Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
मैं बाजार जा रहा था । मुझे ताम्रलिप्ति नगरी के सेठ ऋषभदत्त मिले। साधर्मीपन के नाते वे मेरे पूर्व-परिचित एवं मित्र थे। एक दिन में उन्हें अपने घर लाया । वे मेरी पुत्री को घुर घुर कर देखने लगे । उन्होंने मुझ से पूछा -- यह किसकी पुत्री है ?' मैने कहा--' - 'मेरी है ।' उन्होंने कहा -'मेरा पुत्र वीरभद्र जवान है । रूप, कला, विद्या, नीति एवं साहस आदि गुणों में वह अजोड़ है । कामदेव के समान रूपवान् है । में उसके योग्य कन्या खोज रहा हूँ । किन्तु उसके योग्य कन्या मुझे आज तक नहीं मिली । आपकी पुत्री मुझे उसके सवथा योग्य लगती है | यदि आप स्वीकार करें, तो यह सम्बन्ध अच्छा और सुखदायक रहेगा ।'
में भी योग्य वर की तलाश में ही था। मैने उनकी बात स्वीकार कर ली और कालान्तर में शुभ मुहूर्त में प्रियदर्शना का लग्न वीरभद्र के साथ हो गया । उनका जीवन सुखपूर्वक बीत रहा था। कुछ दिन पूर्व मैने सुना कि 'वीरभद्र, प्रियदर्शना को सोती हुई छोड़ कर कहीं चला गया है ।' में इस दुःख से दुःखी । अभी यह वामन उसका समाचार लाया, किन्तु यह स्पष्ट कुछ नहीं कहता है । हे प्रभो ! आप कृपा कर के उसका वृत्तान्त बताने की कृपा करें ।
" सेठ ! तुम्हारे जामाता वीरभद्र को उस रात विचार हुआ कि 'मैंने इतनी कला और निपुणता प्राप्त की। किन्तु उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है । यहाँ मेरे पिता आदि के सामने अपना पराक्रम प्रकट करने का अवसर ही नहीं मिलता । इसलिए यहाँ से विदेश चला जाना अच्छा है । विदेश में अपनी विद्या और योग्यता को व्यवहार में लाने का अच्छा अवसर मिलेगा ।' इस प्रकार विचार कर और प्रियदर्शना को नींद में सोई हुई छोड़ कर वह निकल गया और चलता चलता रत्नपुर नगर में पहुँचा । बाजार में घूमते हुए वह शंख नाम के सेठ की दुकान पर पहुँचा । सेठ ने वीरभद्र का चेहरा देख कर समझ लिया कि यह कोई विदेशी है और सुलक्षणों वाला है । सेठ ने प्रसन्नता से वीरभद्र को बुला कर अपने पास बिठाया और परिचय पूछा। वीरभद्र ने कहा--' में ताम्रलिप्ति नगरी से अपने घर से रुष्ट हो कर चला आया हूँ ।' सेठ ने कहा- " इस प्रकार चुपके से घर छोड़ कर निकल जाना उचित तो नहीं है, किन्तु तुम यहाँ आ गये हो, तो प्रसन्नता से मेरे घर रहो । मेरे भी कोई पुत्र नहीं है । तुम इस विपुल सम्पत्ति के मेरे बाद स्वामी होने के योग्य हो ।”
वीरभद्र ने कहा -" महाभाग ! मैं अपने घर से निकला, तो यह नये पिता का घर मेरे लिए तय्यार मिला । आप तो मेरे धर्म-पिता हो गए ।"
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