Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 410
________________ म. मल्लिनाथजी-मित्रों को प्रतिबोध प्रातःकाल छहों राजाओं ने अपने-अपने कमरों में से जालघर में स्थापित की हुई राजकन्या की स्वर्णमयी प्रतिमा देखी। उन्हें विश्वास हो गया कि 'यही राजकन्या है।' वे उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गए और एकटक देखते रहे । इधर मल्लिकुमारी वस्त्राभूषण से सज्ज हो कर, अपनी दासियों और अंतःपुर-रक्षकों के साथ जालघर में आई और प्रच्छन्न रह कर मूर्ति के मस्तक का ढक्कन खोल दिया । फिर क्या था, उसमें से घिरी हुई महान् असह्य दुर्गन्ध एकदम बाहर निकली और सारे भवन को भर दिया । वे मदान्ध राजा, उस दुर्गन्ध को सहन नहीं कर सके और अपनी नाक बन्द कर ली। उनकी यह दशा देख कर भगवती मल्लिकुमारी ने उनसे पूछा-- "अहो विषयान्ध प्रेमियों ! थोड़ी देर के पहले तो आप सब एकटक मेरी प्रतिमा को देख रहे थे । अब नाक बन्द कर के घृणा कर रहे हो ?" -"हमें आपका सौन्दर्य तो प्रिय है, किन्तु इस असह्य दुर्गन्ध को हम सहन नहीं कर सकते । इससे बचने के लिए हमने अपनी नासिका बन्द की है। हम घबरा रहे हैं"-- छहों राजाओं ने कहा। "हे मोहाभिभूत नरेशों"-भगवती मल्लिकुमारी ने उन मोहान्ध राजाओं को सम्बोधित करते हुए, उनके मोह के नशे को उतारने के उद्देश्य से कहा--"यह प्रतिमा मेरे ही रंग रूप जैसी है, फिर भी यह स्वर्ण निमित्त है-हाड़, मांस और रक्तादि इसमें नहीं है । मैने इसमें उसी सुस्वादु और उत्तम भोजन के निवाले डाले हैं, जिन्हें मैं खाती थी। जब उत्तम स्वर्णमयी प्रतिमा में आहार का ऐसा अशुभतर परिणाम होता है, तो हाड, मांस, रक्त, वात, पित्त, कफ और विष्ठादि अशुभ पुद्गलों वाले सड़न, पडन और विध्वंशन शील, इस देह का क्या परिणाम हो सकता है ?" 'महानुभावों ! सोचो, समझो और कामभोग की आसक्ति को छोड़ों । ये भोग तुम्हें अच्छे लगते हैं, किन्तु इनका परिणाम महान् भयानक होता है । भोग, रोग, शोक और दुर्गति का देने वाला तथा जन्ममरण बढ़ाने वाला होता है ।" . "आत्म बन्धुओं ! अज्ञान को छोड़ो और विचार करो। अपन सभी पूर्वभव के साथी हैं । इस भव से पूर्व तीसरे भव में, हम सब अपर महाविदेह के 'सलीलावती विजय ' में 'महाबल' आदि सात बाल-मित्र थे । बचपन से साथ ही रहे थे। हम सभी ने साथ ही संसार छोड़ कर संयम स्वीकार किया था। किन्तु मैं मायापूर्वक तप बढ़ाती रही । इस मायाचारिता के कारण मैने स्त्री नाम-कर्म का बन्ध किया। वहाँ से हम सभी आयुष्य पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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