण, तुल्यमा । हन्तेत्यलीके, तदेतत्साम्यमलीकं खेदकिषयश्च, साम्यस्थः सर्वथैवाऽभावात् , यथा न कदाग्यमृतत्वप्रदममृतं 2010_ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकलान्याच्याविभूषितः मृतिप्रदविषेण तुल्यम् , अत्यन्तं वैगुण्यात् । तथा मुक्तिमार्गप्रदर्शकमनेकान्तात्मकत्वाद्यथावस्थितवस्तुप्रतिपादकमाप्तक्लप्तं च त्वच्छासन नान्यशासनैरसर्वज्ञकल्पितत्वेनाऽप्रमाणैरेकान्तात्मकत्वेनाऽयथार्थव-- स्तुप्रतिपादकमधपरम्परापोषकः कदापि तुल्यम् । एवञ्च तयोः साम्यं मन्यमा नितरामज्ञा एवेति तात्पर्यम् ॥ ५॥ महतोऽवर्णवादश्रुतिकथातोऽनेडमूकस्वमेव वरम् , प्रत्यवायाननुबन्धादित्वाह - अनेडमूका. भूयासुस्त येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदकीय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥६॥ अनेडेति-भगवन् !, त्वयि, येषाम् , मत्सरः = द्वेषः, "मत्सरोंऽन्यशुभद्वेषे " इंति कोशः । तें, अनेडमूका:= वाक्श्रुतिरहिताः, भूयासुः सन्त्वित्याशीर्ममेत्यर्थः । 'एडमूकाऽनेडमूको त्ववाक्श्रुतौ', (अ. चि. ।।३४८१) इति । ननु नाशीरियं किन्तु प्राकृतजनकृतः शापः, ततश्च तवं साधोः कस्याप्यनि-- ष्टोक्तिरयोग्येति चेन्न, तदाह - वैकल्यम् = अङ्गादयुपकरणरहितता, अपिभिन्नक्रमः शुभोदकीयेत्यनन्तरं बोध्यः । पापेषु-पापनिमित्तेषु, कर्मसु-क्रियासु, शुभोदकाय-शुभो य उदर्कः परिणामः, तस्मै, जायते इति शेषः । अपिना नाङ्गादिवैकल्यं केवलं तत्तदुपभोगाद्यभावेन दुःखप्रयोजकमेवेति सूच्यते । महतोऽवर्णवादश्रुतिकथाजन्यप्रत्यवायपरिहारेणाझवैकल्यं तदंशे समीहितमाशीरेवेति 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागस्तवे पञ्चदशः प्रकाशः भावः । यदुक्तम्--" न केवलं यो महतोऽपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स दोषभाक्” इति ॥ ६ ॥ भगवदनुसारिणोऽपि सज्ज्ञानित्वात्पूज्या इति तान्नमस्करोतितेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं तेषां तान समुपास्महे । त्वच्छासनाऽमृतरसरात्माऽसिच्यताऽन्वहम् ॥७॥ तेभ्य इति - भगवन् !, यैः - यत्प्रकारैः शुभाशयः, आत्मा-निजात्मा, त्वच्छासनामृतरसैः त्वच्छासनान्येवाऽलौकिकशाश्वतानन्दमयमोक्षप्रदत्वादमृतरसा इव, तैः, बहुवचनं विषयबहुत्वापेक्षया बोध्यम् , किञ्च बहुवचनेन भगवच्छासनस्य साकल्येनैव ग्रहणमिष्टमित्यपि सूच्यते । तैः कृत्वा, अन्वहम् अहरहः, न तु यदाकदाचिदेव, असिच्यत-आर्द्राकृतः, येऽनिशं त्वच्छासनारा. धनपरायणा इति सारार्थः । तेभ्यो नमः, तेषाम् , कृते इति शेषः, अयम् सद्य एव, अञ्जलिः = करसम्पुटम् , प्रार्थयामीति यावत् । तान् , समुपास्महे-वरिवस्यामः । त्वद्भक्तोऽपि तवेवो. पचारमहेति, पूतात्मत्वादिति भावः ॥७॥ तदेवं नमस्कारादिना प्रवृद्धभक्तिभर आहभुवे तस्यै नमो यस्यां तव पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते ब्रूमहे किमतः परम् १ ॥८॥ भुवे इति-भगवन् !, यस्याम् यत्प्रकारायां भुवि, तव - सर्वलोकपूज्यस्य, पादनखांशवः चरणनखकिरणाः, चूडामणीयन्ते 2010_ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाच्याख्याविभूषितः चूडामणिवदाचरन्ति, भुवि मूछिता:पादमखांशपो भुवी भूमिका मणिकिरणा इव भासन्ते, नखांशूनां श्वेतरक्तत्वादिवि भाकरीव तस्यै भुवे, अपिरर्थबलाद्गम्यते । पिरं नमः । मलपि सम्बन्धे तस्याः सदाकालं शुचित्वप्राशस्त्याचनुपात मला पदसम्पर्कोऽप्यचेतनस्याऽपि धन्यत्वायेति भावः । अतः परम इतोऽधिकम् , किंबमहे ? = किंस्तुमः ? नातःपरं स्तुतिवचनं ममशक्यमिति भावः ॥८॥ तदेवं भगवत्स्तुत्या स्वस्याऽहोभावमाहजन्मवानस्मि धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः ॥९॥ इति कसिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे पञ्चदशः प्रकाशः ॥१५॥ जन्मेति-जन्मवान् = प्रशस्तं जन्मास्त्यस्येति स तादृशः, सफलजन्मा, अस्मि,धन्यः-पुण्यवान्, “ सुकृती पुण्यवान् धन्यः" (अ. चि. ।३१४८९।) इति । अस्मि । कृतकृत्यः कृतार्थः, "कृतकर्मणि कृतकृत्यकृतिकृतार्थाश्चे" ति शिलोञ्छः । अस्मि । एतादृशाऽहोभावस्य हेतुमाह-यद्-यतः, मुहुः अभीक्ष्णम् , नतु सकृदेव । त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पट: तव गुणग्रामो गुण समूहस्तस्य यद्रामणीयकं रमणीयता मनोहरता, तत्र लम्पटो लालसावान् , सतृष्ण इत्यर्थः । तदनुरक्त इति यावत् , । " लम्पटे 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरामस्तो यो प्रस: लालसोऽपि चे" त्यमरः । मनोहरत्वगुणानुरक्त इत्यर्थः । जातो. ऽस्मि । त्वद्गुणानुरागित्वमेव जन्मसाफल्यं धन्यत्वं कृतकृत्यत्वाच । अन्यथा त्वन्यथैव । जन्मसाफल्यादौ प्रकारान्तरस्याऽभावादिति स्वस्य भगवदेकालम्बनत्वसूचनेन स्वस्य भगवति भक्तपकिरको ध्वनितः ॥९॥ " इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां पञ्चदशः प्रकाशः ॥ १५ ॥ षोडशः प्रकाशः भक्तिसत्त्वेऽपि स्वस्थाशक्तत्वात्त्वत्प्रसादादेव निस्तार इत्याशयवान् , स्वस्य चाञ्चल्यं प्रकाशयन्नाह त्वन्मताऽमृतपानोत्था इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ ! परमानन्दसम्पदम् ॥१॥ त्वदिति–नाथ !, इतः = अस्मात्पार्धात् , एकत इति यावत् । त्वन्मताऽमृतपानोत्थाः-तव मतं सिद्धान्तः, आगम इत्यर्थः, तदेवामृतमिव भवविषोपशमकत्वादमृतं तस्य पानेन सरुचि महणरूपेणोत्तिष्ठन्तीति तादृश्यः, त्वत्सिद्धान्ताऽधिगमजा इत्यर्थः । समरसोर्मयः शमो निस्तृषता, स एव तर्पकत्वाद्रस इव, तस्योर्मयस्वरङ्गवत्सततत्वात्परम्पराः, एतेन भगवन्मतज्ञानजः शमो न श्मशा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9)* कीर्तिकलान्याख्याविभूषितः नवैराग्यमिव परमतज्ञानजशम इव वा क्षणिक इति सूच्यते । माम् त्वन्मताऽमृतपायकम् , परमानन्दसम्पदम्परमा इतर्विका क्षणत्वादुत्कृष्टो य आनन्दस्तस्य सम्पदं समृद्धिम्, न लगता मेव, पराणयन्ति बलादनुभावयन्ति । एतेन भगवन्मतज्ञानजसमक नित आनन्दो नाऽल्पो जघन्यो वा । किश्च भगकामताज्ञाने नैव परमानन्दलाभ इति ध्वन्यते ॥१॥ नन्वितस्तथाऽन्यतः किमित्यपेक्षायामाहइतश्चाऽनादिसंस्कारमूर्च्छितो मूर्छयत्यलम् । रागोरगविषावेगो हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ इत इति-भगवन् !, इतः अन्यस्मात्पार्थात् , चःपूर्वपद्योक्तार्थसमुच्चये । अनादिसंस्कारमूर्च्छितः अनादिसंस्कारेणाऽनादिकालाद्रागादिसम्पर्कजनितवासनया मूच्छितः प्रसृतः, आत्मनः सर्वप्रदेशमभिव्याप्य स्थित इत्यर्थः । मूर्च्छतेःप्रसरणार्थस्य प्रयोगः"न पादपोन्मूलनशक्ति रंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्ये" त्यादौ । रागोरगविषावेगः रागो विषयाभिलाष एव दुष्परिणामत्वात्सज्ज्ञाननाशकत्वाच्चोरगविषं तस्याऽऽवेगस्त्वरा, त्वरितप्रवृत्तिरिति यावत् । " आवेगस्तु त्वरिस्तुर्णिः संवेगः सम्भ्रमस्त्वरा" (अ. चि. २।३२२।) इति । अलम् अत्यर्थम् , मूर्च्छयति = मोहं प्रापयति, यथा त्वन्मतपानजशमजनितानन्दानुभवः सान्तरायो भवतीति भावः । यथा भवच्छेदसामग्री समवहिता, तथैव भवबन्धसामग्यपि बलवती सम 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीवीतरागस्तवे षोडशः प्रकाशः -- वहिता । ततश्च द्वाभ्यामाकृष्यमाण उपरि शिखासु गृहीत्वैकया नीचैश्च पदोश्च गृहीत्वा चाऽपरया च भार्ययाऽऽकृष्यमाणपुरुषः वत्सङ्कटे पतितोऽस्मीति परमानन्दानुभवेच्छा न फलतीत्यतो हेतोःहताशः = निष्फलमनोरथः, किं करवाणि ? = किं कार्यमिति न स्फुरतीत्यर्थः । तादृश आनन्दो हीष्टः, अतएव स न हेयः, रागश्च जिहासितोऽपि बलवत्त्वात्स मूर्छयत्येव मामिति निरुपायों जातोऽस्मीति भावः ॥२॥ तदेवं निर्विणः स्वदुरितमवमन्यमान आहरागाऽहिगरलाघ्रातोऽकार्ष यत्कर्म वैशसम् । तद्वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि धिङ् मे प्रच्छन्नपापताम् ॥