Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
कर दीजिए । मैं जीवन-पर्यन्त ब्रह्मचारिणी रह कर सुकृत करते हुए जीवन व्यतीत करूंगी।" नरेश ने कपिल को बुला कर कहा;--
"सत्यभामा अब धर्माचरण कर के पवित्र जीवन बिताना चाहती है। अब यह तुझसे और संसार से विरक्त हो गई है, इसलिए इसे मुक्त कर दे।"
--" राजन् ! मैं सत्यभामा के बिना जीवित नहीं रह सकता । यह मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय है। मैं इसे कैसे मुक्त कर दूं ?"
-'यदि मुझे मुक्त नहीं किया गया, तो मैं आत्मघात कर के मर जाउँगी, किंतु अब तुम्हारे साथ संसार में नहीं रहूँगी"-सत्यभामा ने अपना निर्णय सुनाया।
राजा ने मार्ग निकालते हुए कहा;--
"कपिल ! यह बाई कुछ दिन मेरे अंतःपुर में रहेगी और महारानी इसकी देखभाल करेगी। बाद में जैसा उचित होगा, वैसा किया जायगा।"
महाराजा का निर्णय कपिल को मान्य हुआ। वह चला गया। सत्यभामा महारानी के पास रह कर तपमय जीवन बिताने लगी।
इन्दुसेन और बिन्दुसेन का युद्ध
उस समय कौशांबी नगरी में बल राजा की पुत्री राजकुमारी श्रीकान्ता यौवन-वय को प्राप्त हो चुकी थी। उसके योग्य अच्छा वर सरलता से प्राप्त नहीं हो रहा था । इसलिए बल राजा ने अपनी पुत्री को श्रीसेन नरेश के पुत्र इन्दुसेन को स्वयंवर से वरने के लिए बहुत धन और अन्य अनेक प्रकार की ऋद्धि सहित रत्नपुर भेजी। राजकुमारी के साथ 'अनन्तमति' नाम की एक वेश्या भी आई थी । वह अत्यंत सुन्दरी थी । उसका उत्कृष्ट रूप देव कर राजकुमार इन्दुसेन और बिन्दुसेन-दोनों भाइयों में विवाद खड़ा हो गया । तलवारें खिंच गई । जब महाराज श्रीसेन ने यह समाचार सुना, तो तत्काल वहाँ आये और दोनों को समझाने लगे, किन्तु उनका समझाना व्यर्थ गया। महाराज निराश हो अन्तःपुर में आये। उन्हें पुत्रों की दुर्मदता, भ्रातृ-वैर और निर्लज्जता से बड़ा आघात लगा। नरेश अब जीवित रहता नहीं चाहते थे। उन्होंने तालपुट विष से व्याप्त कमल को सुंघ कर प्राण त्याग कर दिया। उनका अनुसरण दोनों रानियों ने किया। जब यह बात सत्यभामा ने
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