Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अजितनाथजी -- शुद्धभट का परिचय
महाव्रतों के पालक, निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करने वाले और निरन्तर सामायिक चारित्र में रहने वाले शान्त, धीरजवान् और धर्म का उपदेश करने वाले सुगुरु होते हैं । इसके विपरीत प्रचुर अभिलाषा वाले सर्वभक्षी, परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी और मिथ्या उपदेश देने वाले कुगुरु हैं । वे सुगुरु नहीं कहे जाते । जो गुरु कहा कर खुद आरंभ और परिग्रह में मग्न रहते हैं, वे दूसरों का उद्धार नहीं कर सकते ।
धर्म वही है जो दुर्गति में गिरते हुए जीव को बचावे । वीतराग सर्वज्ञ भगवंतों का कहा हुआ संयम और क्षमादि १० प्रकार का धर्म ही मुक्ति देने वाला है । परम आप्त पुरुष के वचन ही धर्म-निर्देशक होते हैं । कोई भी वचन अपौरुषेय नहीं होता । अपौरुषेय वचन असंभवित है । आप्त पुरुषों के वचन प्रामाणिक होते हैं । मिथ्यादृष्टियों का माना हुआ, हिंसादि दोषों से कलुषित बना हुआ, ऐसे नाममात्र के धर्म को ही धर्म माना जाय, तो वह संसार में परिभ्रमण कराने वाला होता है ।
यदि रागयुक्त देव भी सुदेव माना जाय, अब्रह्मचारी को गुरुमाना जाय और दयाहीन धर्म भी सुधर्म माना जाय, तो दुःख के साथ कहना होगा कि संसार भ्रमजाल में पड़ कर भवाटवी में भटकने को ही धर्म मान रहा है ।
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शम, संवेग, निर्वेद, अनुम्पा और आस्तिक्य, इन पाँच लक्षणों से सम्यक्त्व की पहिचान होती है । स्थिर करना, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कुशलता और चतुर्विध तीर्थ की सेवा, ये पाँच सम्यक्त्व के भूषण हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और मिथ्यादृष्टि का परिचय, ये पाँच सम्यग्दर्शन को दुषित करते हैं ।
अपनी पत्नी से सम्यग्दर्शन का स्वरूप जान कर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ । उसने उसकी प्रशंसा की और स्वयं सम्यग्दृष्टि हुआ ।
उस ग्राम में पहले बहुत से लोग श्रावक-धर्म का पालन करते थे । किन्तु बाद में साधुओं का संसर्ग नहीं रहने से मिथ्यादृष्टि हो गए। शुद्धभट दम्पत्ति को श्रावक-धर्म पालक जान कर वे मिध्यादृष्टि लोग उनकी निन्दा करने लगे, किन्तु वे अपने धर्मं में दृढ़ रहे । कालान्तर में उनके एक पुत्र का जन्म हुआ ।
एक बार सर्दी के दिनों में अपने पुत्र को ले कर शुद्धभट ' धर्म अग्निष्टिका' के पास गया । वहाँ ब्राह्मण लोग अग्नि ताप रहे थे । शुद्धभट को देखते ही उन्होंने कहा--"अरे ओ श्रावक ! तू जा यहाँ से । तू भ्रष्ट है और हमारे पास बैठने योग्य नहीं है ।" इस तिरस्कार पूर्ण व्यवहार से शुद्धभट क्रोधित हो गया। उसने वहीं उच्च स्वर में कहा-'यदि जिनधर्म संसार से तारने वाला नहीं हो, यदि सर्वज्ञ अरिहंत आप्त देव नहीं
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