Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 350
________________ भ० शांतिनाथजी -- कुर्कुट कथा तीनों पिता-पुत्र अच्युतकल्प में २२ सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए । इस जम्बूद्वीप के पूर्व महाविदेह के पुष्कलावती विजय में पुंडरी किनी नगरी थी । हेमांगद राजा राज करता था । वज्रमालिनी नामक महारानी उनकी हृदयेश्वरी थी । मुनिराज श्री अभयघोषजी का जीव, अच्युतकल्प से च्यत्र कर चौदह महास्वप्न पूर्वक महारानी वज्रमालिनी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । जन्म होने पर इन्द्रों ने उनका जन्मोत्सव किया । उनका नाम 'धनरथ' रखा गया । वे द्रव्य तीर्थंकर अभी गृहवास में विद्यमान हैं । तुम विजय और वैजयंत के जीव देवलोक से च्यव कर चन्द्रतिलक सूर्य तिलक नाम के विद्याधर हुए हो । 66 ' दोनों राजकुमार अपना पूर्वभव जान कर प्रसन्न हुए और मुनिवर को नमस्कार कर के अपने पूर्वजन्म के पिता (आप) को देखने के लिए भक्तिपूर्वक यहाँ आये । उन्होंने कौतुकपूर्वक इन मुर्गों में प्रवेश कर के युद्ध का आयोजन किया । यह आपके दर्शन के लिये किया है । यहाँ से मुनिश्री भोगवर्द्धनजी के पास जा कर दीक्षा लेंगे और कर्म क्षय कर मोक्ष जावेंगे ।" उपरोक्त वृत्तांत सुन कर वे दोनों विद्याधर कुमार प्रकट हुए और अपने पूर्वभव के पिता महाराजा धनरथजी को नमस्कार कर के अपने स्थान पर चले गये । ३३७ दोनों कुर्कुट ने भी उपरोक्त वृत्तांत सुना और विचार करने लगे । उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ । उन्होंने अपने पूर्वभव देखे और सोचने लगे कि; " 'अहो ! यह संसार कितना भय और क्लेश से परिपूर्ण है । हमने मनुष्य जन्म पाकर पापों के संग्रह में ही समाप्त कर दिया और पुनः मनुष्य-भव पाना भी दुर्लभ बना दिया।" उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ । वे अपनी भाषा में धनरथ महाराज से कहने लगे; --- " हे देव ! कृपया बताइये कि हम अपनी आत्मा का उद्धार किस प्रकार करें ।" द्रव्य तीर्थंकर महाराजा धनरथजी ने कहा- " तुम अरिहंत देव, निर्ग्रथ गुरु और जिन प्ररूपित दयामय धर्म का शरण ग्रहण करो | इसी से तुम्हारा कल्याण होगा ।' महाराजा धनरथजी का वचन सुन कर संवेग को प्राप्त हुए । उनके मन में धर्मभाव उत्पन्न हुआ और उसी समय अनशन कर लिया। वे मृत्यु पा कर भूतरत्ना नाम की अटवी में 'ताम्रचूर' और 'स्वर्णचूल' नाम के दो महर्द्धिक भूतनायक देव हुए । अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव को देख कर वे अपने उपकारी महाराजा मेघरथजी के पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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