३॥ रागेति- भगवन् !, रागाऽहिगरलाघ्रातः रागाहिगरलेन रागोरगविषेणाघ्रातो ग्रस्तः, यत् यत्प्रकारम् , वैशसम् = हिंसादिसङ्कुलत्वादशुभम् , कर्म, पापं कर्मेति समुदायार्थः । अकापम् , तत्=तत्प्रकारं पापं कर्म, वक्तुम् = प्रतिपाद्य प्रकाशयितुम् , अपिना तादृशकर्मणोऽतिपापतया त्रपाकरत्वम् , अस ङ्ख्यातत्वमनन्तत्वं वा सूच्यते, अत एव, अशक्तः= असमर्थः. अस्मि, प्रकाशनीयमलज्जाकरं परिमितं च कर्म कोऽपि शक्नोति प्रकाशयितुमिति भावः । पापस्याऽप्रकाशने हि स्वस्य प्रच्छन्नपापत्वमापततीत्यत आह-मे-मम, प्रच्छन्नपापताम्-तुष्णीं पापकृस्वम् , धिक-निन्दनीयमित्यर्थः । पापं हि महत्स प्रकाशनेन 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाब्याख्याविभूषितः क्षीयते, चित्तशुद्धिश्च जायते, यथा न तत्र पुनःप्रवृत्तिः स्यात् । मम तु तत्तथा नेति तन्निन्दनीयमेवेति भावः ॥३॥ मोहादीन् तत्कृत्यप्रदर्शनेन निन्दतिक्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी । मोहाद्यैः क्रीडयैवाऽहं कारितः कपिचापलम् ॥४॥ क्षणमिति-भगवन् !, अहम् , मोहाद्यैः-मोहप्रकारैः रागादिभिः कपिनर्तकतुल्यैः प्रयोजकः, क्रीडया लीलया, एवकारेणाऽऽयासव्यवच्छेदः, सहजत एवेत्यर्थः । क्षणम् = किञ्चित्कालम् , स्वार्थेच्छयेति भावः, सक्तः शब्दादिविषयाभिमुखः, क्षणम् स्वार्थ जाते, मुक्ता विषयपराङ्मुखः, क्षणम् स्वार्थहानी सत्याम, क्रुद्धः= स्वार्थविघ्नेष्विति भावः । क्षणम्-कीत्याधभिलाषयाऽशक्त्या वा, क्षमी-क्षमावान् , अपकारिश्वपीति भावः । रागादिमूला हि प्रवृत्तिः स्वार्थाधीना भवतीति सा न चिरकालं तिष्ठतीति भावः । एवम्प्रकारेण, कपिचापलम् कपिवदनवस्थितिम् , “ चापलं त्वनवस्थितिः" (अ. चि. ।२।३१५।) इति । कारितः, यथा हि कपि न किञ्चिदपि स्थिरं करोति, स्वभावचपलत्वात् , तथाऽहमपि रागादिवशो न स्थिर इति भावः । यद्वा कपिचापलं कपिनृत्यं कारितः । यथा हि कपिनर्तकः स्वेच्छया कपिं नानाप्रकारेण नर्तयति, तथा रागादिभिरहं स्वेच्छया सङ्गादिमान् कारित इति वाऽर्थः । तदेतान् मोहादीन् धिक् , अवश्यहेया इमे इति भावः ॥४॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीवीतरागस्तवे षोडशः प्रकाशः इत्याह यद्वाऽलं रागादिविगोपनया प्राप्तसंबोधे र्ममैव सर्वोऽपराध " प्राप्याsपि तव सम्बोधिं मनोवाक्कायकर्मजैः । दुश्चेष्टितैर्मया नाथ ! शिरसि ज्वलितोऽनलः ॥ ५ ॥ प्राप्येति - नाथ !, तव = त्वदुपज्ञम् सम्बोधिम् - सम्यग्ज्ञानम्, आगमादिद्वारेति भावः । प्राप्य = अधिगम्याऽपि, अपिना तदप्राप्तौ त्वज्ञत्वादपराधो न गण्येतेति सूच्यते । मनोवाक्कायकर्मजैः = आस्रवजैः, दुश्चेष्टितैः = अशुभाचरणैः, मया, शिरसि = मस्तके, अनलः = अग्निः, ज्वालितः प्रदीपितः, यथा हि कोऽपि अनलेन दाहं जानन्नपि प्रमादाद्वाऽयापारेषु व्यापाराद्वा स्वशिरस्येवाग्नि दीपयित्वा प्राणान्तपीडामनुभवति, तथाऽहमपि त्वत्सदुपदेशेन रागादेरनर्थकारित्वं जानन्नपि सावद्याचरणैः कृत्वा स्वं भवगर्ते पातितवानस्मि, रागादिस्तु व्याजमात्रम्, ततश्च प्रज्ञा पराध एष ममेति भावः ॥ ५॥ अहं यथाऽस्मि तथाऽस्मि, रागादि र्वा बलवानस्तु त्वं कथमुदासीन इत्युपालभते त्वय्यपि त्रातरि त्रातर्यन्मोहादि मलिम्लुचैः । रत्नत्रयं मे हियते, हताशो हा हतोऽस्मि तत् ॥६॥ त्वय्यपीति - त्रातः !, त्वयि - निष्कारणवत्सले निर्हेतुकहितकृति, अपिना तादृशे त्रातरि सत्येतत्र युक्तमिति सूच्यते । 2010_dor Private & Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याल्याविभूषितः १४१ त्रातरि रक्षके सति, यत् , मोहादिमलिम्लुचैः मोहादय एवाऽपहारप्रवीणत्वान्मलिम्लुचास्तस्कराः, तैः, मे, रत्नत्रयम् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं दुर्लभत्वाद्रत्नरूपम् , ह्रियते-मुष्यते, विनाश्यत इति यावत् । अत एव दुश्चेष्टितानि मम प्राप्तत्वत्सम्बोधेरपि, ज्ञानादिसत्त्वे हि न तानि सम्भवन्तीति भावः । तत् , हताशः, हत: नष्टोऽस्मि, नहि रक्षके सति रत्नापहरणं युक्तम् । अन्यथा तु रत्नाशा हतैवेति हत एव रत्नमतिरित्यतस्त्राता त्वमप्युपालभ्य एवेति भावः ॥६॥ ननु तयन्यस्त्राताऽन्वेषणीय इति चेत्तत्राह-- भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं मयैकस्तेषु तारकः । तत्तवाङ्घौ विलग्नोऽस्मि नाथ ! तारय तारय ॥७॥ भ्रान्त इति–नाथ !, मया, तीर्थानि तरन्ति भवाम्भोधिमेभिरिति तानि, तीर्थत्वेन प्रतिपादितानि बौद्धादीनीत्यर्थः, भ्रान्तः = 'तारकाऽन्वेषणार्थ पर्यटितः, परतीर्थानि तारकाणि रक्षकाणि न वेति परीक्षितः, किन्तु, तेषु तीर्थेषु, त्वमेकः त्वमेव, नन्वन्यः, तारकः= रक्षको भवोदधिपारप्रापकः, दृष्टः परीक्षयोपलब्धः । वीतरागत्वात्स्वयं तीर्णत्वान्निहेतुकपरमकारुणिकत्वाजगद्धितकृत्वाच्च । अन्ये तु रागादिपरवशाःस्वयमतीणी इति कथं ते परतारका इति भावः । तत-तस्मात्कारणात् , तव, अङ्घौ-चरणे, विलग्नः पतितः, अस्मि, त्वच्चरजोपासकोऽहं जातोऽस्मि, त्वामेव रक्षकं तारकं चाश्रित इति यावत् । 2010_030r Private & Personal Use Only ___ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीवीतरागस्तवे षोडशः प्रकाश: तस्मात् , तारय तारय-द्विरुक्तिः स्वस्याऽसहायत्वात्प्रार्थनातिशयसूचनार्थम् वीप्सायाम् । रागादीन् विनाशय, भवाब्धिपारं च प्रापयेत्यर्थः ॥२॥ स्वयंसम्बर्धितोपेक्षणमनुचितमित्युपालभते--- भवत्प्रसादेनैवाऽहमियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानीं तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥ भवदिति-भगवन् !, अहम् त्वदुपासकः, भवत्प्रसादेनैव= त्वदनुग्रहत एव, नाऽन्यथा स्वप्रयत्नादिना, तव सदुपदेशमाप्यैव त्वदुपास्तिबुद्धिभावादिति भावः । इयतीम् एतावतीम् , त्वदुपासनाऽवधिमित्यर्थः । भुवम् भूमिम् , उपलक्षणत्वादवस्थामित्यर्थः । प्रापितः नीतोऽस्मि, त्वदुपास्त्यादिशुभप्रवृत्ति मम त्वदनुग्रहवशादेव, स्वयं तु रागादिग्रस्तस्य मम नेदृशी प्रवृत्तिः सम्भाव्यत इति भावः । ननु तेन किमिति चेत्तत्राह-इदानीम् इदृशावस्थाप्राप्तौ सत्याम् , तव, औदासीन्येन माव्यस्थ्येन, तव मध्यस्थस्वभावत्वाद्धेतोः, उपेक्षितुम् उदासितुम् , न युक्तम् । भवतु नाम तव सर्वदा सर्वत्र माध्यस्थ्यम् , किन्तु यथा परमकारुणिकतया निर्हेतुकहितकृत्तया च शुभे प्रवर्तितवानसि, तथाऽग्रेऽपि नय । नहि त्वादृशस्यैकतःप्रसादोऽन्यत उपेक्षा च सङ्गच्छते । एवञ्च यथाऽद्यावधि मध्यस्थोऽपि सन् प्रसादं कृतवानसि, तथाऽग्रेऽपि कुरु । 'अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ती' ति भावः ॥ ८ ॥ ननु त्वं प्रसादपात्रमिति नाऽहं जानामीति चेत्तत्राह--- 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १४३ ज्ञाता तात ! त्वमेवैकस्त्वत्तो नाऽन्यः कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥९॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे गोडशः प्रकाशः ॥ १६ ॥ ज्ञातेति-तात !-पितृवत्पालकत्वात्पितः !, त्वमेवैकः, न वन्यः, तवैव सर्वज्ञत्वादिति भावः । ज्ञाता-सर्वज्ञः, एवं च त्वां न जानामीति त्वत्कथाया नाऽवसर इति भावः । तथा, त्वत्तः त्वामपेक्ष्य, त्वदधिकमित्यर्थः । अन्यः त्वद्भिन्नः कोऽपि, कृपापरः = कारुणिकः, न, त्वमेव परमः कारुणिकः, निर्हेतुककरुणावत्त्वादिति भावः । नन्वस्त्येतत्तेन किम् ?, कृपापात्रे एव कृपाऽवसर इति चेत्तत्राह-मत्तः = मामपेक्ष्य, मदधिकमित्यर्थः ।। कृपापात्रम् = दयनीयः, न, अस्तीति शेषः । रागादिभिरत्यन्तमर्दितत्वात्त्वदुपासकत्वाच्च । प्रथमं ह्यधिकपीडितः स्वाश्रित एवाऽनुगृह्यते इति भावः । अतएव, यत्कृत्यकर्मठ:-यत्कृत्यं यदा यत्र यत्करणीयं तत्र कर्मठो दक्षः, एधि = भव । मय्यनुग्रहः प्राप्तकाल इति मयि दयस्व । नहीदानी मय्युपेक्षाऽवसर इति स्वयं त्वं वेत्स्येव ज्ञातृत्वादिति भावः ॥९॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायां षोडशः प्रकाशः ॥१६॥ 2010_3or Private & Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः प्रकाशः शरणागतो हि रक्ष्यत इत्यनुसन्धाय भगवच्छरणं प्रपद्यमान आह--- स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन् सुकृतं चानुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि शरणं शरणोज्झितः ॥१॥ स्वकृतमिति–नाथ !, स्वकृतम् = पुराऽऽत्मनोपार्जितम् , दुष्कृतम् = अशुभं कर्म, गर्हन् = निन्दन् , धिग्दुष्कृतं येनाऽहं विगोपित इत्येवमनुशोचन् , यथा न पुनस्तत्र प्रवृत्तिः स्यादिति भावः । सुकृतम् शुभं कर्म, चेन स्वकृतमित्यनुषज्यते । अनुमोदयन् = अभिनन्दन् , यथाऽऽभीक्ष्ण्येन तत्र प्रवृत्तिः स्यादिति भावः । शरणोज्झितः शरणेनोज्झितो रहितः, अन्यस्य तादृशस्याऽभावान्मयैव वाऽनर्हत्वादनाश्रितत्वाद्वेति भावः । त्वच्चरणौ, शरणम्-रक्षकम् , यामि-स्वीकरोमि, त्वच्चरणावेव शरणं बुवाऽशुभनिविण्णः शुभभावनाभावितचित्तवृत्तिरनन्यशरणस्त्वां शरणमुपाश्रये इत्यर्थः । एतेन स्वस्य सम्यक्त्वं सूचितम् ॥१॥ न गह-मात्रेण कृतं निष्फलं भवतीत्यतो दुष्कृतस्य नैष्फल्यं प्रार्थयमान आह मनोवाकायजे पापे कृतानुमतिकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूयादपुनःक्रिययाऽन्वितम् ॥२॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः = मन इति – नाथ !, कृतानुमतिकारितैः कृतेन स्वयं करणेन, अनुमत्या साध्विदं कृतमेवंकरणमुचितमित्येवमादिप्रकारेणाऽनुमोदनेन, कारितेन प्रेरणया च कृत्वा मनोवाक्कायजे मनसो वाचः कायाच्च जातवति, पापे = अशुभ कर्मणि विषये, मे-मम, दुष्कृतम् = दुरितम्, " अंहो दुरितदुष्कृतमि " त्यमरः । अपुन:क्रियया = न पुनः क्रियाप्रवृत्तिः, तया, अन्वितम् = युक्तम्, प्रायश्चितं हि तदैवार्थवद्यदि पुनर्न तथा प्रवृत्तिरिति भावः । मिथ्या = मोघम्, सदपि निष्फलम्, भूयात् = भवत्विति प्रार्थये । यद्वामे दुष्कृतं कृतानुमतिकारितैरपुनः क्रिययाऽन्वितं यथास्यात्तथा मिथ्या भूयादित्यन्वयः ॥ २ ॥ स्वशुभभावनां सुकृतानुमोदनरूपामाहयत्कृतं सुकृतं किञ्चिद् रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं मार्गमात्रानुसार्यपि ॥ ३ ॥ -- १४५ यदिति—नाथ !, रत्नत्रितयगोचरम् = रत्नवदुर्लभत्वाद्रत्नानां दर्शनज्ञानचारित्राणां त्रितयम् त्रयम्, तस्य गोचरम् तद्विषयम्, अतएव, मार्गमात्राऽनुसारि - मोक्षमार्गस्यैवाऽनुपाति, नतु स्वर्गद्यैहिकतुच्छकामनाविषय मित्येवकारार्थकेनाऽपिना सूच्यते । तस्य भवाऽनुबन्धित्वादनिष्टत्वाद्वीतरागाश्रितानामनर्हत्वात्तस्याऽन्यतोऽपि लाभसम्भवात् । नहि कोऽपि कल्पद्रुसन्निधौ बदरमिच्छतीति भावः । यत्कि - ञ्चिद्=अल्पमधिकं वा, सुकृतम् = शुभं कर्म कृतम् - उपार्जितम् , = 2010_dor Private & Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरामस्तवे सप्तदशः प्रकाशः तत्सर्वम् , अहम् , अनुमन्ये स्वीकरोमि समर्थयाम्यनुमोदयाम्यभि नन्दामि वा । साविदं मया कृतम् । पुनः पुनरिस्थमेव कुयाः मित्येवमिति भावः ॥३॥ स्वस्य सम्यक्त्वं प्रकटयन्नर्हदादिगुणेषु श्रद्धामनुमोदयन्नाह -- सर्वेषामर्हदादीनां यो योऽर्हत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं सर्व तेषां महात्मनाम् ॥४॥ सर्वेषामिति- नाथ !, सर्वेषाम् = नत्वेकस्य द्वयोरेव वा, समानत्वात्सर्वेषामिति भावः । अर्हदादीनाम् = अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधूनाम् । यो यः, वीप्सायां द्विवचनम् , गुणानां बाहुल्यादिति बोध्यम् । अर्हत्त्वादिकः = अर्हत्त्वमुक्तप्रकाराऽतिशयादिमत्त्वरूपमादिर्यस्य तादृशोऽहत्त्वसिद्धत्वादिरूपः, गुणः = भावः, तेषां महात्मनाम्=परमात्मनार्हदादीनाम् , अर्हत्त्वादिविशिष्टत्वादितरापेक्षयोत्तमात्मनामित्यर्थः । तं तम् , गुणमित्यनुषज्यते । अनु मोदयामि = श्रद्दधे समर्थयामि च । एतेन स्वसम्यक्त्वं सूचितम् ॥४॥ अत एव चत्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धांस्त्वच्छासनरतान् मुनीन् । त्वच्छासन च शरण प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः ॥५॥ त्वामिति-भगवन् !, अहम् , भावतः-शुद्धभावनापूर्वकम् , ततु वाङ्मात्रत इत्यर्थः । त्वाम् भवन्तमर्हन्तम् , त्वत्फलभूतान् 2010_ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौतिकला यास्याविभूषित तो यत्फलं तथाभूतान् तद्रूपान् , सिद्धान् = सिद्धाममापन मुक्तान् , अर्हत्त्वस्य सिद्धत्वमेव परिणाम बामसामान्य केवलिनोऽपि सिद्धत्क्परिणामता, तथाऽपि न सांतालिस ने सिद्धत्वं परिणाम इति वक्तुं शेक्यमिति भामा सनरतान् = त्वदाज्ञाराधनैकचित्तान् , मुनीन् = आचार्योपाध्यामसान्, त्वच्छासनम् = त्वदाज्ञाम् , तद्रूपानागमांश्च , चा. . समुच्चये । शरणम्-रक्षकम् , प्रतिपन्नोऽस्मि-स्वीकृतोऽस्मि, रक्षणे साधनान्तराऽभावात् स्वस्थ रक्षणावश्यकत्वाच्च । कथमन्यथा भवोद्धार इति भावः ॥५॥ ___तदेवं शरणं श्रितो लब्धस्वास्थ्यः सत्वेषु क्षमणापूर्विका मैत्री प्रार्थयते क्षमयामि सर्वान् सत्त्वान् सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु त्वदेकशरणस्य मे ॥६॥ क्षमयाभीति- भगवन् !, सर्वान्, न तु कतिपयानेव, प्राणिविराधिनो दुर्गतेरिति भावः, सत्त्वान् जीवान् , षड्जीवकायानिलि. यावत् । क्षमयाभि-तत्कृतापराधान् सहे, तथा, ते प्राणिनः, सर्वे, मयि, क्षाम्यन्तु-मत्कृतापराधान् सहन्तामिति प्रार्थयामि । तथा, त्वदेकशरणस्य त्वमेवैकोऽद्वितीयः शरणं यस्य तस्य, जगद्धितकृत्त्वदेकाश्रितस्य, मे मम, सर्वेषु, तेषु-सत्त्वेषु, मैत्री अद्रोहः, हितमतिरित्यर्थः । अस्तु-जायतामिति प्रार्थये। 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रीवीतरागस्तवे सप्तदशः प्रकाश: जगद्धितकृदाश्रितस्य जगद्धितमतिरेवाऽनुगुणेति भावः । एतेन स्वस्य जगबन्धुता सूचिता ॥६॥ । तदेवं सर्वथा स्वस्थो ममत्वं त्यजन् स्वस्याऽनुद्वेगमाह - एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्न चाऽहमपि कस्यचित् । त्वदमिशरणस्थस्य मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥ एक इति-भगवन् !, अहम् , एकः असहायः, ममत्वरहित इति यावत् । तत्र हेतुमाह-मे, कश्चित , नास्ति, यत्र मम 'ममे' तिव्यवहर्त्तव्यम् , तादृशः कोऽपि नास्ति, सर्वस्यैव स्वकर्मवशगत्वात्स्वतन्त्रत्वान्ममेतिव्यवहारस्य मिथ्यात्वात् । एवञ्च तादृशं कल्पितमपि ममत्वं मम क्वापि नास्ति । एतेन स्वस्य निःसङ्गता प्रतिपादिता । ननु भवतो न कश्चिदित्यस्तु, भवानेव कस्यापि स्यादिति चेत्तदपि नेत्याह - अहमपि, अपिः समुच्चये । कस्यचिन्न । उक्तहेतोरेवेति भावः । नन्वेवमसहायस्य तव दैन्यमापततीति चेन्न, तदाह-त्वद िशरणस्थस्यतवाजी एव शरणं तत्र तिष्ठतीति, तस्य तादृशस्य, त्वदाश्रितस्य । मम, किञ्चन नाममात्रतोऽपि, दैन्यम्-दीनता, अहमसहाय इत्येवंभावः, न = नैवास्ति । जगत्सहायस्त्वमेव मम सहाय इति कुतो नाम दैन्यावसरो मयीति भावः । नहि ममत्वत्यागादहमुद्विग्नः, किन्तु सर्वाश्रयत्वदाश्रितो नितरां स्वस्थ इति हृदयम् ॥७॥ 2010_ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १४९ तदेवं योग्यस्य स्वस्य मुक्तिमभिलष्यन्नुपसंहरतियावन्नाप्नोमि पदवीं परां त्वदनुभावजाम् । तावन्मयि शरणत्वं मा मुचः शरणश्रिते ॥८॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे सप्तदशः प्रकाशः ॥ १७ ॥ यावदिति-भगवन् !, यावत् यदवधि, त्वदनुभावजाम् = त्वत्प्रभावोपनताम् , त्वदुपदर्शितमार्गानुसरणेनैव तत्प्राप्तेरिति भावः । पराम् सर्वोत्कृष्टाम् , पदवीम् प्रतिष्ठाम् , मुक्तिमिति यावत्, तस्या एव सर्वोत्कृष्टत्वादिति भावः, नाप्नोमि = न लभे, तावत् = तदवधि, शरणश्रिते शरणागते, मयि, शरणत्वम्-रक्षकत्वम् , मा मुच:-न विजहीहि । अन्यथा त्रिशकुवन्मध्ये एव भवेयम् । एतेन मुक्तिं यावत्स्वस्य दृढः सङ्कल्पः, न तुपसर्गपरीषहादिनापि क्षोभ इति सूच्यते ॥८॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्ति-- कलाख्यायां व्याख्यायां सप्तदशः प्रकाशः ॥ १७ ॥ अष्टादशः प्रकाशः एतावता सोपचारमृदूक्त्या वीतरागमुपश्लोक्य कठोरोक्त्याऽपि स्तुति विधेयैव मनःशुद्धये इति तथैव तुष्ट्रषमाण आह 2010_ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतसगस्तपेष्टादश: प्रकाश न परं नाम मृद्धेव कठोरमपि फिश्चम । विशेषज्ञाय विज्ञप्यं खामिने स्वान्तशुद्धये ॥१॥ नेति-भगवन् !, विशेषज्ञाय विशेषं वक्तुहृद्तं भावमपि न तु वचनमानं जानातीति स तस्मै, त्वादृशाय सर्वज्ञायेति यावत् । स्वामिने स्वामिवत्पालकायोपचरणीयाय च । एताभ्यां विशेषणाभ्यां कठोरोक्तियोग्यता ज्ञप्तिपात्रता च सूचिता । न, नामेति प्रसिद्धौ । विशेषज्ञाय स्वामिने एवं विज्ञापयन्तीति भावः । परम्=केवलम् , मदु-विनयात्मकत्वाद् हृदयावर्जकत्वादपरुषम् , एवकारोऽवधारणे, तर्हि किमित्यपेक्षायामाह-किञ्चन = सति सम्भवेऽल्पम् , कठोरम-आपाततः परै हीनत्वप्रतिपादनाऽभासादरुचिकरत्वाच्छृतिकटुत्वादविनयात्मकत्वाच्च परुषम् , अपिः समुच्चये । स्वान्तशुद्धये = स्वभक्तिवशात् परेष्टदेवादिबैशिष्टयराहित्यमुखेन सर्वविलक्षणत्वबुद्धया स्वश्रद्धोत्कर्षादिरूपचित्तवृत्तिविशदत्वाय । एतेन स्वान्तशुद्धये हि विहिता कठोरोक्तिः क्षन्तव्या भवति, अन्यथा तु दण्डनीयोऽपराध एवेति सूचितम् । विज्ञप्यम्-स्तुतिमुखेन निवेदनीयम् । ततश्च मया निवेद्यमानं सति सम्भवे परुषमपि भावशुद्धिपूर्वकत्वात्त्वया सर्वज्ञेन भगवता क्षन्तव्यमेव भवेदित्यनुद्वेगः स्वस्य ध्वन्यते । यो ह्यल्पज्ञः, स तु परुषोक्तौ भावशुद्धिमजानन् कुष्येदेवेति स मृदूक्त्यैवोपचरणीयः । अस्वामिने तु निवेदनवार्ताऽप्यनवसस्ग्रस्तेति भावः ॥ १ ॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कीर्तिकला याख्याविभूषितः १५१ स्वभावशुद्धिमुक्तप्रकारेण लाझयित्वा परुषोक्त्यैव स्तुवन्नाहन पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविग्रहः । न नेत्रगात्रवक्त्रादिविकारविकृताकृतिः ॥२॥ नेति-भगवन् !, भवान् , पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविप्रहः पक्षिणो मयूरहंसगरुडादयः, पशुवृषभादिः, सिंहादिः, आदिना मूषकादिपरिग्रहः, तेषु वाहनेषु यानेष्वासीनः स्थितिमान् विग्रहः शरीरं यस्य, तादृशः, न नाऽसि, विष्ण्वादयो हि गरुडाद्यासनासीनाः, शिवादयश्च वृषभादिवाहनासीनाः, दुर्गादयश्च सिंहाद्यासीनाः परतन्त्रे प्रसिद्धाः । यद्यपि सिंहोऽपि पशुरेव, तथापि हिंस्रत्वादन्यत्वाच्च पृथगुक्तिरिति बोध्यम् । तथा, नेत्रगात्रवक्त्रादिविकारविकृताकृतिः = नेत्रम् गात्रं शरीरम् , वक्त्रं मुखम् , आदिना तुन्दादिपरिग्रहः । तेषां विकारै वैषम्यै न्यूंनाधिक्यरूपैः विकृताऽशोभनाऽऽकृतिः स्वरूपं यस्य स तादृशः, शिवस्त्रिनेत्रः, वामनविराटकायादिविष्ण्वादिः, चतुर्मुखादिब्रह्मादिः । न । परेष्टदेववैशिष्टयं भवति न वर्तते । एवञ्चैतावता हीनगुणत्वाभासो जायते । वस्तुतस्तु सावद्यत्वाद् भगवता जीवविशेषवाहनस्य परित्यागः, विकृताकृतेरभावात्सर्वाङ्गसुन्दरता चेत्युत्तमत्वमेव ध्वन्यते । अस्य च षष्ठपद्ये कथं देवत्वेन परीक्षकैः प्रतिष्ठाप्य इत्यनेन सम्बन्धः । एवमग्रिमश्लोकेऽपि बोध्यम् ॥२॥ अन्यवैशिष्टयाऽभावमप्याह-- 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टादशः प्रकाशः - न शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लवः । नाऽङ्गनाकमनीयाङ्गपरिष्वङ्गपरायणः ॥ ३॥ नेति-भगवन् !,भवान् , शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लबः= शूलं प्रसिद्धम् , चापं धनुः, चक्रम् , आदिना गदादिपरिग्रहः, तानि शस्त्राणि अाश्चिह्नानि, अङ्के तले वा यस्य स तादृशः, शूलादिशस्त्रधर इत्यर्थः, तादृशः करः कोमलत्वाद्रक्तत्वाच्च पल्लव इव यस्य स तादृशः । न, अस्तीति शेषः । शिवः शूली, शार्ङ्गचापचक्रगदाभृद्धरिः, एवमन्येऽपि परेष्टदेवाः । न केवलं न तादृशशस्त्रभृत्करः, किन्तु-अङ्गनाकमनीयाङ्गपरिष्वङ्गपरायणः%= अङ्गना स्त्री तस्याः कमनीयस्य सुभगस्याऽङ्गस्य परिष्वङ्गे समालिङ्गने परायणस्तत्परः, न, अस्तीति शेषः । सर्वे शिवादयः कृतदारपरिग्रहाः । एवञ्च तादृशगुणवैशिष्टयं न भगवतीति न्यूनता भासते । परमार्थतस्तु भगवतो जगद्धितकृत्त्वाद्वैरिण एवाऽभावाद्भावेऽपि वा माध्य स्थ्यात्कथमिव शस्त्रादिपरिग्रहो भवतु ?, किञ्च वीतरागत्वान्नाङ्ग नासङ्गोऽपि । परे तु रागवन्त इति तदुचित तेषामिति भगवत एव गुणाधिक्यमिति भावः ॥३॥ शरीरादिवैशिष्टयाभावमुक्त्वा भाववैशिष्टयाभावमाहन गर्हणीयचरितप्रकम्पितमहाजनः । न प्रकोपप्रसादादिविडम्बितनरामरः ॥४॥ नेति---भगवन् !, भवान् , गर्हणीयचरितप्रकम्पितमहा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10)* कीर्तिकलाभ्याख्याविभूषितः १५३ - - जना गर्हणीयं निन्दनीयं यच्चरितं ब्रह्मशिरःकर्तनस्वसुतारिरंसादिरूपः कदाचारस्तेन कृत्वा प्रकम्पिता अत्यनुचितत्वारखेदाधिक्यादनाचारप्रसारभयाच्च सकम्पाः कृता महाजनाः सजना येन स तादृशः । भयानकानुचितप्रवृत्त इत्यर्थः । पुराणादौ हि शिवस्य ब्रह्मपञ्चमशिरःकर्तनं ब्रह्मणःस्वसुतारिरंसादि च वर्णितमनुसन्धेयम् । न, । तथा, प्रकोपप्रसादविडम्बितनरामरः= प्रकोपेन प्रसादेन, आदिना छलादिना च कृत्वा विडम्बिता अवधीरिताः सम्मानिताश्च नरा अमराश्च येन, तादृशः, रागवत्त्वात्कोपप्रसादादिमानित्यर्थः । शिवेन हि प्रकोपेन भुवनत्रयं संहतुं प्रववृते, प्रसादेन विषपानादिना जगद्रक्षितम् , एवमादीन्यन्यान्यपि पुराणादितोऽनुसन्धेयानि । न । लोकोत्तरसम्यक्चारित्रवतो वीतरागस्य भवतस्तन्न्यूनता । सा चानुरूपा लोकव्यवहारऽनुगुणा च वीतरागत्वादेवेति तादृशी न्यूनतोत्कृष्टतैवेति सारार्थः ॥ ४ ॥ वैशिष्ट्यान्तराऽभावमप्याहन जगजननस्थेमविनाशविहितादरः । न लास्यहास्यगीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः ॥५॥ नेति-भगवन् !, भवान् , जगजननस्थेमविनाशविहिताद: जगतः सृष्टेर्जनने सर्जने स्थेमनि स्थिरतायाम् , पालन इति यावत् । विनाशे च विहितः सम्प्रवृत्त आदर आग्रहो यस्य स तादृशः, न । ब्रह्मा हि रजोगुणाश्रयात्सृजति, विष्णुः सत्त्व 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीवीतर/भस्तवेऽष्टादशः प्रकाशः गुणाश्रयात्पालयति, शिवस्तमोगुणाश्रयात्संहरति च जगदिति पौराणिकाः । तादृशगुणन्यूनो भवान् । वस्तुतस्तु जगतोऽनाद्यनन्तः तया तत्सर्वमलीकमेवेति कथं कोऽपि सावद्यगुणवान् भवतु ! । वीतरागस्य तथाप्रवृत्तेरननुगुणत्वादिति वीतरागस्योत्तमत्वमेवाति । तथा - लास्य हास्यगीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः = लास्यं नृत्यं, शिवादेस्ताण्डवादिः, हास्यं हास:, शिवादेरेवाऽट्टहासादिः, गीतादि च कृष्णादेर्वेणुवादनादिना प्रसिद्धम् । तेषां विप्लवेन व्यसनेन गर्हणीयप्रवृत्त्या नटाद्युचितयोपप्लुता विसंस्थूला स्थितिर्यस्य स तादृशः । लास्यादिभिः कृत्वो पहसनीयचरित इति यावत् । न । भगवतस्तु तदवलोकनेऽपि निवृत्तिः, दूरे तथाविधानम् । पामरजनकृत्यस्यो - तमेऽसम्भवादिति तादृशगुणन्यूनता भगवत उत्तमत्वमेवावगमयतीति भावः 114 11 तदेतावता देवान्तरवैलक्षण्यमाह तदेवं सर्वदेवेभ्यः सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः कथं नाम परीक्षकैः ९ ॥ ६ ॥ तदेवमिति — भगवन्, तत् = तस्मात्तादृशगुणहीनत्वाद्धेतोः, एवम् = उक्तप्रकारेण, त्वम् = वीतरागः, सर्वदेवेभ्यः = परेष्टेभ्यः शिवादिभ्यः सर्वेभ्यो देवेभ्यः, सर्वथा - सर्वैः प्रकारैः, विलक्षण: = विभिन्नधर्मी, तदीयगुणानामेकस्याप्यभावादिति भावः । ननु तेन किमित्यपेक्षायामाह – परीक्षकैः = साधकबाधकदृष्टान्तादिप्रमाणैर्वस्तुत 2010_dor Private & Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ स्वनिर्णयप्रवृत्तैः परैः प्रेक्षावद्भिः, देवत्वेन = देवभावेन, स्विमि सम्बध्यते, कथंनाम-केनप्रकारेण खलु, प्रतिष्ठाप्यः - समर्थनीयः; नैव प्रतिष्ठाप्य इत्यर्थः । देवधर्माणामभावाद्धर्ममन्तरेण धर्मिणः सद्भावस्याऽसम्भवादिति यावत् । परे हि स्वदेववैशिष्ट्यं भवत्य लभमाना भवन्तं देवं न मन्यन्ते । वस्ततस्तु ते परीक्षका अज्ञानिन इति प्राकृतजनोचितचरितं देवं मन्वाना भ्रान्ता:, देवस्तु वीतरागत्वाद्भवानेव, लोकोत्तरगुणो हि देव इति भावः ॥ ६ ॥ परैः कृतायां वीतरागस्य देवत्वाऽप्रतिष्ठायां युक्त्युपन्यासव्याजेन परेष्टदेवानां लौकिकत्वं वीतरागस्याऽलौकिकत्वं च भङ्गचाऽऽह कीर्तिकला ब्याख्याविभूषितः अनुश्रोतः सरत्पर्णतृणकाष्ठादि युक्तिमत् । प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु कया युक्त्या प्रतीयताम् ? ॥७॥ अन्विति – भगवन् !, पर्णतृणकाष्ठादि = पण पत्र तृणं काष्ठम्, आदिना तादृशं वस्त्रादि, वस्तु = पदार्थः, अनुश्रोतः श्रोत: प्रवाहः, " श्रोतोऽम्बुसरणं स्वत " इत्यमरः । तदनुसारेण, प्रवाहानुकूल्येनेत्यर्थः । सरत् = तरत् प्रवहमानमित्यर्थ । युक्तिमत् = युक्तियुक्तम्, प्रत्यक्षेण भूयस्तथा दृष्टत्वादनु श्रोतस्तृणादिसरणे व्याप्तिग्रहादिति भावः । किन्तु, प्रतिश्रोतः = प्रवाह प्रातिकूल्येन, प्रवाहाभिमुखमित्यर्थः श्रयत् = सरत्, वस्त्विति सम्बध्यते । कया युक्तया प्रतीयताम् १ = न कयाऽपि युक्त्या तत्प्रत्येतव्यमित्यर्थः । " 2010_dor Private & Personal Use Only = Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टादशः प्रकाशः ताशयुक्तेरभावात् , क्वाऽप्यदृष्टश्रुतत्वात् । एवं च देवेषु ये गुणाः परेषां प्रसिद्धास्तद्गुण एव देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, तेषां तथैव व्याप्तिग्रहात् । भवति न तादृशो गुण इति न भवान् तैर्देवत्वेन प्रतिछाप्यः । तादृशगुणरहितस्य देवस्य तेषामदृष्टश्रुतत्वात् । एवञ्च लौकिकगुणवत्त्वात्तेषां देवा लौकिका एव प्राणिनः सति सम्भवे, भवांस्तु लोकोत्तरगुणत्वादलौकिको वस्तुतो देवः । अन्येषां तत्त्वेनाऽग्रहस्त्वज्ञानादेवेति भावः ॥ ७ ॥ परेषामज्ञत्वात्परीक्षाऽकिञ्चिकरेति निगूढं स्वाभिप्रायं प्रकटयन्नाह--- अथवाऽलं मन्दबुद्धिपरीक्षकपरीक्षणैः । ममापि कृतमेतेन वैयात्येन जगत्प्रभो ! ॥८॥ अथवेति-- जगत्प्रभो !, अथवेति पूर्वोत्तारुचौ, वस्तुत इत्यर्थः । तदेवाह-मन्दबुद्धिपरीक्षणैः मन्दबुद्धीनामज्ञानां वस्तुतस्वग्रहणदरिद्राणां परीक्षकाणां परीक्षणैः पालोचनैः, अलम्=पर्यातम् , मुधा तानि परीक्षणानीत्यर्थः । अज्ञानां परीक्षया वस्तुतत्त्वनिर्णयस्याऽग्रामणिककल्पितत्वादनुपादेयत्वादिति भावः । ननु तर्हि त्वया किमर्थ तदुपन्यासःकृत इति चेत्तत्राह-ममाऽपि तत्पक्षोद्भावनप्रवृत्तस्य मम, अपिः समुच्चये । एतेन तदीयपक्षमुपन्यस्य भवति हीनगुणत्वप्रतिपादनेन स्तुतिव्याजप्रवृत्तेन, वैयात्येन-वियातोधृष्टः, अविनयीत्यर्थः, तस्य भावस्तेन, धृष्टतया । पूज्ये हि 2010_ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १५७ स्तुतिव्याजेनाऽपि हीनगुणत्वप्रतिपादनं सदाचारविरुद्धत्वादविनय एवेति भावः, “ धृष्टो वियात" इत्यमरः, अतएव, कृतम् = पर्याप्तम् , न करणीयम् , अनुचितत्वात् , पूज्यपूजाव्यतिक्रमाऽनुषङ्गादिति भावः ॥८॥ नन्वेवं परेष्टं देवलक्षणं न सम्मतं तर्हि स्वयमुच्यतामित्याह-- यदेव सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणाम् । परीक्षन्तां कृतधियस्तदेव तव लक्षणम् ॥९॥ यदेवेति----भगवन !, कृतधियः-धीमन्तः, यत् यत्प्रकारमेव, सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणम् = सर्वेषां संसारिणां जन्तुनामेकेन्द्रियादारभ्य देवपर्यन्तानां जीवानां रूपतो लक्षणाद् विलक्षणमलौकिकत्वाद्विभिन्नम् , लक्षणम्-असाधारणो धर्मः, सहजाद्यति-- शयादिरूपं पूर्व विस्तारेण प्रतिपादितमिति तात्पर्यम् , तादृशस्य धर्मस्य लोकलक्षणविलक्षणत्वात् । परेष्टदेवानां तु लक्षणं लौकिकमेव, लोके तादृशगुणानां साकल्येन तारतम्यत उपलब्धेरिति भावः । तव-लोकोत्तमस्य भवतो वीतरागस्य, तदेव-तत्प्रकारमेव, लक्षणम् , उभयत्रैवकारःप्रकारान्तरनिवृत्त्यर्थो यत्तत्पदपरामृश्ययोरत्यन्ताऽभेदप्रतिपादनार्थश्च । परीक्षन्ताम् साधकबाधकप्रमाणैनिश्चिन्वन्तु । एवञ्च सर्वसंसारिरूपविलक्षणत्वमेव देवलक्षणम् । प्रकारान्तरं तु संसारिजीवलक्षणं कथञ्चित् । नतु वीतरागदेवलक्षणमित्यन्ये देवाः संसा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीवीतरागस्तवेऽष्टादशः प्रकाशः रिणः, भवांस्त्वलौकिक इति न दृष्टान्तसहायेन भवत्परिचयः शक्य! इति तथा प्रयतमानाः परेऽज्ञा निष्फलायासा इति शोचनीया एवेति भावः ॥ ९ ॥ व्यतिरेकमुखेन वैलक्षण्यं प्रकटयन् भगवतोऽज्ञेनाऽपरिचे- यत्वं स्वयमाह क्रोधलोभभयाक्रान्तं जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां वीतराग ! कथञ्चन ॥१०॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवेऽष्टादशः प्रकाशः ॥ १८ ॥ J क्रोधेति — वीतराग !, जगत् = सर्व एव जन्तुः, क्रोधलोभभयाक्रान्तम् = क्रोधेन लोभेन भयेन चाक्रान्तं ग्रस्तम्, क्रोधादिपरवशो लोक इत्यर्थः । अस्मात् = क्रोधादिपरवशाज्जगतः, विलक्षणः = निष्कषायत्वाद्विभिन्नलक्षण:, त्वमित्यर्थलभ्यते । मृदुधियाम् = लौकिकबुद्धिमत्वादल्पज्ञानाम् कथञ्चन - केनाऽपि प्रकारेण, न, गोचरः - विषयः, लौकिक बुद्धिमतां परोक्षोऽसि । लौकिका लौकिकगुणानेव विषयीकर्तुमर्हति न त्वलौकिकगुणम्, भवांस्त्वलौकिक इत्यत एव तेषामविषय इति भवतस्तादृशो गुण एव तेषां भवत्परिचयेऽन्तराय इति ते दयनीया एव न तूपालभ्या इति भावः ॥ १० ॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायामष्टादशः प्रकाशः ॥ १८ ॥ 2010_dor Private & Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमः प्रकाशः न केवलं विविधस्तवेन कृतार्थता, अपि तु स्मरणेनाज्ञा-- राधनेन चेत्यनुसन्धायाह तव चेतसि वर्तेऽहमिति वाताऽपि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्त्तसे चेत्त्वमलमन्येन केनचित् ॥१॥ तवेति-भगवन् !, तव = वीतरागस्य केवलज्ञानादिमतः चेतसि-मनसि, अहम् त्वदुपासकः, वर्त्त-स्थितःस्याम् , त्वन्मानसज्ञानविषयोऽहं भवेयमित्यर्थः । इति एवम्प्रकारा, वार्ता-शब्दमात्रमपि, दुर्लभा अप्राप्या, अवाच्या वा । अपिना स्थितिस्तु दूरे इति सूच्यते । केवलिनो द्रव्यमनसःसत्त्वेऽपि भावमनोऽ. भावात्तत्र स्थितिवारीया अनवसरग्रस्तत्वादिति भावः । ननु तर्हि कथं तवोपकार इति चेन्न । तदाह-चेत् यदि. त्वम् वीतरागः, मचिते, वर्त्तसे, तर्हि, अन्येन-देवान्तरेण, केनचित्-रागादिपरवशतया निकृष्टतयाऽनिर्देष्टव्यनाम्ना,अलम्=पर्याप्तम् , न प्रयोजनमित्यर्थः । त्वत्स्मरणादेवाऽसाधारणफलावाप्ते निकृष्टफलप्रदेन देवान्तरेण न मम प्रयोजनमिति सारार्थः । यत उत्कृष्टलाभः, स एव स्मर्तव्यः, निकृष्टलाभाय प्रयासस्य मुग्धबुद्धिविजम्भितस्वादिति भावः । यद्वा तव स्मरणमेव प्रार्थये, तेनैव सर्वेष्टसिद्धेः । एवञ्च विशिष्य फलान्तरप्रार्थनं निष्प्रयोजनकमेवेत्यर्थों बोध्यः ॥१॥ 