Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
सागरचंद्र को अशोकदत्त के शब्द विष-पान जैसे लगे। उसे पत्नी के प्रति तनिक भी शंका नहीं थी। वह उस पर पूर्ण विश्वस्त था। किंतु मित्र की बात सुन कर वह स्तम्भित रह गया । दिग्मूढ़ हो गया। उसके हृदय में आग जैसी लग गई । वह क्या करे! ! !
___ सागरचंद्र को स्तब्ध देख कर अशोकदत्त बोला- “मित्र ! घबराओ नहीं । अब चिन्ता छोड़ कर सावधान रहो और उसकी बात पर कभी विश्वास मत करो तथा इस बात को भी अपने मन में ही रख कर, जैसे चले वैसे चलाते रहो। अन्यथा सारा परिवार दुःखी हो जायगा।"
सागरचन्द्र नीचा मुंह किये घर लौट आया । आवेग मिटने पर उसने यही निश्चय किया कि जिस प्रकार शरीर में फोड़ा हो जाने पर, पट्टी बांध कर उसे चलाया जाता है, उसी प्रकार प्रियदर्शना को उदासीन भाव से पूर्व के समान निभाया जाय, जिससे परिवार में शान्ति बनी रहे । वह प्रियदर्शना के साथ उदासीनता से रहने लगा और मन की गांठ मन में ही दबाये रहा ।
प्रियदर्शना ने सागरचन्द्र के हृदय को आघात नहीं लगे, इस विचार से अशोकदत्त की नीचता की बात उसे या किसी को भी नहीं कही । उसने सोचा--'मैने उसे कुत्ते के समान दुत्कार दिया। अब वह कभी मेरे सामने नहीं आ सकेगा। फिर सागर चंद्र के मन में अशांति उत्पन्न करने की आवश्यकता ही क्या है ?' वह नहीं जानती थी कि उस कामीकुत्ते ने सागरचंद्र के हृदय में कैसा विष भर दिया है। वह अपने कर्तव्य का पालन यथावत् करती रही।
सागरचंद्र को संसार के प्रति अरुचि हो गई । वह अपनी सम्पत्ति का दान करने लगा । काल के अवसर में मृत्यु पा कर सागरचंद्र और प्रियदर्शना, जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र के दक्षिण-खंड में, गंगा-सिन्धु नदी के मध्य-प्रदेश में, इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के पल्योपम का आठवाँ भाग शेष रहने पर युगलिकपने जन्मे । उनकी आय पल्योपम के दसवें भाग जितनी थी और अवगाहना ९०० धनुष थी, अशोकदत्त पाप के फल से उसी क्षेत्र में हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ। वह चार दाँत वाला था । उसका वर्ण श्वेत था।
एक बार घूमते-फिरते हाथी ने अपने पूर्वभव के मित्र सागरचंद्र को अपनी युगलिनी सहित देखा । देखते ही उसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई । उसने स्नेहपूर्वक युगल को सैंड से उठा कर अपनी पीठ पर बिठा लिया। सागरचन्द्र को भी हाथी के प्रति प्रीति हो गई। उसे अपने पूर्वभव का स्मरण हुआ। अब युगल, हाथी की पीठ पर बैठ कर फिरने
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