Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
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साध्वीजी के समीप दीक्षित हो गई । कालान्तर में मुनि कनकशक्ति उसी पर्वत पर आ कर एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा का धारण कर के ध्यानस्थ रहे । मुनिवर को ध्यानस्थ देख कर पूर्वभव का द्वेषी वह हिमचूल देव उपसर्ग करने लगा। जब विद्याधरों ने उस देव को उपसर्ग करते देखा, तो उन्होंने उसकी भर्त्सना की। कालान्तर में मुनिराज रत्नसंचया नगरी के बाहर उद्यान में आ कर ध्यानस्थ हुए । वहाँ उनके घातिकर्म नष्ट हो कर केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई।
कालान्तर में तीर्थंकर भगवान् क्षेमंकर महाराज वहाँ पधारे । वज्रायुध अपने पुत्र सहस्रायुध को राज्य दे कर दीक्षित हो गया। उसके साथ चार हजार राजा, चार हजार रानिये और सात सौ पुत्रों ने दीक्षा ली। श्री वज्रायुध विविध प्रकार के अभिग्रह युक्त तप करते हुए सिद्धि पर्वत पर पधारे और प्रतिमा धारण कर के ध्यानस्थ हो गए। इस समय अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव के पुत्र मणिकुंभ और मणिकेतु भव-भ्रमण करते हुए बालतप के प्रभाव से असुरकुमार देव हुए थे। वे उस पर्वत पर आये और ऋषिश्वर को देख कर पूर्वभव के वैर से अभिभूत हो उपद्रव करने लगे। सिंह का रूप धारण कर के अपने वज्र के समान कठोर एवं तीक्ष्ण नख गड़ा कर दोनों देव, दोनों ओर से उन्हें चीरने लगे। उसके बाद हाथी का रूप धारण कर सूंड, दाँत और पैरों के आघात से महान् वेदना उत्पन्न करने लगे। इसके बाद भयानक भुजंग के रूप में ऋषिवर के शरीर पर लिपट कर शरीर को बलपूर्वक कसने लगे। इसके बाद राक्षसी रूप से भयानक उपद्रव करने लगे। इस प्रकार विविध उपद्रव करने लगे । इतने में इन्द्र की रंभा-तिलोत्तमादि अप्सराएँ जिनेश्वर भगवान् को वंदन करने के लिए उधर हो कर जा रही थी। उन्होंने मुनि पर होता हुआ महान् उपसर्ग देखा। वे बोली-“अरे, ओ पापियों ! तुम ऐसे उत्तम और महान संत के शत्र क्यों बने हो ? ठहरो।" इतना कह कर वे उनके पास पहुँचने लगी । यह देख कर वे दोनों दुष्ट देव भाग गए । अप्सराएँ मुनिराज श्री को वंदन नमस्कार कर के चली गई ।
वज्रायुध मुनि वार्षिकी प्रतिमा पूर्ण कर विशिष्ट तप करते हुए विचरने लगे। राजा सहस्रायुध राज्य चला रहे थे। एक बार यहाँ गणधर महाराज पिहिताश्रवजी पधारे। उनके उपदेश से वैराग्य पा कर सहस्रायुध अपने पुत्र शतबल को राज्य का भार सौंप कर दीक्षित हो गया। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए उन्हें ऋषिवर वज्रायुध अनगार से मिलना हो गया। अब दोनों पिता-पुत्र साथ रह कर साधना करने लगे । अन्त में अनशन कर के आयु पूर्ण कर तीसरे ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए।
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