Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 351
________________ तीर्थङ्कर चरित्र आये और भक्तिपूर्वक प्रणाम कर के कहने लगे; G "महाराज ! आपकी कृपा से हम तिर्यंच की दुर्गति को छोड़ कर व्यंतर देव हुए हैं। यदि आपकी कृपा नहीं होती, तो हम पाप में ही पड़े रहते और प्रतिदिन हजारों कीड़ों का भक्षण कर के पाप का भार बढ़ाते ही रहते और दुर्गति की परम्परा चलती रहती । आप हमारे परम उपकारी हैं । हमारी प्रार्थना है कि आप हमें कुछ सेवा करने का अवसर प्रदान करें । आप तो ज्ञान से सब जानते हैं, किन्तु हम पर अनुग्रह कर के विमान पर बैठ कर पृथ्वी के विविध दृश्यों का अवलोकन करें ।" युवराज मेघरथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और परिवार सहित विमान में बैठ कर रवाना हुए। वे वन, उपवन, पर्वत, नदियाँ, समुद्र, नगर और सभी रमणीय स्थानों को देखते हुए मानुषोत्तर पर्वत तक गये । देवों ने उन्हें प्रत्येक क्षेत्र और स्थान का वर्णन कर के परिचय कराया । वे मनुष्य-क्षेत्र को देख कर अपनी पुंडरी किनी नगरी में लौट आए । कालान्तर में लोकान्तिक देवों ने आ कर महाराजा धनरथजी से निवेदन किया-" स्वामिन् ! अब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें ।" वे तो प्रथम से ही बोधित थे। योग्य अवसर भी आ गया था । अतएव महाराजा ने युवराज मेघरथ को राज्यभार सौंपा और राजकुमार दृढ़रथ को युवराज पद प्रदान कर वर्षीदान दिया और संसार त्याग कर घातिकर्मों को क्षय कर के केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया तथा तीर्थ-स्थापन कर भव्य जीवों का उद्धार करने लगे । ३३८ मेघरथ राजा का वृत्तांत महाराजा मेघरथ, राज्य का संचालन करने लगे । अनेक राजा उनकी आज्ञा में थे । एक बार वे क्रीड़ा करने के लिए देवरमण उद्यान में गये । वे महारानी प्रियमित्रा के साथ अशोकवृक्ष के नीचे बैठ कर मधुर संगीत सुनने लगे। उस समय उनके सामने हजारों भूत आ कर नृत्य, नाटक और संगीत करने लगे । कोई लम्बोदर बन कर अपना नगाड़े जैसा मोटा पेट हिला कर अट्टहास करने लगा, कोई दुबला-पतला कृशोदर हो कर मिमियाने लगा, कोई ताड़वृक्ष से भी अधिक लम्बतड़ंग हो कर लम्बे-लम्बे डग भरने लगा, किसी की भुजा बहुत लम्बी, तो किसी का सिर मटके से भी बढ़ा, कोई गले में साँपों की माला पहने हुए, जिनकी फणें इधर-उधर उठी हुई लपलपा रही है । नेवलों के भुजबन्ध, अजगर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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