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संपादकीय
प्रस्तुत पुस्तक " श्री वीतरागस्तोत्र - " मेरे प. पू. गुरुदेव श्रीकीर्तिचन्द्रविजयजीगणिविरचित कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या सहित के सम्पादनका कार्यभार प. पू. गुरुदेव श्रीने मुझको सौंपा, और मुझे उसका स्वीकार करते हुए बडी प्रसन्नता भी हुई ।
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यह बात अविदित नहीं है कि आज कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यरचित स्तोत्रोंका जैन समाजमें स्वाध्याय के लिये प्रमुखस्थान है । प्रायः प्रत्येक साधु तथा साध्वी अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्रीवीतरागस्तोत्र, श्रीवीतरागमहादेवस्तोत्र तथा सकलाई स्तोत्र - इन स्तोत्रोंका नियमपूर्वक स्वाध्याय करते हैं ।
उक्त स्तोत्रोंके स्वाध्याय के प्रति आकर्षणका मुख्य कारण, इन स्तोत्रोंके भावका उत्कर्ष - प्रसादगुण-स्याद्वाद के सिद्धान्त तथा परमत के साथ मतभेदकी परीक्षाका सरलसाहित्यिकशैलीसे प्रतिपादन आदि माना जाय तो अयुक्त नहीं कहा जा सकता । यद्यपि ये स्तोत्रग्रन्थ संस्कृत, हिन्दी तथा गुजराती भाषा में अनेक टीका टिप्पणियों के साथ प्रकाशित हैं । इन स्तोत्रों के सार्थ अध्ययन करनेवाले यथासम्भव तथा यथाशक्ति उन टीका टिप्पणियों का उपयोग भी करते हैं । तदनुसार मैंने भी उक्त रीति से इन स्तोत्रोंका सार्थ अध्ययन किया है । तथा जैसे जैसे मेरा इन स्तोत्रोंका अध्ययन
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