Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
अत्यंत भक्तिपूर्वक प्रतिमे । चित्त, वित्त और पात्र की उत्कृष्टता से वहाँ पंच- दिव्य प्रकट हुए ।
वासुदेव अनन्तवीर्यजी
दोनों नरेश, श्रावक व्रत का हजारों वर्षों तक पालन करते रहे। एक बार दोनों नरेश अवधिज्ञानी मुनिवर की पर्युपासना कर रहे थे । धर्मोपदेश के पश्चात् अपनी शेष आयु के विषय में प्रश्न किया। मुनिवर ने छब्बीस दिन की उनकी शेष आयु बतलाई । दोनों नरेश अपनी स्वल्प आयु जान कर चौंक गए । तत्काल राजधानी में आ कर उन्होंने अपने पुत्रों को राज्याधिकार दिया और प्रव्रजित हो कर पादपोपगमन अनशन कर लिया । अनशन के चलते श्रीविजय मुनिजी के मन में अपने पिता का का स्मरण हुआ । सोचते हुए उनकी विचारधारा अमर्यादित हो गई। उन्हें विचार हुआ- मेरे तो तीन खण्ड के अधिपति थे | उन्हें 'वासुदेव' पद प्राप्त था । वे तीनों खण्ड में एक छत्र राज करते रहे । हजारों राजा उनकी आज्ञा के पालक थे । किन्तु में तो मनुष्य-भव पा कर वैसा कोई उत्तम पद प्राप्त नहीं कर सका और एक साधारण राजा ही रहा । अब यदि मेरी साधना का उत्तम फल हो, तो मैं भी वैसी ही उत्तम कोटि का नरेश बनूं-- इस प्रकार निदान कर लिया । मुनिवर अमिततेज ने अपनी भावना नहीं बिगड़ने दी । दोनों मुनिवर आयु पूर्ण कर के प्राणत नाम के दसवें स्वर्ग के 'सुस्थितावर्त' और 'नन्दितावर्त' नाम के विमान के स्वामी ' मणिचूल' और 'दिव्यचूल' नाम के देव हुए । उनकी आयु बीस सागरोपम प्रमाण थी ।
के पूर्व विदेह की रमणीय विजय में 'शुभा' नाम की एक नमरी थी । उसके राजा का नाम 'स्तिमितसागर' था । उसके 'वसुन्धरा' और 'अनुद्धरा ! ( अनंग सेना ) -- ये दो सुन्दर और सुशील रानियाँ थीं। अमिततेज का जीव देवलोक से च्यव कर रानी वसुन्धरा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । रानी ने बलदेव के योग्य गर्भ होने के सूचक चार महास्वप्न देखे । पुत्र जन्म हुआ और उसका 'अपराजित' नाम रखा गया । कालान्तर में श्रीविजय का जीव भी देवलोक से च्यव कर रानी अनुद्धरा के गर्भ में आया । उसने वासुदेव के योग्य सात महास्वप्न देखे । गर्भ-काल पूर्ण होने पर पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम 'अनन्तवीर्यं ' रखा । योग्य वय होने पर दोनों भाई समस्त कलाओं में पारंगत हुए ।
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