Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 403
________________ तीर्थङ्कर चरित्र हनक श्रमणोपासक, जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता और निग्रंथ-प्रवचन का रसिक था। उसकी रग-रग में जिनधर्म के प्रति पूर्ण अमुराग बसा हुआ था। किसी समय वे व्यापारी जहाज में माल भर कर विदेश जाने के लिए रवाना हुए । जब उनका जहाज सैकड़ों योजन चला गया, तब वहाँ एक उपद्रव खड़ा हुआ। अकाल में गर्जना, विद्युत् चमत्कार आदि कुलक्षणों के बाद वहाँ एक काले वर्ण वाला भयंकर पिशाच प्रकट हुआ। उसका शरीर बहुन लम्बा पा । उसके अंगोपांग डरावने थे। उसकी देह पर सर्पादि भयंकर जंतु लिपटे हुए थे । उसका भयानक रूप देख कर जहाज के यात्री, मारे भय के धूजने लगे और एक दूसरे से चिपटने लगे। वे अपनी रक्षा के लिए इन्द्र, स्कन्ध, रुद्र, वैश्रमण, नाग, भूत, यक्षादि को मनाने लगे। उनमें एक मात्र अरहन्नक श्रमणोपासक ही ऐसा था--जो उस पिशाच से बिलकुल नहीं डरा, किंतु सावधान हो कर मृत्यु सुधारने की तय्यारी शुरू कर दी। उसने अरिहंत भगवान् को नमस्कार कर के सागारी अनशन कर लिया और ध्यान लगा कर बैठ गया। वह ताल जैसा लम्बा पिशाच, अरहन्नक श्रावक के पास आया और उसे सम्बोधते हुए बोला-"अरहन्नक ! मैं आज इस जहाज को ऊँचा आकाश में ले जाऊँगा और वहाँ से ओंधा कर दूंगा, जिससे तुम सभी यात्री समुद्र में डूब कर अकाल में ही मौत के शिकार बन जाओगे और आर्तध्यान करते हुए दुर्गति में जाओगे । इस महा संकट से बचने का केवल एक ही रास्ता है और वह यह है कि 'तू अपने धर्म, अपने व्रत और अपनी प्रतिज्ञा छोड़ दे।" महानुभाव अरहन्नक समझ गया कि यह कोई दुष्टमति देव है।' उसने अपने मन से ही उत्तर दिया कि--" में श्रमणोपासक हूँ। चाहे पृथ्वी ही उलट जाय, सागर रसातल में चला जाय, या मेरा यह शरीर छिन्न-मिन्न कर दिया जाय, मैं धर्म से भिन्न नहीं हो सकता--मुझ से धर्म नहीं छोड़ा जा सकता । तू तेरी इच्छा हो सो कर।" इस प्रकार मन से ही उत्तर दे कर वह ध्यानस्थ हो गया। पिशाच ने उसी प्रकार दूसरी और तीसरी बार कहा, किन्तु अरहन्नक ने उधर ध्यान ही नहीं दिया। अपने प्रश्न का उत्तर नहीं पा कर पिशाच क्रुद्ध हुआ और जहाज को उठा कर अन्तरिक्ष में ले गया। आकाश में अपनी उंगलियों पर जहाज रखे हुए पिशाच ने फिर वही प्रश्न किया, किन्तु वह वंदनीय श्रमणोपासक, सर्वथा अचल रहा । देव ने समझ लिया कि अरहन्नक पूर्ण दृढ़ एवं अचल है। यह कदापि चलित नहीं हो सकता। उसने धीरे-धीरे जहाज को नीचे उतारा और समुद्र पर रख दिया। पिशाच का रूप त्याग कर देव, अपने असली रूप में आ कर अरहन्नक श्रवक के पैरों में पड़ा और कहा कि- “देवप्रिय ! तुम धन्य हो । देवाधिपति इन्द्र ने तुम्हारी धर्म दृढ़ता की प्रशंसा की थी। किंतु मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ। अब मैने प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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