Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
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महाराज की बात पूर्ण होने पर युवराज मेघरथ ने कहा "ये दोनों पूर्वभव के शत्रु तो हैं ही, विशेष में विद्याधरों से अधिष्ठित भी हैं।" राजा ने युवराज को विद्याधरों से अधिष्ठित होने का वृत्तांत कहने का संकेत किया। युवराज कहने लगे ;
"वैताढय पर्वत की उत्तर श्रेणी के स्वर्णनाभ नगर में 'गरुड़वेग' नाम का राजा था, धृतिसेना उसकी रानी थी। उनके चन्द्रतिलक और सूर्यतिलक नाम के दो पुत्र थे। यौवनवय में वे कुमार, वन-विहार करते हुए उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ मुनिराज श्रीसागरचन्दजी एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए थे । मुनिराज को वंदना नमस्कार कर के दोनों राजकुमार बैठ गए । मुनिराज ने ध्यान पालने के बाद दोनों राजकुमारों को धर्मोंपदेश दिया। मुनिराज विशिष्ट ज्ञानी और लब्धिधारी थे। राजकुमारों के अपने पूर्व भव सम्बन्धी पृच्छा करने पर मुनिराजश्रो कहने लगे; -
“धातकीखण्ड के पूर्व ऐरवत क्षेत्र में वज्रपुर नगर था। वहाँ अभयघोष नाम का दयालु राजा था । स्वर्गतिल का उसकी रानी थी। विजय और वैजयंत नाम के उसके दो कुमार थे । वे शिक्षित एवं कलाविद हो कर यौवनवय को प्राप्त हुए । उस समय उसी क्षेत्र के स्वर्णद्रूम नगर में शंख राजा की पृथ्वीसेना नाम की पुत्री थी। वह भी रूप गुण
और अनेक प्रकार की विशेषताओं से युक्त थी। उसका विवाह महाराज अभयघोष के साथ हुआ। एकबार राजा, रानियों के साथ वन-विहार कर रहे थे। रानी पृथ्वीसेना वन की शोभा देखती हुई कुछ आगे निकल गई । उसने वहाँ एक तपस्वी ज्ञानी मुनि को वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठे देखा । वह उनके समीप गई और भक्तिपूर्वक वंदना की। मुनिराज का उपदेश सुन कर वह संसार से विरक्त हो गई और राजा की आज्ञा ले कर संयम स्वीकार कर लिया।
कालान्तर में महाराज अजयघोष के यहां छद्मस्थ अवस्था में विचरते हुए श्रीअनंत अरिहंत पधारे । राजा ने उत्कट भाव-भक्तिपूर्वक आहार दान दिया और अरिहंत ने वहीं अपनी तपस्या का पारणा किया। पंच दिव्य की वृष्टि हुई । कालान्तर में वे ही अरिहंत भगवान केवली अवस्था में वहाँ पधारे और धर्मोपदेश दिया। महाराज विरक्त हो गए। उन्होंने राजकुमारों को राज्य का भार ग्रहण करने के लिए कहा । किन्तु वे भी प्रवजित होने के लिए तत्पर थे। अतएव उन्होंने राज्य भार ग्रहण नहीं किया । अंत में अन्य योग्य व्यक्ति को राज्यभार सौंप कर महाराजा और दोनों राजकुमार निग्रंथ हो गए । मुनिराज श्री अभयघोषजी ने दीक्षित होने के बाद उग्र तप एवं उच्च आराधना प्रारंभ कर दी। उन्होंने भावों की विशिष्ठता से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध कर लिया और आयु पूर्ण कर
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