Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 390
________________ सुभूम चक्रवर्ती फेंक मारा । चक्र के प्रहार को राजकुमार सह नहीं सके और नीचे गिर कर मूच्छित हो गए। थोड़ी ही देर में सावधान हो कर उन्होंने उसी चक्र को उठाया और बलि से-“ले अब सम्भाल अपने इस चक्र को"~-कहते हुए उन्होंने फेंका । बलि का पुण्य एवं आयुष्य समाप्त था । चक्र के प्रहार से उस का सिर कट गया और वह मर कर नरक में गया। प्रतिवासुदेव पर विजय पा कर पुरुषपुण्डरीक वासुदेव और ज्येष्ठ-भ्राता आनन्द बलदेव हो गए। उन्होंने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया । पुरुषपुंडरीक अपने पसठ हजार वर्ष के आयुष्य तक राज्य-ऋद्धि और भोग-विलास में गृद्ध हो कर और निदान का फल भोग कर, मृत्यु पा छठी नरक का महा दुःख भोगने के लिए चले गए। __ अपने छोटे भाई की मृत्यु से आनन्द बलदेव को बड़ा धक्का लगा। वे संसार का त्याग कर पूर्ण संयमी बन गए और चारित्र का पूर्ण शुद्धता के साथ पालन करते हुए मोक्ष पधार गए। सुभूम चक्रवर्ती भगवान् अरनाथ स्वामी के तीर्थ में ही 'सुभूम' नाम के आठवें चक्रवर्ती हुए। उनका चरित्र इस प्रकार है-- ___ इस भरतक्षेत्र में एक विशाल नगर था । भूपाल नाम का राजा वहाँ राज करता था। वह महापराक्रमी था। किंतु एक बार अनेक शत्रु राजाओं ने मिल कर एक साथ उस पर आक्रमण कर के उसे हरा दिया। अपनी पराजय से खिन्न हो कर, भूपाल विरक्त हो गया और ‘संभूति' मुनिराज के पास निग्रंथ प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। संयम के साथ उग्र तप करते हुए वे विचरने लगे। कालान्तर में उनके मन में भोग-लालसा उत्पन्न हुई। मोह की दबी और मुरझाई हुई विष-लता भी बड़ी विषैली होती है । इसे थोड़ासा भी अनुकूल निमित्त मिला कि क्षीण प्रायः दिखाई देने वाली लता पुनः हरीभरी हो कर अपना प्रभाव बताने लगती है । मोह को नष्ट करने के लिए तत्पर बने हुए राजर्षि पुनः मोह के चक्कर में पड़ गए और निदान कर लिया कि "मेरी उच्च साधना के फलस्वरूप, आगामी भव में मैं काम-भोग की सर्वोत्तम एवं प्रचुर सामग्री का भोक्ता बनूं।" इस प्रकार अपनी साधना से (--जो चिन्तामणि रत्न से भी महान् फल देने वाली थी) किंपाक फल के समान दुःखदायी विषफल प्राप्त कर लिया। वे मृत्यु पा कर महाशुक्र नाम के आठवें स्वर्ग में देव हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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