Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
भ० शांतिनाथजी-सुतारा का हरण
जाग्रत हआ?"
केवली भगवान ने उसके कपिल के भव और सुतारा के, सत्यभामा के भव तथा श्रीसेन, उसकी दोनों रानियाँ----अभिनन्दिता और शिखिनन्दिता के पूर्वभव की कथा सुनाई + और कहा कि “ सुतारा ही सत्यभामा का जीव है और तुम कपिल के जीव हो। तुम आर्तध्यानपूर्वक मृत्यु पा कर अनेक योनियों में परिभ्रमण करते रहे, फिर धमिल नाम के तापस-पुत्र हुए। बड़े होने पर अपने तापस-पिता से ही तापसी दीक्षा ले कर बाल-तप करने लगे। कई प्रकार से अज्ञान कष्ट सहन किये । कूएँ, बावड़ी और सरोवर बनाए । तापसों के समिधा के लिए कुल्हाड़े से वृक्ष काटे, घास आदि काट कर स्थान साफ किये। धुनी, यज्ञ और मार्ग में दीप-दान कर के अनेक पतंगादि जीवों का संहार किया । भोजन के समय कौए आदि दुष्ट तिर्यंचों को पिण्ड-दान किया। बड़-पीपल आदि वृक्षों को देव के समान पूजा, गाय की पूजा की, इत्यादि अनेक प्रकार से, धर्म-बुद्धि से बहुत काल तक कार्य करते रहे । एक बार एक विद्याधर को विमान में बैठ कर आकाश मार्ग से जाते देख कर तुमने संकल्प किया कि यदि मेरी साधना का फल हो, तो मैं भी ऐसा विद्याधर बनूं ।' तापस का भव पूर्ण कर के तुम विद्याधर हुए और सुतारा को देखते ही पूर्व-स्नेह के गाढ़रूप से उदय होने के कारण तुमने उसका हरण कर लिया।"
__ केवली भगवान् की देशना से जन्म-मरण सम्बन्धी विडम्बना और मोह का महा भयानक परिणाम जान कर श्री विजय, अमिततेज, सुतारा और अशनिघोष परम संवेग को प्राप्त हुए । अमिततेज ने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् से पूछा
“जगदुद्धारक ! मैं भव्य हूँ या अभव्य ?" भगवान् ने कहा--
"इस भव से नौवें भव में तू पाँचवाँ षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती सम्राट होगा और चक्रवर्ती की ऋद्धि का त्याग कर के 'शांतिनाथ' नाम का सोलहवाँ तीर्थकर हो कर मोक्ष प्राप्त करेगा। ये श्री विजय नरेश, तुम्हारे प्रथम पुत्र और प्रथम गणधर होंगे।"
अपना उज्ज्वल भविष्य जान कर दोनों नरेश प्रसन्न हुए और भगवान् से श्रावक के बारह व्रत धारण किये । अशनिघोष तो संसार से एकदम उद्विग्न हो गया था। उसने उसी समय सर्वस्व का त्याग कर निग्रंथ-प्रवज्या स्वीकार की। श्रीविजय की माता 'स्वयंप्रभा' (जो त्रिपृष्ट वासुदेव की पटरानी) भी प्रवजित हो गई।
श्रीविजय और अमिततेज, श्रावक-व्रत की आराधना करने लगे । एक बार मासखमण तप वाले एक तपस्वी श्रमण चमरचंचा नगरी में आये । अमिततेज नरेश ने उन्हें
+ देखो पृष्ठ ३०१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org