Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 356
________________ भ० शांतिनाथजी-कबूतर की रक्षा में शरीर-दाग ३४३ नहीं है । इसके अतिरिक्त इसका पेट भरने के लिए मैं दूसरे पशु को मार कर उसका मांस खिलाना भी उचित नहीं समझता, तब दुसरा मार्ग ही क्या है ? आप सब अपने मोह एवं स्नेह से प्रेरित हैं और इसीसे आपको यह दुःख हो रहा है। मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। आप धैयपूर्वक मुझे अपने कर्तव्य का पालन करने दें।" _मन्त्रीगण समझ गये कि महाराज अपने कर्तव्य से डिगने वाले नहीं हैं । अब क्या करें । वे यह सोच ही रहे थे कि बाज बोल उठा;-- "महाराज ! मेरे पेट में दर्द हो रहा है । शीघ्रता कीजिए । मुले जोरदार भूख लगी है। बिलम्ब होने पर तेज हुई मेरी जठराग्नि, कहीं मेरे जीवन को समाप्त कर देगी। आह !" मन्त्रीगण बाज को समझाने लगे ... "अरे बाज ! तू तो कुछ दया कर-- हम सब पर। हम तुझे मेवा-मिष्ठान्न आदि जो कुछ तू मांगे वह देने को तय्यार हैं । तू उत्तम वस्तु खा ले-उम्रभर खाता रह । परन्तु महाराज का मांस खाने की हठ छोड़ दे। हम सब पर तेरा बड़ा उपकार होगा।" "मुझे तो ताजा मांस चाहिए, फिर चाहे वह कबूतर का हो, दूसरे किसी प्राणी का हो, या महाराज का हो । मांस के अतिरिक्त मेरे लिए कोई भी वस्तु न तो रुचिकर है, न अनुकूल ही । अब आप बातें करना बन्द कर दें। भूख की ज्वाला में मेरा रक्त जल रहा है । आह, महाराज ! बड़ा दर्द हो रहा है पेट में"-बाज भूमि पर लौटने लगा। ____ महाराजा मेघरथजी अपने हाथ से अपने शरीर का मांस काट कर तराजु में धरते जाते, किन्तु तराजु का पलड़ा ऊँचा ही रहने लगा। कबूतर का पलड़ा ऊपर उठा ही नहीं। वे छुरे से अपना मांस काट कर रखते जाते और जनसमूह आक्रन्द करता जाता, परन्तु कबूतर का पलड़ा भारी ही रहा । शरीर के कई भागों का मांस काट-काट कर रख दिया। इससे महाराजा को तीव्र वेदना हुई ही होगी, किन्तु वे निरुत्साह नहीं हुए। उनके भावों में विचलितता नहीं आई । एक मन्त्री बोल उठा "महाराज ! धोखा है । कोई मायावी शत्रु देव, षड्यन्त्र रच कर आपका जीवन समाप्त करना चाहता है । यदि ऐसा नहीं होता, तो क्या इतना मांस काट कर रख देने पर भी कबूतर का पलड़ा भारी रह सकता है ?" मन्त्री यों कह रहा था कि वहाँ एक दिव्य मुकुट-कुंडलादि आभूषणधारी देव प्रकट हुआ और महाराज का जय-जयकार करता हुआ वोला - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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