Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
भ० मल्लिनाथजी -- धर्मदेशना समता
अरिहंत मल्लिनाथ भगवान् ने निश्चय किया कि 'मैं एक वर्ष बाद संसार का त्याग कर दूंगा ।' भगवान् का अभिप्राय जान कर प्रथम स्वर्ग के अधिपति देवेन्द्र शक्र ने ' वर्षीदान' की व्यवस्था करवाई । अर्हन्त भगवान्, नित्य प्रातःकाल एक करोड़ आठ लाख सोने के सिक्कों का दान करने लगे। उधर मिथिलेश ने भी दानशाला चालू कर दी, जिसमें याचकों को सम्मानपूर्वक आहारादि का दान दिया जाने लगा । इस प्रकार एक वर्ष में तीन अरब, अठासी करोड़ अस्सी लाख सोने के सिक्कों का दान किया ।
भगवान् ने मातापिता के सामने अपने महाभिनिष्क्रमण की इच्छा व्यक्त की । मातापिता तो जानते ही थे । उन्होंने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी और महोत्सव प्रारंभ किया । भगवान् के महाभिनिष्क्रमण महोत्सव में देवेन्द्र भी उपस्थित हुए। भव्य महोत्सव मनाया गया । भगवान् को शिविका को उठाने में बलेन्द्र, चमरेन्द्र, शकेन्द्र और ईशानेन्द्र ने भी योग दिया ।
३९९
भगवान् ने पौष शुक्ला एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में, दिन के पूर्व-भाग में तेले के तप सहित स्वयं पंच- मुष्टि लोच किया और सिद्धों को नमस्कार कर के स्वयं सामायिक चारित्र ग्रहण किया। आपके साथ ३०० स्त्रियों, ३०० पुरुषों और ८ राजकुमारों ने दीक्षा ली । भगवान् को उसी समय ' विपुलमति मनः पर्यवज्ञान' उत्पन्न हो गया और उसी दिन शाम को उन्हें केवलज्ञान एवं केबलदर्शन भी प्राप्त हो गया + । वे द्रव्य तौर्थंकर से भाव तीर्थंकर हो गये। इसके बाद भगवान् ने अपनी प्रथम धर्मदेशना इस प्रकार चालू की --
धर्मदेशना
"
-समता
भगवान् ने केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद अपने प्रथम उपदेश में 'समता' का महत्व बतलाते हुए फरमाया कि-
यह
संसार अपने-आप में अपार होते हुए भी जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन समुद्र बढ़ता है, उसी प्रकार रागादि से विशेष बढ़ता रहता है। इस वृद्धि का मूल कारण है-
Jain Education International
+ त्रि.श. पु. च. और आवश्यक में मार्गशीर्ष शु. ११ का उल्लेख है और 'जैन सिद्धांत बोल संग्रह ' भाग ६ में भी ऐसा ही है । किन्तु यह सूत्रानुसार नहीं है ।
* आवश्यक भाष्य गा. २६१ और टीका में छद्मस्थकाल ' अहोरात्र' का लिखा । जैन सिद्धांत बोल संग्रह भा. ६ पु. १८५ में भी ऐसा ही हैं । यह ज्ञातासूत्र से विपरीत है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org