Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० शातिनाथजी-धर्मदशना---- इन्द्रिय जय
गायन सुनने में लुब्ध हुआ हिरन, शिकारी के बाण से घायल हो कर जीवन से हाथ धो बैठता है। इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के विषय में लब्ध बनने से मृत्य को प्राप्त होना पड़ता है, तो एक साथ पाँचों इन्द्रियों के वश में हो जाने वाले का तो कहना ही क्या ? इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि मन को विषय के विष से मुक्त रख कर इन्द्रियों का दमन करना चाहिये । बिना इन्द्रिय-दमन के यम-नियम और तपस्या के द्वारा शरीर को कृश करना व्यर्थ ही है । जा इन्द्रियों के समूह को नहीं जीतता, उसका प्रतिबोध पाना कठिन है । इसलिए समस्त दुःखों से मुक्त होने लिए इन्द्रियों का दमन करना चाहिए ।
इन्द्रिय जय करने का मतलब यह नहीं कि इन्द्रियों की सभी प्रवृत्ति को सर्वथा बन्द कर देना । ऐसा करने से इन्द्रियों का जय नहीं होता । अतएव इन्द्रिय की स्वाभाविक प्रवृत्ति में होने वाले राग-द्वेष से मुक्त रहना चाहिए । इसमे इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी उनके जय के लिए होती है। ऐसी स्थिति में इन्द्रियों के पास, उनके विषय रहते हुए भी स्पर्श करना अशक्य हो जाता है । बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष का त्याग कर दे।
संयमी योगियों की इन्द्रिय सदा पराजित एवं दबी हुई ही रहती है । इन्द्रियों के विषय नष्ट हो जाने से आत्मा का हित नहीं मारा जाता, बल्कि अहित मारा जाता है। इन्द्रियों को जीतने का परिणाम मोक्ष रूप होता है और इन्द्रियों के वश में होना संभार के लिए है । इन्द्रियों के विषय और इनके वश में पड़ने से होने वाले परिणाम का विचार कर के उचित एवं हितकारी मार्ग को ग्रहण करना चाहिए । रुई, मक्खन आदि कोमल और पत्थर आदि कठोर स्पर्श में जो प्रीति और अप्रीति होती है वह हेय है। ऐसा सोच कर रागद्वेष का निवारण कर के स्पर्शनेन्द्रिय को जीतना चाहिए । भक्ष्य पदार्थों के स्वादिष्ट रस और कट रस में रुचि और अरुचि का त्याग कर के रसना इन्द्रिय को जीतना चाहिए। घ्राणेन्द्रिय में सुगन्ध और दुर्गन्ध प्रवेश होते. वस्तु के परिणाम का विचार कर के राग-द्वेष रहित होना । मनोहर सुन्दर रूप अथवा कुरूप का देख कर, होते हुए हर्ष और विषाद को रोक कर चक्षु इन्द्रिय को जीतना चाहिए । वीणादि के मधुर स्वर में और गधे आदि के कर्ण-कटु स्वर में, रति-अरति नहीं करने से श्रोतेन्द्रिय वश में होती है।
इन्द्रियों का ऐसा कोई अच्छा या बुरा विषय नहीं है-जिसका जीव ने अनेक बार उपभोग नहीं किया हो । जीव सभी विषयों का पहले अनेक बार भोग कर चुका और भोग कर दुःखी हुआ, तो अब इनकी अधीनता त्याग कर स्वाधीनतापूर्वक वीतराग भाव
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