Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 414
________________ भ. मल्लिनाथजी--धर्मदेशना--समता ४.१ करना चाहिए । जो आत्मार्थी मुनिजन खाद्य, लेह्य, चुष्य और पेय--इन चार प्रकार के रस से विमुख हैं, वे समता रूपी अमृत-रस को वारंवार पीते रहते हैं। उनके कंठ में कोई सपं डाल दे और कोई मन्दार वृक्ष (एक उत्तम सुगन्धित वृक्ष) की माला पहिना दे, तो भी उनके मन में हर्ष-शोक अथवा प्रीति-अप्रीति नहीं होती। वे ही वास्तव में समता रूपी सुन्दरी के शक्तिशाली पति--स्वामी हैं। समता न तो गूढ़ (समझ में नहीं आने योग्य ) है, न किसी से हटाई जा सकती है और इसकी प्राप्ति भी कठिन नहीं है । चाहे अज्ञानी (बिशेष ज्ञान रहित ) हो, या बुद्धिमान् हो, यह समतारूपी औषधी दोनों को संसार रूपी रोग से मुक्त करने वाली है। अत्यन्त शांत रहने बाले योगियों में भी एक क्रूर कर्म ऐसा रहा हुआ है कि जो समतारूपी शस्त्र से, रागादि दोषों के कुल का नाश कर देता है । । समता का परम प्रभाव तो यही है कि इसके द्वारा पापीजन भी आधे क्षण में शाश्वत पद को प्राप्त कर लेते हैं । जिसके सद्भाव से ज्ञान, वर्शन, और चारित्र ये तीनों रत्न सफल होते हैं और जिसकी अनुपस्थिति में ज्ञानादि तीनों रत्न निष्फल हो जाते हैं, ऐसे महाक्रमी समता गुण से सदा कल्याण ही कल्याण है । जब उपसर्ग आ गये हों, अथवा मृत्यु प्राप्त हो रही हो, तब तत्काल करने योग्य श्रेष्ट उपाय एक मात्र समता ही है। इससे बढ़ कर दूसरा कोई उपाय नहीं है। __जिन्हें राग-द्वेष को जीतना है, उन्हें एक समता को ही धारण करना चाहिए, जो मोक्ष रूपी वृक्ष का बीज है और अनुपम सुख देने वाली है।" छहों राजा भी भगवान् के पास दीक्षित हुए और भगवान् के मातापिता ने देशविरति स्वीकार की। भगवान् के भिषक् आदि २८ गणधर हुए। ४०००० साधु, ५५००० साध्वियां, ६०० चौदह पूर्वधर + २००० अवधिज्ञानी, ८०० मनःपर्ययज्ञानी, ३२०० केवलज्ञानी, ३५०० वैक्रिय लब्धिधारी, १४०० वाद लब्धि वाले, २००० अनुत्तरोपपातिक १८४००० श्रावक और ३६५००० श्राविकाएँ थी। भगवान् ५४९०० वर्ष तक तीर्थंकर नाम कर्म के उदयानुसार विचर कर धर्मोपदेश + त्रि. श. पु. च. में संख्या भेद इस प्रकार है-६६८ चौदह पूर्वधर, २२०० अवधिज्ञानी, १७५० मनःपर्यवज्ञानी, २२०० केवलज्ञानी, २९०० वैक्रिय लब्धि वाले, १४०. वादलब्धि वाले, १८३००० श्रावक और ३७०००. श्राविकाएँ थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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