2010_ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीवीतरागस्तवे एकोनविंशतितमः प्रकाश: ननु यदि देवान्तरेणाऽपीष्टं सिद्धयति, तर्हि किमर्थं तत्रौदासीन्यमिति चेत्तत्राह निगृह्य कोपतः कांश्चित्कांश्चित्तुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥ निगृह्येति-भगवन् !, प्रलम्भनपरैः प्रतारणैकव्यापारैः, परैःपरतीर्थिकदेवैः. कांश्चित-स्वभक्तान , तष्टया-प्रसादेन. अनुगृह्यवरप्रदानादिना सन्तोष्य, कांश्चित-स्वद्वेषिणोऽसुरादीन् , कोपतः= क्रोधेन हेतुना, निगृह्य दण्डयित्वा, चः समुच्चये । तोषको. पयोः सतोरेषैव गतिरिति भावः । विष्णुशिवादीनां कोपतोऽसुरादिहननं प्रसादतो देवाद्यनुग्रहश्च पुराणादिवर्णितमिहाऽनुसन्धेयम् । मृदुधियःअल्पमतयः, प्रतार्यन्ते-अहं समर्थ इति मिथ्या बोधयित्वा स्वमभि समाकृष्यन्ते । ततो ह्यनुग्रहवदवसरे निग्रहस्याऽपि सम्भवात तेषां भयास्पदत्वात्कथञ्चिन्निकृष्टफलस्यैव लाभाच्च स्वयमसिद्धत्वात्पर. साधनयोग्यताऽभावाच्च मुमुक्षूणां तद्विषये औदासीन्यस्यैवौचित्यात् । न च तैः प्रतारणभयम्, वीतरागस्मरणेन दृढबुद्धेः । रागवन्तस्तादृशा देवा हेया एव । वीतरागस्मरणेनैव च कृतकृ. त्यतालाभ इति यावदिति भावः ॥२॥ ननु यदि वीतरागः, स न निग्रहपरायणो यथा, तथा नानुग्राहकोऽपीति तदुपासनया दूरे कृतकृत्यता, जलताडनवत्त. देकान्तेनैव निष्फलमिति चेत्तत्राह 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) कीर्तिकलाभ्याख्याविभूषितः १६१ - अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं फलमेतदसङ्गतम् ।। चिन्तामण्यादयः किं न फलन्त्यपि विचेतनाः १ ॥३॥ अप्रसन्नादिति-भगवन् !, अप्रसन्नात् प्रसादशून्यात्, वीतरागत्वात्तस्य प्रसादाद्यभावात् , रागवान् हि प्रसीदतीति भावः । फलम् अभीष्टम् , कथम् केन प्रकारेण, प्राप्यम् लभ्यम् ?, नैव लभ्यमित्यर्थः । प्रसन्नो हि कोऽपि फलं ददाति । अन्यथा तु सर्वत एव सर्वस्यैव फलप्राप्तिः सुकरा स्यादिति भावः । एतत= ईदृशः पर्यनुयोगः, असङ्गतम् दृष्टान्तविरुद्धम् । किं तदृष्टान्तमित्यपेक्षायामाह-विचेतना: चैतन्यरहिताः, जडा इत्यर्थः, अपि, चिन्तामण्यादयः चिन्तमणिप्रभृतयो रत्नादयः, आदिना कामकलशादिपरिग्रहः । न, फलन्ति, किम् अभीष्टं न साधयन्ति किम् ?, अपि तु साधयन्त्येव, वस्तूनामचिन्त्यस्वभावत्वात् । अपिना यत्राऽचेतनाः फलन्ति, तत्र सचेतनाः फलन्तीति किम्वक्तव्यमिति सूच्यते । चिन्तामण्यादयो ह्यचेतनत्वात्प्रसादं विनैव यदि चिन्तामात्रेण फलन्ति । तर्हि सचेतनानां वीतरागाणां लोकोत्तराचिन्त्यचरिताणां स्मरणं फलेदेव । एवं चाऽप्रसन्नान्न फलप्राप्तिसम्भव इति वार्ता दृष्टान्तविरुद्धत्वादसङ्गतेति सारार्थः । चिन्तामणिवद्वीतरागचिन्तनं सर्वेष्टप्रदमिति भावः ॥३॥ एवं स्मरणं समर्थ्याज्ञापालनं समर्थयन्नाहवीतराग ! सपर्यायास्तवाज्ञापालनं परम् । 2010_Bor Private & Personal Use Only ___ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीवीतरागस्तवे एकोनविंशतितमः प्रकाशः आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥४॥ वीतरागेति-वीतराग !, तव, सपर्यायाः = पूजामपेक्ष्य, "पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्याऽर्चाऽर्हणाः समा" इत्यमरः । आज्ञापालनम् = त्वदुपदिष्टानुष्ठानम् , परम् = उत्कृष्टम् । नन्वेतत्कुत इत्यपेक्षायामाह-आज्ञा, आराद्धा-यथावत्पालिता सती, शिवाय मोक्षाय, मोक्षप्राप्तिमार्गस्यैव भगवतोपदिष्टत्वादिति भावः । विराद्धाप्रमादादिभिः खण्डिता कुतर्कादिना विगोपिता वा, चेनाज्ञाऽनुषज्यते । भवाय = भवप्रयोजककर्मबन्धाय, चद्वयं समुच्चये । स्यादिति शेषः । मुक्तिप्रदानुष्ठानस्याऽकरणे दूषणे वा भवप्रदानुष्ठान एव सचेतनानां शरीरिणां सर्वथा निष्क्रियत्वासम्भवात्प्रवृत्तिः स्यात् । तृतीयस्य कस्यापि मार्गस्याऽभावात् । पूजा तु द्रव्यस्तवरूपा भावस्तवे सति नाऽत्यन्तमपेक्षिता । भावं विना च पूजा नेष्टफलायाऽलमिति सपाया आज्ञापालनं परमिति भावः ॥ ४ ॥ का साऽऽज्ञेत्यपेक्षायामाहआकालमियमाज्ञा ते हेयोपादेयगोचरा । आश्रवः सर्वथा हेय उपादेयश्च संवरः ॥५॥ आकालमिति-भगवन् !, आश्रवः कर्मबन्धप्रयोजकः कायवाङ्मनोयोगः, सर्वथा सर्वप्रकारेण कायेन मनसा वचसा कृतानुमतिकारितैश्च । हेयः त्याज्यः, भवहेतुत्वादिति भावः । संवरः उक्ताश्रवनिरोधरूपं सावधविरत्यादिकम् , चः समुच्चये । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १६३ उपादेयः ग्राह्यः, आचरणीय इत्यर्थः । कर्मक्षयादिना मोक्षोपायत्वादिति भावः । इत्येवम् , हेयोपादेयगोचरा हेयोपादेयविघया, किं हेयं किमुपादेयमित्येवं विवेकदानपूर्वकं हेयेषु निवृत्तेरुपादेयेषु च प्रवृत्तेः प्रयोजिकेत्यर्थः । इयम् उक्तप्रकारा, ते= तव निर्हेतुकदयावतः, आज्ञा-उपदेशः, आकालम्-कालमभिव्याप्य, अनाद्यनन्तकालं यावदियमेकरूपैव, नतु तीर्थान्तरवयुगे युगे परिवर्तनशीलेति भावः ॥५॥ आश्रवसंवरयोहेयोपादेयत्वयोर्हेतुमाह-- आश्रवो भवहेतुःस्यात्संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाईती मुष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥६॥ आश्रव इति-भगवन् !, आश्रवः, भवहेतुः भवानुबन्धी, स्यात् । कर्मबन्धहेतुत्वात्तस्येति भावः । तथा, संवरः, मोक्षकारणम् । तस्य कर्मक्षयहेतुत्वादिति भावः । अतएवाऽऽश्रवो मुमुक्षुणा हेयः संवरश्योपादेय इति तात्पर्यम् । ननु श्रुतं द्वयनेकद्वादशभेदम् , तत्र च गणशो हेया उपादेयाश्चोपदिष्टाः, एवञ्च द्वयोरेव विशिष्योपन्यासे भवतः क आशय इति चेत्तत्राह - इति-उक्तप्रकारा, इयम् = आश्रवसंवरयोहयोपादेययोविशिष्योक्तिः, आहती = अर्हतां वीतरागस्य सम्बन्धिनी, मुष्टिः = सारसमहः, वीतरागेण यदुपदिष्टं तत्रैतद्वयमेव मूलाधारः । अतोऽनयोरेव विशिष्योपन्यासः, ननु तर्हि शेषः किमित्यपेक्षायामाह-अन्यत् 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीवीतरागस्तवे एकोनविंशतितमः प्रकाशः 1 आश्रवसंवराभ्यां भिन्नमङ्गोपाङ्गादि, तत्, अस्याः = उक्तरूपाया मुष्टेः प्रपञ्चनम् = बोधसौकर्यायाङ्गोपाङ्गादिसमायोगेन विस्तारणम् । एवञ्चाऽङ्गोपाङ्गादिकमाश्रवसंवरयोरेव विस्तृतं व्याख्यानमेव । नत्वतोन्यत्किञ्चित्प्रतिपादितमिति भावः ॥ ६॥ नाज्ञाऽऽराद्धा शिवायेत्येतावता कोऽपि प्रवर्तेतेत्याज्ञाराधन प्राप्तफलानाह इत्याज्ञाराधनपरा अनन्ताः परिनिर्वृताः । निर्वान्ति चान्ये क्वचन निर्वास्यन्ति तथाऽपरे ||७|| इत्याज्ञेति - इत्याज्ञाराधनपराः = इत्युक्तप्रकाराया आश्रवत्यागस्वरोपादानविषयिण्या आज्ञाया उपदेशस्याऽऽराधने पालने परास्तत्पराः, प्राणिन इति विशेष्यमाक्षिप्यते । अनन्ताः, नतु परिमिता असङ्ख्याता एव वा, जिनाज्ञाया आकालत्वात्कालस्य चानाद्यनन्तत्वात्काले काले निर्वृतानामनन्तानामेव सम्भवस्याssसवाक्यादिना निर्णयादिति भावः । परिनिर्वृताः = निर्वृतिं गताः, मुक्ता इत्यर्थः । न भूतकाल एव, किन्तु, क्वचन = कुत्रापि विशिष्टे महाविदेहादौ क्षेत्रे, अन्ये = कति, अनन्ता इति यावत् । इत्याज्ञाराधनपरा इति विशेष्यं सम्बध्यते । निर्वान्ति = मुक्तिं गच्छन्ति, चः समुच्चये । एवञ्चेह क्षेत्रे साम्प्रतं न निर्वान्तीति भूतकालेऽपि तत्राऽनास्थेति न वाच्यमिति भावः । भूतवर्त्तमानयोस्तदाज्ञायाः फलवत्वनिश्चये च भविष्यत्यपि तस्यास्तत्त्वं यौक्तिकमेवेत्याह 2010_dor Private & Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा, अपरे, अनन्ताः, निर्वास्यन्ति = भविष्यत्कालेऽपि मुक्तिं गमिष्यन्ति । एवञ्च कालत्रयेऽपि फलवत्त्वनिर्णये सैवाज्ञाऽऽराधनीया सर्वैरिति ध्वन्यते ॥७॥ ननु भवतु साज्ञा तथा, किन्त्वसुकरा चेत्कथमाराध्या सर्वैरित्यतो वीतरागाज्ञाराधने सौकर्यमाह हित्वा प्रसादनादैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥८॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे एकोनविंशतितमः प्रकाशः ॥