Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 400
________________ तीर्थकर जन्म इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में 'मिथिला' नामकी प्रसिद्ध नगरी थी । वह धन-धान्यादि उत्तमताओं से समृद्ध थी। महाराजा कुंभ वहाँ के पराक्रमी शासक थे। वे उत्तम कुल-शील एवं राज-तेज से शोभायमान थे । रूप, लावण्य, सद्गण एवं उत्तम महिलाओं की सभी प्रकार की विशेषताओं से विभूषित महारानी प्रभावती, महाराजा कुंभ की अर्धांगना थी। महात्मा महाबलजी का जीव, जयंत नामक अनुत्तर विमान स च्यव कर, फाल्गुनशुक्ला चतुर्थी को अश्विनी नक्षत्र से चन्द्रमा का योग होने पर, महारानी प्रभावती के गर्भ में आया। महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भ के तीसरे महीने बाद महारानी को दोहद (विशेष इच्छा) उत्पन्न हुआ कि 'पाँच वर्ण के सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पों से सजी हुई शय्या का उपभोग करूँ और उत्तम श्रीदामगंड (गुच्छे ) को सूंघती हुई सुखपूर्वक रहूँ।' महादेवी के इस दोहद को निकट रहे हुए वाणव्यंतर देवों ने जाना और तदनुसार पूरा किया। गर्भकाल पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष-शुक्ला " को अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर और उच्च स्थान पर रहे हुए ग्रहों के समय, आधी रात में सभी शुभ लक्षणों से युक्त उन्नीसवें तीर्थंकर पद को प्राप्त होने वाली पुत्री को जन्म दिया। सभी तीर्थंकर पुरुष ही होते हैं । स्त्री-शरीर से कोई जीव तीर्थकर नहीं होता। यह नियम है। किन्तु उन्नीसवें तीर्थंकर का स्त्री-शरीर से जन्म लेना, एक आश्चर्यजनक घटना है। श्री महाबल मुनि ने संयम की साधना करते हुए भी माया कषाय का उतनी तन्मयता से सेवन किया कि जो संज्वलन से निकल कर अनन्तानुबन्धी की सीमा में पहुँच गया और उस समय स्त्री-वेद का बन्ध कर लिया । फिर साधना की उग्रता में तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध भी कर लिया। इस प्रकार बांधा हुआ कर्म उदय में आया और स्त्री-पर्याय में उत्पन्न होना पड़ा। दिक कुमारियों, देवीदेवताओं भोर इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया। माल्य की शय्या पर शयन करने के दोहद के कारण पुत्री का नाम “मल्लि" दिया गया । आपका रूप अनुपम, अलौकिक एवं सर्वश्रेष्ठ था। यौवनावस्था में आपका शरीर अत्यन्त एवं उत्कृष्ट शोभायमान हो रहा था। निमित्त निर्माण भाप देवलोक से ही अवधिज्ञान ले कर आये थे। आपने उस अवधिज्ञान से अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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