Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 411
________________ तीर्थङ्कर चरित्र कर के जयंत विमान में उत्पन्न हुए। हम सब ने वहाँ अपने मन से ही आपस में संकेत किया था कि " मनुष्य होने पर एक दूसरे को प्रतिबोध देंगे । बन्धुओं ! याद करो, अपनी स्मृति को एकाग्रता पूर्वक पिछले भव की ओर लगाओ । तुम्हें सब प्रत्यक्ष दिखाई देगा ।" -- वे सभी एकभवावतारी, हलुकर्मी एवं संकेत मात्र से समझने वाले थे । भगवती मल्लिकुमारी का उद्बोध, उन सब के हृदय में पैठ गया । सब ने शुभ परिणाम से उपयोग लगाया । कमजोर आवरण खिसक गये और जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हो गया । उन सब राजाओं ने अपने पूर्वभव और पारस्परिक सम्बन्ध देखे । गर्भगृह का द्वार खुल गया। छहों नरेन्द्र, द्रव्य अरिहंत भगवान् मल्लिनाथ के समीप उपस्थित हुए - पूर्वभव के सातों मित्र मिले | भगवान् मल्लिनाथ ने अपने मित्रों से कहा । " में तो संसार का त्याग करना चाहती हूँ । तुम्हारी क्या इच्छा है ?" -- " हम भी आपके साथ ही संसार छोड़ेगे । अब संसार में रह कर हम क्या करेंगे। हमैं भी संसार में कोई रुचि नहीं है जिस प्रकार पिछले तीसरे भव में आप हमारे नेता थे, उसी प्रकार अब भी हमारे नेता ही रहेंगे " -- सभी मित्रों ने कहा । --" अच्छा तो पहले अपने पुत्रों को राज्य पर स्थापित करो, फिर यहाँ आओ । अपन सब एक साथ ही दीक्षित होंगे " - अरिहंत ने कहा । छहों राजा, कुंभराजा के पास आये और उनके चरणों में झुके । कुंभराजा ने सभी का आदर-सत्कार कर के बिदा किया । ३९८ वर्षीदान लोकान्तिक देवों का आसन कम्पायमान हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान में देखा कि अर्हन्त मल्लिनाथ के निष्क्रमण का समय निकट आ गया है । वे भगवान् के पास आये और परम विनीत एवं मृदु शब्दों में निवेदन किया- " बुज्झाहि भगवं ! लोगणाहा, पवत्तेहि धम्मतित्थं । जीवाणं हियसुहणिस्सेयस करं भविस्सई ।" --“भगवन् ! बूझो । हे लोकनाथ ! जीवों के हित-सुख और मुक्ति-दायक धर्मतीर्थ का प्रवर्त्तन करो ।" इस प्रकार दो-तीन बार निवेदन कर के और भगवान् को प्रणाम कर के लौट गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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