Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव-प्रपंच कथा
इन्द्रिय ग्राह्य ही नहीं बन जाते, वरन् उनमें एक ऐसा अद्भुत शक्ति संचार हो जाता है, जिससे वे अपने साक्षात्कर्ता के मन / मस्तिष्क- पटल पर गम्भीर और अमिट छाप बना डालते हैं ।
काव्य-जगत् में अरूप / अमूर्तभावों के मूर्तीकरण का, उनके रूप-विधान के मूर्तीकरण का, उनके रूप-विधान के प्रचलन का, ऐसा ही मुख्य कारण होना चाहिए । रूपक - साहित्य की सर्जना - शैली के मूल में भी, अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करने का उपक्रम, आधारभूत तत्त्व बनता है ।
उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति और लक्षणा के दोनों प्रकार-सारोपा और साध्यवसाना, ऐसे प्रमुख उपकरण हैं, जो, रूपक - साहित्य की सर्जना शक्ति में प्रमुख - पाथेयता का निर्वाह करने में सक्षम हैं । इनमें से, सादृश्यमूला सारोपा की भित्ति पर रूपक का प्रासाद विनिर्मित होता है, और सादृश्यमूला साध्यवसाना की दीवालों पर, अतिशयोक्ति का भवन बनता है । क्योंकि, सारोपा लक्षणा, विषय और विषय को, यानी उपमान और उपमेय को, एक ही धरातल पर खड़ा कर देती है । 2 जबकि साध्यवसाना लक्षणा, विषय में विषयी का, अर्थात् उपमान में उपमेय का अन्तर्भाव करा देती है । अरूप में रूप को पाने की शैली का, यही आधारभूत सिद्धान्त है ।
अमूर्त को मूर्त बनाने के काव्य-शिल्प का बीजरूप सङ्केत, बृहदारण्यक उपनिषद् के उद्गीथ ब्राह्मण में, और छान्दोग्योपनिषद् में भी एक रूपकात्मक आख्यायिका के रूप में मिलता है । श्रीमद् भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में पुण्य और पापरूपी वृत्तियों का उल्लेख, दैवी तथा आसुरी सम्पत्ति के रूप में किया गया है । बौद्ध साहित्य में, जातक निदान कथा के 'अविदूरे निदान' की मार - विजय सम्बन्धी आख्यायिका और 'सन्तिके निदान' की प्रजपालवादि के नीचे वाली आख्यायिका में, अरूप को रूपमय बनाने के शैली- शिल्प का दर्शन होता है ।
जैन साहित्य में अनेकों छोटे-मोटे आख्यान रूपक शैली में मिलते हैं । जिनमें 'सूत्रकृताङ्ग' 'उत्तराध्ययन' और 'समराइच्चकहा' के कुछ रूपक विशेष उल्लेखनीय हैं । उदाहरण के लिये :
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१.
एवं च गौण - सारोपालक्षरणासंभवस्थले रूपकम्, गौरणसाध्यवसानलक्षणा संभवस्थले त्वतिशयोक्तिरिति फलितम् । - काव्यप्रकाश वामनीटीका-पृष्ठ- ५६३
सारोपान्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा ।
२.
३.
४.
4.
- काव्यप्रकाश भण्डा० प्रोरि०रि० ई० पूना, पृष्ठ ४७ विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका ।
उद्गीथ ब्राह्मण-१/३ छान्दोग्योपनिषद् - १/२
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— वही-पृष्ठ-४८
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