Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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-धर्मदेशना
भ० पद्मप्रभः जी -ध
तथा उष्णादि द्रव्यों के योग से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। प्राचीन वायुकाय के जीवों का नवीन वायुकाय के द्वारा नाश होता है । मुख आदि से निकले हुए पवनों से बाधित होते हैं और सर्प आदि के द्वारा पान किये जाते हैं ।
कंद आदि दस प्रकार की वनस्पति में उत्पन्न जीवों का तो सदैव छेदन-भेदन होता है | अग्नि पर चढ़ा कर पाये जाते हैं । पारस्परिक पग से पीड़ित होते हैं । रस-लोलुप जीव, क्षार आदि लगा कर जलाते हैं और कंदादि सभी अवस्था में भक्षण किये जाते हैं । वायु के वेग से टूट कर नष्ट होते हैं । दावानल से बल-जल कर भस्म होते हैं और नदी के प्रवाह से उखड़ कर गिर जाते हैं । इस तरह सभी प्रकार की बादर वनस्पति, सभी जीवों के लिए भक्ष्य हो कर सभी प्रकार के शस्त्रों में छेदन भेदन को प्राप्त होती है । वनस्पतिकाय को प्राप्त हुआ जीव, सदा ही क्लेश की परम्परा में ही जीवन व्यतीत करता है ।
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इन्द्रियपने उत्पन्न जीव, पानी के साथ पिये जाते हैं। आग पर चढ़ा कर उबाले जाते हैं । धान्य के साथ पकाये जाते हैं । पाँवों के नीचे कुचले जाते हैं और पक्षियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं । शंख-सोपादि रूप में हो, तो फोड़े जाते हैं, जौंक आदि हों, तो सूंते जाते हैं । गिंडोला आदि को औषधी के द्वारा पेट में से बाहर निकाला जाता हैं ।
तेइन्द्रियपने में जीव, जूँ और खटमल के रूप में शरीर के साथ मसले जाते हैं । उबलता हुआ पानी डाल कर मारे जाते हैं । चिटियाँ पैरों तले कुचल कर मारी जाती हैं। झाड़ने- बुहारने में भी मर जाती हैं और कुंथुआदि बारीक जीवों का अनेक प्रकार से मर्दन होता हैं ।
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चौरिन्द्रिय जीवों में मधुमक्खी और भौंरों आदि का मधु लोभियों द्वारा नाश किया जाता हैं | डांस-मच्छरादि प्राणी पंखे आदि से और धूम्र प्रयोग से मारे जाते हैं और छिपकली आदि द्वारा खाये जाते हैं ।
पंचेन्द्रियपने जलचर में परस्पर एक दूसरे का भक्षण (मच्छ गलागल ) करते हैं । मच्छीमारों द्वारा पकड़े जा कर मारे जाते हैं । चर्बी के लिए भी जलचर जीवों की हिंसा होती है ।
स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों में मृग आदि जीवों को सिंहादि क्रूर जीव खा जाते हैं । शिकारी मनुष्य, अपने व्यसन तथा मांस-लोलुपता के कारण निरपराधी जीवों की अनेक प्रकार से घात करते हैं । कई प्राणी क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण और अतिभार वहन के कारण दुःखी जीवन व्यतीत करते हैं । उन पर चाबुक की मार तथा अंकुश एवं शूल भोंक
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