१९॥ हित्वेति-भगवन् !, प्रसादनादैन्यम् = परेष्टदेवप्रसादार्थ क्रियमाणमलीकगुणादिस्तुतिपूजादिरूपचाटुसम्भावित दैन्यं स्वलाघवम् , हित्वा त्यक्त्वा, अलीकोपायस्य निष्फलत्वात्प्रत्युताऽशुभोपचयनिमित्तत्वेनानर्थपरम्पराऽऽपादकत्वात्तस्य त्याग एव वरम् , जिनस्तु वीतराग इति तत्र प्रसादनादैन्यस्य न कोऽप्युपयोग इत्यत एव तत्र तत्त्याग इति भावः । ननु तर्हि कथमिष्टसिद्धिरिति चेत्तत्राह-एकया केवलया, त्वदाज्ञया आश्रवत्यागसंवरोपादानरूपयैव, एवकारेण प्रसादनादैन्यादेव्यवच्छेदः । आराधितयेति शेषः । जन्मिनः = प्राणिनः, “प्राणी तु चेतनो जन्मी” त्यमरः । कर्मपञ्जरात-कर्मण्येव बन्धकत्वात्पञ्जरमिव, ततः, सर्वथा = सर्व. प्रकारेण, एवकारो भिन्नक्रमः, विमुच्यन्त एव । नाऽत्र सन्देह 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीवीतरागस्तवे विंशतितमः प्रकाश: गन्धोऽपीत्येवकारेण सूच्यते । एवञ्च त्वदाज्ञापालनेन प्रसादनादैन्यादिकं विनैवेष्टसिद्धेर्महत्सौकर्यमिति तदेवैकं कर्तव्यम् , अलं प्रसादनादैन्यादिमहाकष्टोपायपूर्वकपरेष्टदेवाद्याज्ञापालनेन निष्फलेनाऽनर्थकरेण चेति भावः ॥८॥ . इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यायां व्याख्यायामेकोनविंशतितमः प्रकाशः ॥१९॥ विंशतितमः प्रकाशः नन्वेवं भक्तिभरमनसा निपुणं स्तुवतः किमिष्टमित्यपेक्षायां नवभिः पद्यैः स्वेष्टमाशासानः स्तुतिमुपसंहरति-- पादपीठलुठन्मूर्ध्नि मयि पादरजस्तव । चिरं निविशतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् ॥१॥ पादेति-भगवन् !, तव वीतरागस्य भवतः, पुण्यपरमाणुकणोपमम्=पुण्यं तदाख्यं यच्छुभकर्म, तदात्मानो ये परमाणुरूपाः कणाः पुद्गलविशेषाः, तैरुपमीयत इति तत् , पुण्यपु. दूलतुल्यम् । कर्मणः पौगलिकत्वात्पुद्गलस्य चाऽणुस्कन्धभेदभिन्नत्वादिति भावः । परमाणोर्निरवयवत्वाद्रजसश्च सावयवत्वात्सूक्ष्मत्वसाधर्म्यात्कथञ्चिदुपमा ज्ञेया । एतेन सर्वोत्तमसुकृतस्य पादरजोऽपि स्पर्शमणिन्यायेन पुण्यमिति तस्य स्पृहणीयत्वे वाचोयुक्तिः प्रदर्शिता । किन्तदित्यपेक्षायामाह-पादरजा-पादस्य चरणस्य रजो धूलिस्तत् । 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याल्याविभूषितः १६७ मयि-स्तोतरि, पादपीठलुठन्मूर्ध्नि पादस्य न्यासेन सम्पर्कात्पादसम्बन्धि यत्पीठमासनम्, तत्र लुठन्नालोटमानो मूर्धा मस्तको यस्य, तादृशे सति, भक्त्या प्रणामकाले पादपीठन्यस्तमस्तके सतीत्यर्थः । एतेन पादरजोनिवेशाऽवसर उपपादितः । चिरम् = दीर्घकालम् , यावन्न मुक्तिस्तावदिति यावत् । निविशताम्-संश्लिप्यतु । आमुक्ति तव प्रणामपर एव यथास्यामिति हृदयम् । त्वत्सेवैव सकलशर्ममूलमिति सैव मम परमिष्टमिति भावः ॥१॥ दुरिताऽपाकरणमपीष्टमित्याहमदृशौ त्वन्मुखासक्ते हर्षवाष्पजलोर्मिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं क्षणात्क्षालयतां मलम् ॥२॥ मदिति-भगवन् !, मदृशौ-मदीये नेत्रे, त्वन्मुखासक्ते= तव मुखे आसक्ते तदर्शनकताने सत्यौ, हर्षबाष्पजलोमिभिः = हर्षेण यद्वाष्परूपं जलं तस्योर्मि भिः परम्पराभिः कृत्वा, हर्षातिरेकाद्धि नेत्रतो जलं निःसरतीति भावः । एतेन वीतरागमुखदर्शनस्याऽनेकजन्मपुण्योपचयलभ्यतया दुर्लभत्वादत्यन्तमिष्टत्वात्तल्लाभोऽवश्यं हर्षप्रकर्षाय जायते इति सूच्यते । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतम्= अप्रेक्ष्यस्याऽनवलोकनीयस्य कुतीर्थिकतद्देवादे रागादिहेतुभूतपरस्त्र्यादेश्च, प्रेक्षणेनाऽवलोकनेनोद्भूतमुपार्जितम् , इहजन्मन्यन्यजन्मनि चेति शेषः । मलम् दुरितम् , अप्रेक्ष्यप्रेक्षणं हि प्रत्यवायहेतुरिति भावः । क्षणात् = अचिरेणैव, थालयताम् = परिमृष्टाम् , शोध 2010_Bor Private & Personal Use Only ___ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीवीतरागस्तवे विंशतितमः प्रकाशः यतामित्यर्थः । मलस्य हि जलेन क्षालनमुचितमेव । भगवद्दर्शनं दुरितापहारकममन्दानन्दजनकं चेत्यतस्तदप्यवश्यमेष्टव्यमितिभावः ॥२॥ दुरितान्तरशोधनाय प्रायश्चित्तमपीष्टमाहत्वत्पुरो लुठनै र्भूयान्मद्भालस्य तपस्विनः । कृताऽसेव्यप्रणामस्य प्रायश्चित्तं किणावलिः ॥ ३ ॥ त्वदिति - भगवन् !, त्वत्पुरः = त्वदग्रे त्वत्पादपीठ इति यावत्, लुठनैः=भक्तिभरेण भूयोभूय आलोटनैः कृत्वा, जातेतिशेषः । किणावलिः - रूढव्रणपदश्रेणिः, तपस्विनः = औचित्यादुपस्थितत्वाच्च त्वत्पुरोलुठनरूपतपः शीलस्य मद्भालस्य= मल्ललाटफलकस्य, कृताऽसेव्यप्रणामस्य = कृतोऽसेव्यस्य रागादिमतोऽनुपासनीयस्य यः प्रणामोऽत्र भवे परभवेषु वा, तस्य, यथाकथञ्चिद्विहिताऽप्रणम्यप्रणामजन्यदुरितस्येति यावत् । प्रायश्चित्तम् = दुरितविशोधनात्मकम् भूयात् = भवत्विति प्रार्थये । दुरितस्य प्रायश्चितमुचितमेव, येन च कृतं दुरितम्, प्रायश्चित्तमपि तेनैब विधेयमिति भावः । अप्रणम्यप्रणामो दुरितहेतुः । प्रायश्चित्तेन तदुरितशुद्धः पुनस्तथा न करोतीति भवानेव सदा प्रणम्यो मम भूयादिति तात्पर्यम् ॥ ३॥ साम्प्रतं भावनाशुद्धिमिच्छन्नाह मम त्वद्दर्शनोद्भूताश्विरं रोमाञ्चकण्टकाः । तुदन्तां चिरकालोत्थाम सद्दर्शनवासनाम् 2010_dor Private & Personal Use Only 11 8 11 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) कीर्तिकलाब्याख्याविभूषितः १६९ ममेति-भगवन् !, मम, त्वद्दर्शनोद्भूताः = तव दर्शनेनोद्भूताः प्रकटिताः, चिरम्-चिरकालस्थायिनः, रोमाञ्चकण्टका: रोमाञ्चा: पुलकाः कण्टका इव, ते, दर्शनेन हर्षप्रकर्षः स्थायीति तदुद्भवानां कण्टकानां स्थायित्वमिति भावः । चिरकालोत्थाम्= अनादिकालाद्भवन्तीम् , असद्दर्शनवासनाम् = मिथ्यादर्शनसंस्कारम् , तदन्ताम = पीडयन्तु, उत्खन्य शोधयन्तु । मिथ्यादर्शनवासनायाः कण्टकवदुःखजनकत्वात्तस्या रोमाञ्चकण्टकेनोद्धारौचित्यम् । एतेन भगवदर्शनेन मिथ्यात्वं नश्यति, ततश्च भावनाशुद्धिरयत्नसिद्धेति ध्वन्यते ॥ ४ ॥ ___ स्वस्याऽत्युत्कण्ठिततया भगवद्दर्शने निमेषात्मकमपि नान्तरीयकमन्तरायमनिच्छन् भङ्ग्याऽप्रतिपाति सम्यक्त्व प्रार्थयते त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु निपीतासु सुधास्त्रिव । मदीय लोचनाऽम्भोजैः प्राप्यतां निर्निमेषता ॥५॥ त्वदिति --भगवन् !, मदीयैः, लोचनाम्भोजैः=लोचनानि नेत्रे सम्यग्दर्शनञ्च । नेत्रस्येन्द्रियरूपस्य ग्रहे तस्य द्वित्वाद्बहुवचनमनन्वितं स्यादिति बहिरङ्गाऽन्तरङ्गलोचनग्रहोऽत्र विवक्षितः स्तुतिकृत इत्यवधेयम् । तान्याकृतिसाम्याद्विकाससाधर्म्याचाऽम्भोजानि कमलानीव, तैः कर्तृभिः । त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासुतव वक्त्रस्य, लक्षणया ततो निर्गताया उक्तेश्व, या कान्तिः शोभा, पक्षे यथार्थत्वेन कमनीयता, सा च, ज्योत्स्नाः प्रभाः, पक्षे ज्योत्स्ना इव सद्वस्तुप्रकाशकत्वान्निर्मलत्वाच्च सम्यग्दर्शनजनिताः 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रीवीतरागस्तवे विंशतितमः प्रकाशः शुभज्ञानचारित्रादिपरिणामाश्च, तासु । अत्र ज्योत्स्नापदोक्त्या वक्त्रे चन्द्रसादृश्यं ध्वन्यते । यद्वा त्वद्वक्त्रं त्वत्कान्तिस्त्वज्ज्योत्स्ना भामण्डलं सद्वस्तुप्रकाशकतया निर्मलतया च ज्योत्स्नातुल्यं सम्यग्दर्शनं च, तास्वित्यर्थः । सुधासु-अमृतेष्विव, निपीतासु = सादरं विलोकितास्वधिगतासु च, सतीष्विति शेषः । यद्वा निपानविषयीक्रियमाणास्वित्यर्थः । भावारम्भे क्तः । एतेन भगवद्वक्त्रादीनाममृतवद्दौलभ्यं हितकरत्वं च सूच्यते । निर्निमेषता=निमेषोऽक्षिमुद्रणम् , कमलपक्षे दर्शनपक्षे च सङ्कोचःप्रतिपातो वा, तद्रहितता, प्राप्यताम् लभ्यताम् । त्वदर्शने तृप्त्यभावान्निमेषं विना त्वां द्रष्टुमिच्छामि, किञ्चाऽधिगतं सम्यग्दर्शनं मा प्रतिपप्तत् । निर्निमेषत्वसाधयादमरता च जायताम् । सुधापानाद्धयमरत्वमुचितमेव । ममाऽप्रतिपाति सम्यग्दर्शनं सर्वदा त्वदर्शनं च जायतामिति यावदिति भावः । यदि चाऽत्र ज्योत्स्नाभिः कमलविकासः कविसमयविरुद्ध इति विभाव्यते, तदा यौगिकार्थपरतयाऽम्भोजपदस्य कुमुदे वृत्तिर्बोध्या, "कल्हारकैरवमुखेष्वपि पङ्कजेष्वि" त्यादिवदिति ध्येयम् ॥