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________________ * प्रकाशकीय कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराज विरचित जिनस्तोत्रोंके विषय में जैन जनताका असाधारण आकर्षण है, यहू एक निर्विवाद सत्य है । ऐसी स्थितिमें उन स्तोत्रोंका विविध सामग्री सहित प्रकाशन प्रकाशकके लिये एक गौरवका विषय हो गया है । इस लिये उन स्तोत्रोंका अनेक प्रकारसे प्रकाशन होता हीं रहता है । मैं समझता हूं कि पूर्वजन्म के पुण्यप्रभावसे हीं प. पू. श्रीकीर्तिचन्द्रविजयजी गणि महाराज कृत - ' ' कीर्तिकला ' संस्कृत व्याख्या तथा हिन्दी भाषानुवाद सहित द्वात्रिंशिकाद्वयी तथा कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या सहित श्रीवीतरागस्तवके प्रकाशनका सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है । जिसमें द्वात्रिंशिकाद्वयी पुस्तक अचिर पूर्वमें ही प्रकाशित हुई है । तथा प्रकाशित होनेके बाद अल्पकाल में ही वाचकों द्वारा उसका सोत्साह स्वागत किया गया है । इसका समर्थन इसीसे होता है कि कीर्तिकला सहित द्वात्रिंशिकायको देखकर उसकी मनोज्ञता से प्रभावित होकर बेंगलोर के चामराजेन्द्र संस्कृत कालेज के माननीय प्रिंसिपाल महोदयने तत्काल हीं अपने कालेज के पाठ्यक्रम में कीर्तिकला टीकाका नाम निर्देश पूर्वक द्वात्रिंशिका द्वयीका समावेश कर दिया है। उक्त प्रकाशनकी इस प्रकारकी सफलतासे कृतकृत्यताका अनुभव करना मेरे लिये स्वाभाविक है, इस विषय में वाचकोंको मतभेद नहीं होगा ऐसा मेरा विश्वास है । Jain Education International 2010_dor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002579
Book TitleKirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorMunichandrasuri
PublisherSha Bhailal Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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