Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 358
________________ म० शांतिनाथजी - इंद्रानियों ने परीक्षा ली के छींटे दिये । वे होश में आये और अपनी भाषा में बोले; " स्वामिन् ! आपने हमें अन्धकार में से निकाला और प्रकाश में ला कर रख दिया। हमारे पूर्वभव के पाप ने ही हमें इस दुर्दशा डाला था । और यहाँ भी हम नरक में जाने की तय्यारी कर रहे थे । किन्तु आपने हमें नरक की गहरी खाड़ में पड़ने से बचा लिया । अब हमें कुमार्ग से बचा कर सन्मार्ग पर लगाने की कृपा करें, जिससे हमारा उत्थान हो ।" महाराजा ने अवधिज्ञान से उनका आयुष्य और योग्यता जान कर अनशन करने की सूचना की । वे दोनों अनशन कर के मृत्यु पा कर भवनपति देव हुए । इन्द्रानियों ने परीक्षा ली महाराजा मेघरथजी कालान्तर में शांत रस में लीन हो कर पौषध युक्त अष्टम तप कर रहे थे । वे धर्मध्यान में निमग्न थे । उनकी परम वैराग्यमय दशा की ओर ईशानेन्द्र का ध्यान गया । वे तत्काल बोल उठे -- "हे भगवन् ! आपको मेरा नमस्कार हो" - यों कहते हुए नमस्कार करने लगे । यह देख कर इन्द्रानियों ने पूछा - " स्वामिन् ! आपके सम्मुख असंख्य देव नमस्कार करते हैं, फिर ऐसा कौन भाग्यशाली है कि जिन्हें आप नमस्कार कर रहे हैं ?" ३४५ -- " वे महापुरुष कोई देव नहीं, किन्तु एक भाग्यशाली मनुष्य है । तिरछे लोक में पुण्डरी किनी नगरी के नरेश मेघरथजी को मैने नमस्कार किया है । वे अभी धर्मध्यान में लीन हैं। ये महापुरुष आगामी मानव भव में तीर्थंकर पद प्राप्त करेंगे। उनका ध्यान इतना निश्चल, अडोल एवं दृढ़ है कि उन्हें चलायमान करने में कोई भी देव समर्थ नहीं है । वे महापुरुष विश्वभर के लिए वंदनीय है ।' " Jain Education International इंद्र की बात सुन कर अन्य देवांगनाओं के मन में भी भक्ति उत्पन्न हुई, किन्तु सुरूपा और प्रतिरूपा नाम की दो इन्द्रानियों को यह बात नहीं रुचि । वे मेघरथजी को चलायमान करने के लिये उनके पास आई। उन्होंने वैक्रिय से परम सुन्दरी एवं देवांगना जैसी कुछ युवतियाँ तय्यार की । वे हाव-भाव, तथा कामोद्दीपक विकारी चेष्टाएँ करने लगीं। किंतु महान् आत्मा मेघरथजी अपने ध्यान में अडोल ही रहे । अन्त में दोनों इन्द्रानियाँ हारी और वन्दना नमस्कार कर के चली गई । कालान्तर में तीर्थंकर भगवान् धनरथजी ग्रामानुग्राम विहार करते वहाँ पधारे । महाराजा मेघरथजी सपरिवार भगवान् को वन्दन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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