Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मेघरथ नरेश
- जम्बूद्वीप के पूर्व-महाविदेह में पुष्कलावती नाम का विजय था। सीता नदी के तीर पर पुंडरीकिनी नाम की नगरी थी। धनरथ नाम का महाबली राजा वहाँ राज करता था। प्रियमती और मनोरमा ये दो महारानियाँ थीं। वज्रायुध मुनि का जीव, ग्रैवेयक से च्यव कर महादेवी प्रियमती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। महारानी ने स्वप्नावस्था में गर्जन करता, बरसता और विद्युत् प्रकाश फैलाता हुआ एक मेघ-खण्ड अपने मुंह में प्रवेश करता हुआ देखा । स्वप्न का फल बतलाते हुए महाराज ने कहा---'तुम्हारे गर्भ में कोई उत्तम जीव, आया है। वह मेघ के समान पृथ्वी के ताप को मिटा कर शांति करने वाला होगा।' सहस्रायुद्ध का जीव भी वेयक से च्यव कर महादेवी मनोरमा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। उसके प्रभाव से महारानी ने स्वप्न में एक ध्वजापताका से युक्त सुसज्जित रथ, मुंह में प्रवेश करता हुआ देखा । महारानी ने अपने स्वप्न की बात महाराज को सुनाई, तो उन्होंने स्वप्न का फल बतलाते हुए कहा- 'आपका पुत्र महारथी--महान् योद्धा होगा।' यथासमय दोनों महारानियों ने पुत्र को जन्म दिया। महाराज ने महारानी प्रियमती के पुत्र का नाम 'मेघरथ' और महारानी मनोरमा के पुत्र का नाम 'दृढ़रथ' रखा । दोनों भाई क्रमशः बढ़ने लगे। उनमें आपस में गहरा स्नेह था। वे यौवनवय को प्राप्त हुए । वे रूप, तेज और कला में सर्वोत्तम थे। एक बार सुमन्दिरपुर के महाराजा निहतशत्रु का मन्त्री, महाराजा धनरथ की राजसभा में आया और निवेदन किया--'महाराजा निहतशत्रु, आपसे निकट का सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं। उनके तीन पुत्रियाँ हैं । वे तीनों ही बड़ी गुणवती. विदुषी एवं देवकन्या के समान हैं। मेरे स्वामी आपसे निवेदन करते हैं कि--मेरी दो पुत्रियाँ राजकुमार मेघरथ के लिए और एक राजकुमार दृढ रथ के लिए स्वीकार कीजिए।' महाराजा धनरथ ने सम्बन्ध स्वीकार कर लिया और शभ महतं में आगत मन्त्री के साथ अंगरक्षक सेना और मन्त्री आदि सहित दोनों राजकुमारों को भेज दिया। मार्ग में सुरेन्द्रदत्त राजा के राज्य की सीमा पड़ती थी । जब सुरेन्द्रदत्त को दोनों राजकुमारों के सेना सहित राज्य की सीमा में होकर सुमन्दिरपुर जाने की बात मालूम हुई, तो उसने अपने सीमारक्षक को भेज कर उनका प्रवेश रोकना चाहा और अन्य मार्ग से हो कर जाने का निर्देश दिया। राजकुमारों ने कहा- "हमारे लिए ही मार्ग अवरुद्ध करना न तो मैत्रीपूर्ण है, न नैतिक ही। यह सार्वजनिक मार्ग है। इनकी किसी व्यक्ति विशेष के लिए रोक नहीं की जा सकती।" वे नहीं माने और युद्ध खड़ा हो गया । राजा सुरेन्द्र दत्त और उसका युवराज बड़ी सेना ले कर आ गये । भयानक मारधाड़ प्रारम्भ हो गई । युद्ध की विकरालता बढ़ते
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