५॥ अङ्गैस्त्वदुपासनैव ममेष्टमित्याहत्वदास्यलासिनी नेत्रे त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ त्वदास्येति-भगवन् !, मम, नेत्रे, त्वदास्यलासिनी 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्यास्याविभूषितः १७१ तवाऽऽस्ये मुखे विषये यो लासो विलासो व्यापारः, सोऽस्त्यनयोरिति ते तादृश्यों, त्वन्मात्रमुखेक्षणैकताने इत्यर्थः । सर्वदा भूयास्ताम् । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतमलक्षालना यथा पुन नाऽऽपतेदिति भावः । तथा, करौ, ममेति सम्बव्यते । त्वदुपास्तिकरौर तवोपासनाविधिपरायणौ, अन्यस्याऽनुपास्यत्वादिति भावः । सर्वदा भूयास्तामिति सम्बव्यते । किञ्च, श्रोत्रे-कर्णी, ममेत्यनुषज्यते । त्वद्गुणश्रोतृणी-तव गुणश्रवणशीले, सर्वदा भूयास्ताम् । अन्यस्याश्रोतव्यत्वादनिष्टत्वादिति भावः ॥६॥ वाण्या अपि वीतरागगुणस्तुतिमात्रपरत्वमिच्छन्नाहकुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैष भारती तर्हि स्वस्त्येतस्यै किमन्यया ॥७॥ कुण्ठेति-भगवन् !, मम, भारती = वाणी, कुण्ठा = वस्तुप्रतिपादनाऽपट्वी, अपिना तस्या गुणग्रहणं प्रति योग्यताऽ. भावः सूच्यते । त्वद्गुणग्रहणम् त्वगुणवर्गनं प्रति, त्वद्गुणवर्णनमभिलक्ष्येत्यर्थः । यदि, सोत्कण्ठा = लालसावती, त्वद्गुणवर्णने यथाशक्ति सव्यापारेति यावत् । तर्हि, एतस्यै = मम वाण्यै, स्वस्ति = कल्याणमस्तु । कुण्ठाऽपि सती सैवेष्यते मया, यतो हीनोऽपि शुभाशयः प्रशस्यते, न तु महानप्यशुभाशय इति भावः । अत एव, अन्यया अन्यादृश्या, त्वद्गुणवर्णनापराङ्मुख्या पट्ट्याऽपि, किम् ! = न प्रयोजनमित्यर्थः । तस्या गुणपराङ्मुखत्वाद्गुणपरत्वाचाऽनर्थमूलत्वादनेषणीयत्वादिति भावः ॥७॥ 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीवीतरागस्तवे विंशतितमः प्रकाशः ननु याचकस्येष्टसिद्धिर्न याञ्चामात्रतः, किन्तु स्वामिनो दातुरनुकूलतया, किश्च पृथक्पृथङ्नानायाचनायां दातुरुद्वेगोऽपि सम्भाव्यते । बहुयाचकश्चाऽसन्तुष्टोऽयमित्येवं विगोप्यते च, तदेतत्सर्वमनुसन्धाय सर्वेष्टसिद्धिमूलं स्वामिकृतं स्वस्य दासत्वेन स्वीकारमेकमेव याचमानः स्तुतिमुपसंहरति-- तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व नाथ ! नाऽतः परं ब्रुवे ॥८॥ तवेति-नाथ ! स्वामिन् !, अहमित्याल्लभ्यते । तव वीतरागस्य स्वामिनः, एवकारार्थः प्रस्तावाल्लभ्यः । प्रेष्यः कार्यार्थ प्रेषणामर्हतीति सः, प्रेषयितुं योग्य इति वा । अस्मि, दासः-क्रयक्रीतोभृत्यः, अस्मि, सेवकः परिचारकः, अस्मि, तथा, किङ्करः = किं यत्किञ्चिदपि स्वामिनाऽऽर्दिष्ट करोतीति स तादृशः, अस्मि । अस्मीति पुनः पुनरुक्तियेन केनाऽपि प्रकारेण त्वमेव मम स्वाम्यहं च तव स्वमिति स्वाभिप्रायद्योतनाय । न त्वं मम स्वामी' ति मदीयकथनमात्रं पर्याप्तम् , किन्तु स्वामिनस्तथा स्वीकारोऽपीत्यत आह-ओम् = एवमेतत् , इति =एवम्प्रकारेण, प्रतिपद्यस्वस्वीकुरु । त्वं मम स्वमित्येवं स्वीकुर्वित्यर्थः । तावतैव हि मम सर्वेष्टलाभः । सर्वो हि स्वामी स्वं रक्षत्येवेति भावः । अत एव, अतः उक्तायाः, वचसः, परम्=अधिकम् , न-नैव, ब्रुवेवच्मि, प्रयोजनाभावाद्वक्तव्यस्याऽनवशिष्टत्वात्सर्वस्यैवेष्टस्य तत्रैवा 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः १७३ ऽन्तभावात् । त्वत्कृतः स्वत्वेन मदङ्गीकार एव मदीयप्रार्थिताऽप्रार्थितसकलेष्टसिद्धिद्वारमिति भावः । नाऽतःपरं ब्रुवे इत्युक्त्या च भङ्गया स्तुतिसमाप्तिरपि सूचिता बोध्या ॥ ८ ॥ भक्तिभरनिभृतान्त:करणेन कृतस्याऽस्य वीतरागस्तवस्य 'नहि महतां स्तुति निष्फले' ति फलाऽवश्यम्भावात्तत्फलमाक्त्वेनाऽनुग्राह्यं कुमारपालमभिनन्दन् भङ्गया तत्फलमप्याह श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितश्रीवीतरागस्तवे विंशतितमः प्रकाशः ॥२०॥ समाप्तश्चाऽयं श्रीवीतरागस्तवः ॥ श्रीति-व्याख्यातपूर्वमिदं पद्यम् ॥९॥ इति श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितायां श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकलाख्यां व्याख्यायां विंशतितमः प्रकाशः ॥ २० ॥ ॥ समाप्ता च श्रीवीतरागस्तवकीर्तिकला ॥ प्रशस्तिः स्वच्छतपोगच्छाऽम्बरमणिरसमः शमशुधानिधिर्धारः ।। तीर्थोद्धारकरो यः शासनसम्राडभूत्स नेमिरिह ॥१॥ तत्पट्टालङ्कारः समयज्ञः शान्तमूर्तिरपि गीतः ।। प्रगुरुः श्रीविज्ञानो गुणवल्लिवितानपादपः प्रांशुः ॥२॥ - 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः तत्प प्राकृतविद्विशारदः शारदेन्दुशुचिकीर्तिः । 'श्रीस्तूरः सुगुरुः सिद्धान्तमहोदधिः ख्यातः ॥३॥ तच्छिण्याऽन्यतमोऽहं श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिनाम्ना । तन्नियाजदयायाः पात्रं शास्त्रेषु लब्धमतिः ॥ ४ ॥ स्वाध्यायतत्पराणां श्रीवीतरागस्तवस्य ललितस्य ।। बोधसौकर्यहेतो य॑धां कीर्तिकलाख्यां व्याख्याम् ॥४॥ विनयी मे स विनेयो मुनिचन्द्रोऽभिख्यया च गुणतश्च । सन्मतिमेतु यतोऽस्याऽभ्यर्थनयाऽत्र प्रवृत्तोऽहम् ॥६॥ विवुधै विवृतः सैषोऽनेकैरनल्पकीर्तिकलितैस्तदपि । तेषामिव न कदाचित्पर्यनुयोज्यः प्रयासो मे . ॥ ७ ॥ परतो ननु चन्द्रस्याऽमला कला शुदि विलक्षणा च यथा । कीर्तिकलाऽस्य ममैषा स्तवस्य वृत्तिषु सदा भायात् ॥८॥ मोदकरी यदि चैषा गुणगृह्याणां प्रसन्नवदनानाम् । किमपीहाऽऽप्य कथञ्चित् सन्तुष्यतु कृष्णतुण्डोऽपि ॥८॥ बाणेन्द्वम्बरनेत्रे वैक्रमवर्षे वसन्तपञ्चम्याम् । सैषा समाप्तिमाप्ता जिनवरिवस्याऽस्तु मे भक्त्या ॥१०॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ साधना-मुद्रणालय 66-1. 5 वाँ मेन रोड, गान्धीनगर, बेंगलोर-9 2010_ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रम् अशुद्धम् लोकालोक पुरुषार्थ अतीतश्च तिराग उप्तत्ति लोकालोक पुरुषार्थ अतीताश्च तिराग उत्पत्ति त्येवतस्मा स्पेव यस्मा भव २ : 05 : var उदासताम् प्रायाम् शिखण्डि बदन् ख्यातृणां भवन्नी उदास्ताम् प्रायम् शिखण्डि वदन् ख्यातॄणां भवन्ती श्रद्धत्ते एवाभाव श्रद्धते एवभाव হন্তু ९५ १४ निछनन् निघ्नन् 2010_03r Private & Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रम् १०९ १११ वीतराग सम्बन्ध ११२ ११६ 64 cm M तर्ष बीतराग सम्बन्ध इनि वसङ्कल्पित अह्नरहः क्षणाम् ११८ १३४ १५७ त्वसङ्कल्पित अहरहः क्षणम् 2010_Bor Private & Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्तिचन्द्रविजयविरचित कीर्तिकलाव्याख्यासहित पुस्तक : मुद्रित १-द्वात्रिंशिकाद्वयी (कलि० हेम० विरचित व्य० द्वा० तथा अन्य०व्य० द्वात्रिंशिका ) कीर्तिकलाव्याख्या २-द्वात्रिंशिकाद्वयी-कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवाद सहित / ३-श्रीवीतरागस्तवः (कलि० हेम विरचित) कीर्तिकलासंस्कृत व्याख्या सहित / मुद्रयमाण:१-श्रीवीतरागस्तवः-कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवादसहित / २-श्रीवीतरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलार्हस्तोत्र (कलि० हेम० विरचित) कीर्तिकला-संस्कृतव्याख्या तथा हिन्दीभाषानुवाद सहित: ३-श्रीवीरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलाहेत्स्तोत्र कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवाद सहित / प्राप्तिस्थान :शा. जनकलाल कान्तिलाल। ठे-लिम्बडी शेरी ( मु. पेटलाद ) वाया-आणन्द / (गुजरात) 2010 Bor Private & Personal Use Only