Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 407
________________ ३९४ तीर्थङ्कर चरित्र किया और निवेदन किया-- "स्वामिन् ! मैं चित्रकार हूँ। मुझे चित्रकारी की ऐसी विद्या प्राप्त है कि किसी भी वस्तु का कोई भी हिस्सा देख लूं तो उसका पूरा--साक्षात्-सदृश्य रूप बना दूं । इसी चित्र के कारण विदेह के युवराज ने मेरा अंगूठा कटवा कर मुझे निर्वासित किया है। अब मुझे आप अपनी छत्र-छाया में शरण दीजिए।" महाराज अदीनशत्रु भी, राजकुमारी मल्लि के पूर्वभव के मित्र, मुनिराज वैश्रमणजी थे और विजय नाम के अनुत्तर विमान की कुछ कम ३२ सागरोपम प्रमाण आयुष्य पूर्ण कर के आये थे। राजकुमारी मल्लि के उस चित्र ने राजा को आकर्षित किया और उसने भी अपना दूत मिथिला की ओर भेजा। चोवरवा का पराभव (६) मिथिला में एक 'चोक्खा' नाम को परिव्राजिका थी। वह चारों वेद और अनेक शास्त्रों में पंडिता थी। दान, तीर्थाभिषेक और शुचि मूल धर्म का प्रचार करती हुई विचरती थी । एक बार वह अपनी शिष्याओं के साथ विदेह-राजकन्या के पास आई और भूमि पर पानी छिड़क कर उस पर अपना आसन बिछा कर बैठ गई। परिव्राजिका ने अपने दानादि धर्म का उपदेश दिया । भगवती मल्लि कुमारी ने परिवाजिका से पूछा-- "तुम्हारे धर्म का मूल क्या है ?" "हमारे धर्म का मूल शुचि है । शौच मूल धर्म का पालन करने से जीव स्वर्ग में जाता है"-परिव्राजिका ने कहा। "चोक्खे ! रक्त रंजित वस्त्र को यदि रक्त से ही धोया जाय, तो उसकी शुद्धि नहीं होती, उसी प्रकार प्राणातिपातादि अठारह पाप करने से आत्मा के कर्म-बन्धन नहीं छूटते । तुम्हारा मार्ग, आत्मा की शुद्धि का नहीं, किन्तु बन्ध का है । तुम्हारे ऐसे प्रचार से कोई लाभ नहीं होता।" इस प्रकार भगवती मल्लिकुमारी के प्रभावशाली एवं अर्थ-गांभीर्य वचनों से चोक्खा निरुत्तर हो कर प्रभावहीन बन गई । उसका चेहरा उतर गया। उसकी ऐसी दशा देख कर राजकन्या की दासियाँ, चोक्खा का उपहास करने लगी। चोक्खा अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सकी। उसके मन में राजकुमारी के प्रति वैरभाव उत्पन्न हो गया। वह वहाँ से निकल कर पांचाल देश के कंपिलपुर नगर में माई। वहाँ जितशत्रु राजा राज करता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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