Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
सनत्कुमार चंद्रवर्ती का अलौकिक रूप
नीतिपूर्वक राज्य का संचालन करते हुए महाराज सनत्कुमार को चक्र आदि चौदह महारत्न प्राप्त हुए । उन्होंने षट्खंड पर विजय प्राप्त की । जब उन्होंने विजयी बन कर गजारूढ़ हो, अपनी राजधानी हस्तिनापुर में प्रवेश किया, तो शकेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने श्रीसनत्कुमार के चक्रवर्तीपन का राज्याभिषेक किया । राज्याभिषेक के उपलक्ष में चक्रवर्ती सम्राट ने बारह वर्ष तक प्रजा को सभी प्रकार के कर से मुक्त कर दिया और प्रजा का पुत्रवत् पालन किया ।
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महाराजाधिराज सनत्कुमार अप्रतिम रूप सम्पन्न थे । उनका रूप देवोपम था । उनके समान दूसरा कोई रूप सम्पन्न नहीं था। एक बार सौधर्म स्वर्ग में शकेन्द्र की सभा भरी हुई थी । दिव्य नाटक चल रहा था । उस समय ईशान देवलोक का संगम नामक देव, कार्यवश सौधर्म सभा में आया। उसका रूप इतना उत्कृष्ट था कि शकेन्द्र की सभा के सभी देव चकित रह गये | उसके रूप के आगे सभी देवों का रूप फीका और निस्तेज हो गया । सभी देव, उस संगम के रूप पर विस्मित हो गए। उसके जाने के बाद देवों ने इन्द्र से पूछा कि - " इस देव को ऐसा अलौकिक रूप किस प्रकार प्राप्त हुआ ।"
सौधर्मेन्द्र ने कहा--" उसने पूर्वभव में आयम्बिल-वर्द्धमान तप किया था । इससे उसे ऐसा रूप और तेज प्राप्त हुआ है * ।"
देवों ने फिर पूछा
-" क्या इस देव जैसा उत्कृष्ट रूप जगत् में और भी किसी
का है ?"
-" इससे भी अधिक रूप तो भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सम्राट सनत्कुमार का है । उनके जैसा उत्तम रूप अन्यत्र किसी मनुष्य या देव का भी नहीं है"-- शक्रेन्द्र ने कहा ।
* तप से आत्मा पर लगे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । बाह्याभ्यंतर तप से आत्मा तो प्रभावित होती ही है, किंतु शरीर पर भी उसका प्रभाव पड़ता है । यद्यपि तप से देह निर्बल, अशक्त एवं जर्जरित हो जाती है, फिर भी तपस्वी के श्रीमुख पर एक तेज, एक दीप्ति प्रकट होती है । आगमों में कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख आया है; -
"तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अई अईव उवसोभेमाणे चिट्ठइ ।" ( भगवती २ - १ ) उपरोक्त आगमिक शब्द तपस्वी के चेहरे पर प्रकट होने वाली तप के तेज की शोभा और उससे उसकी अत्याकर्षकता प्रकट करते हैं । यह दीप्ति उसे भावी जन्म में भी प्राप्त होती है । निर्जरा के साथ शुभ कर्म का जो बन्ध होता है, उसके उदय का यह उत्तम फल है ।
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